Srimad Bhagavad Gita: हर कर्म में उसका फल छिपा होता है

punjabkesari.in Friday, Sep 15, 2023 - 08:52 AM (IST)

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Srimad Bhagavad Gita: धर्मराज युधिष्ठिर से जब यक्ष ने पूछा कि धर्म क्या है, तो उन्होंने उत्तर दिया- धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गत: स पन्था:॥

अर्थात धर्म तत्व तो अत्यंत गूढ़ है, ऐसी अवस्था में महापुरुष जिस मार्ग से चलते हों, उसी मार्ग से जाना ही ठीक है, इसलिए संत और विद्वत पुरुषों का संग ही सनातन धर्म का परिचायक है। भगवान श्री कृष्ण भी भगवद् गीता में कहते हैं-

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

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अर्थात श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लगता है।

जब कभी भी हमारे जीवन में कुछ अवांछित घटित होता है तो हमारी मन:स्थिति में सर्वप्रथम यह भाव आता है कि यह जो कुछ कर्म है, वह सब दुख रूप ही है। ऐसा समझ कर हम शारीरिक क्लेश के भय से कर्त्तव्य कर्मों का परित्याग करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। भगवद् गीता में ऐसे त्याग को राजसी त्याग कहा गया है तथा इस प्रकार का त्याग करके भी मनुष्य त्याग का फल नहीं पाता।
अर्थात इस प्रकार का त्याग निरर्थक है जिसका कोई फल ही नहीं है। अज्ञानता के अभाव में हम इस प्रकार कई बार मिथ्या आचरण करते हैं। विरले मनुष्य ही चिंता, भय तथा क्लेश से मुक्त होकर अपने कर्त्तव्य मार्ग पर अग्रसर रहते हैं।

हमारे धर्म ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की सिद्धि के लिए यज्ञ, दान तथा तप आदि कर्मों का विधान दिया गया है। भगवद् गीता में स्पष्ट कहा गया है कि यदि कोई यह समझे कि इन कर्मों के परित्याग को ही त्याग कहते हैं, तो यह सर्वथा अनुचित है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ईश्वर भक्ति, माता-पिता तथा गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान तथा तप आदि सद्कर्म आसक्ति तथा फल की इच्छा के बिना करने पर ही वास्तविक एवं सात्विक त्याग कहलाते हैं।

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यदि हर कोई अपने कर्त्तव्य, कर्मों को छोड़कर फल की चिंता से ही ग्रस्त रहेगा, ऐसे में तो समाज की व्यवस्था ही बिगड़ जाएगी। फल के प्रति अधिक आसक्ति होगी तो कर्त्तव्य का भाव पीछे छूट जाएगा।

भगवद् गीता का यह सिद्धांत हर देश, काल तथा परिस्थिति में लागू होता है। क्षेत्र चाहे राजनीति का हो, सामाजिक अथवा आर्थिक, सत्ता छिन जाने का भय बुद्धि को हर लेता है। सत्ता रूपी फल पाने के लिए या उसकी स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए यदि शासक वर्ग अनैतिक ढंग से अपने प्रयोजन में सफल हो भी जाए, तो वह सफलता क्षणिक ही होगी और इसमें यश भी प्राप्त नहीं होता।
इतिहास साक्षी है कि जो फल की चिंता किए बगैर अपने कर्त्तव्य मार्ग पर अडिग रहे, उन्हें यश के साथ शाश्वत सिद्धि भी प्राप्त हुई, लेकिन जिन्होंने कर्त्तव्य कर्म की अपेक्षा फल को अधिक महत्व दिया, उन्हें इतिहास में सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं हुआ या वे समय के अंधकार में खो गए।

हर कर्म में उसका फल निहित होता है। जब आप कर्त्तव्य भाव से कर्म करते हैं तो आपका उसके फल पर अधिकार स्वत: ही सिद्ध हो जाता है परन्तु फल का स्वरूप आपकी इच्छा के अनुसार हो, यह अनिवार्य नहीं है। जब समाज में एक ही फल को लेकर मनुष्य की व्यक्तिगत इच्छाओं का टकराव पैदा होता है, तब समाज में अव्यवस्था पैदा होती है जो समाज की प्रगति और उन्नति के लिए बाधक है।   

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Content Writer

Niyati Bhandari

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