शास्त्रों से जानें, perfect life partner कैसे चुनें

punjabkesari.in Wednesday, Oct 25, 2017 - 09:49 AM (IST)

देवउठनी एकादशी के बाद से शादियों की शुरुआत हो चली है। ऐसे में कुछ खास बातों का ध्यान रखा जाए तो विवाह के सफल होने की संभावना बढ़ जाती है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में नाम बदल कर विवाह करना वर्जित है। एक ही नक्षत्र के एक ही चरण में उत्पन्न वर-कन्या का विवाह सर्वत्र वर्जित है। एक विवाह के पश्चात दूसरे विवाह में कम से कम छ: मास का अंतर होना चाहिए, यदि संवत बदल जाए तो छह महीने की शर्त अनिवार्य नहीं रहती। जब बृहस्पति सिंह राशि में स्थित होता है, तो विवाह वर्जित कहा गया है। इसे सींगषट के नाम से जानते हैं। नक्षत्र, तिथि, लग्न, दिन, नवांश, मुहूर्त, योग, अष्टम स्थान, जामित्र दोष इन सबका विचार गोधूलि लग्न में नहीं करना चाहिए।


विशाखा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में उत्पन्न कन्या अपने देवर का नाश करती है। नाश से तात्पर्य अनिवार्य मृत्यु से नहीं है, अपितु बीमारी, खर्चा, अपमान से है। ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न कन्या अपने जेठ के लिए अशुभ कही गई है। अत: ऐसी कन्या का विवाह सबसे बड़े लड़के से ही करना चाहिए। 


आश्लेषा नक्षत्र में उत्पन्न बालक या कन्या सास का और श्वसुर के लिए भारी होते हैं। वर कन्या के नक्षत्र एक नाड़ी में हो तो विवाह अशुभकारक होता है। उसमें भी मध्य नाड़ी में दोनों नक्षत्र हो तो भरण समझना चाहिए। मृगशिरा, हस्त, मूल, अनुराधा, मघा, रोहिणी, रेवती, तीनों उत्तरा, स्वाति ये नक्षत्र निर्वेध हो तो विवाह शुभ और मंगलकारी है।


विवाह लग्न में बारहवें में शनि, दसवें में मंगल, तीसरे में शुक्र और लग्न में चन्द्रमा तथा पाप ग्रह हो तो विवाह शुभ नहीं है। लग्नेश, शुक्र और चंद्रमा छठे भाव में अशुभ है। विवाह समय में बधिर लग्न हो तो दरिद्रता, दिवान्ध लग्न हो तो वैधव्य, निशान्ध लग्न हो तो संतान मरण, पंगु लग्न हो तो सम्पूर्ण धन का नाश होता है। 


वर कन्या दोनों की एक राशि हो और नक्षत्र भिन्न हो तथा नक्षत्र एक और राशि भिन्न हो तो नाड़ी और गुण दोष नहीं होता है, एक नक्षत्र हो और चरण अलग-अलग हो तो शुभ है। जन्म राशि या लग्न से अष्टम राशि का नवांश या उसका स्वामी विवाह लग्न में हो तो विवाह शुभकारक नहीं होता।


विवाहकालीन लग्न से द्वादश भाव में बृहस्पति हो तो स्त्री धनवान होती है। सूर्य हो तो निर्धन होती है। चंद्रमा हो तो अधिक व्यय करने वाली होती है। राहू हो तो कुमार्ग गामिनी होती है। शनि या मंगल हो तो मदिरा सेवन करने वाली होती है।


किसी स्त्री के विवाह लग्न के प्रथम भाव में चंद्रमा हो तो वह स्त्री अल्पायु होती है। द्वितीय भाव में चंद्रमा हो तो कई पुत्र होते हैं। विवाह लग्न से तृतीय भाव में राहू होने से समय से पूर्व ही मृत्यु की ग्रास बनती है।


राहू होने से सौतन के साथ रहना पड़ता है। पंचम भाव में चंद्रमा होने से शीघ्र मृत्यु होती है। षष्ठ भाव में बुध होने से क्लेशकारिणी होती है।
 

सप्तम भाव में शुक्र हो तो मृत्यु जैसा फल प्राप्त होता है। चंद्रमा हो तो पति छोड़ देता है। 


अष्टम भाव में मंगल होने से रोगिणी रहती है। नवम भाव में चंद्रमा होने से कन्या सन्तान उत्पन्न होती है। 


दशम भाव में राहू हो तो ऐसी स्त्री विधवा होती है। एकादश भाव में चन्द्रमा हो तो धनवान होती है।


विवाह से सोलह दिन के भीतर सम दिनों में या पांचवीं, सातवीं और नौवें दिन में वधू प्रवेश शुभ होता है। सोलह दिन के बाद विषम वर्ष में, विषम मास में, विषम दिन में वधू प्रवेश शुभ माना गया है। पांच वर्ष के बाद किसी भी समय शुभ दिन में वधू प्रवेश हो सकता है। मंगलवार, रविवार और रिक्ता तिथि में वधू प्रवेश अशुभ है। कुछ आचार्यों ने बुधवार को भी अशुभ माना है।


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