लंबी उम्र चाहते हैं तो भोजन करते वक्त इन Rules को करें Follow
punjabkesari.in Thursday, Aug 20, 2020 - 01:39 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
मनुस्मृति में कहा है-अन्नं ब्रह्म इत्युपासीत्।
अर्थात अन्न ब्रह्म है यह समझकर उसकी उपासना करनी चाहिए।
दोनों हाथ, दोनों पांव और मुख इन पांचों अंगों को जल का उपस्पर्श करके नित्य सावधान होकर अन्न को खाना चाहिए। भोजन के उपरांत भली प्रकार आचमन करना चाहिए तथा जल के द्वारा मुखस्थ छहों छिद्रों का स्पर्श करना चाहिए। नित्य प्रथम भोजन का पूजन करना चाहिए और बिना निंदा किए खाना चाहिए। भोजन को देखकर हर्ष-युक्त होना चाहिए और प्रसन्नतापूर्वक उसका अभिनंदन करना चाहिए।
ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखंड में लिखा है-अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेश्वर:।
अर्थात अन्न ब्रह्म है, रस विष्णु है और खाने वाले महेश्वर हैं।
अन्नं विष्टा जलं मूत्रं यद् विष्णोरनिवेदितम्।।
अर्थात विष्णु भगवान को भोग न लगा अन्न विष्टा के समान है और जल मूत्र के तुल्य है।
स्कंद पुराण में कहा गया है-अस् नायी समलं भुङक्ते अजपी पूयशोणितम्।सूय्र्यायाध्र्यमदत्वा च नर: किलिवषमश्नुते।
अर्थात् बिना स्नान किए भोजन करना मल खाने के तुल्य है। बिना जप किए भोजन खाना राध, पीप, रुधिर सेवन करने के समान है और सूर्य को अर्घ्य दिए बिना भोजन करना पाप खाने के समान है।
वैज्ञानिक विवेचन- उपर्युक्त शास्त्रीय प्रमाणों में जिन-जिन नियमों का संकेत किया है। इन सबकी विस्तृत व्याख्या करने पर एक स्वतंत्र ग्रंथ तैयार हो सकता है। इसलिए हम यहां केवल अत्यावश्यक बातों का ही उल्लेख करेंगे।
भोजन का सर्वप्रधान यह नियम है कि उसे केवल क्षुत निवृत्ति का साधन, पेट भरने मात्र के लिए किया जाने वाला क्षुद्र कार्य नहीं समझना चाहिए, बल्कि खाद्य पदार्थ को साक्षात ब्रह्म समझकर, भक्षण करना उसकी उपासना जैसा पवित्र कार्य मानना चाहिए।
अब यदि भोक्ता भोजन खाने से पूर्व यह भावना सुदृढ़ बना ले कि मैं पेट भरने नहीं चला किंतु भगवद् उपासना करने चला हूं तो अन्य सब नियम अपने आप ही पालन करने अनिवार्य हो जाएंगे। जैसे ईश्वर की उपासना में हाथ-पांव प्रक्षालन करके शुद्ध धौतेय वस्त्र पहनकर आसन पर बैठते हैं और सावधान मन से मौन होकर यथाविधि सब कृत्य करते हैं, तथैव भोजन के समय भी वैसे ही सब काम करना चाहिए। ईश्वर उपासना में किसी अपवित्र वस्तु को निकट भी नहीं आने देते। इसी प्रकार भोजन में भी कोई अपवित्र वस्तु चौके में नहीं घुसनी चाहिए।
यदि विचार किया जाए तो भोजन के इस नियम से ही तत्सम्बंधी अनेक शंकाओं का अपने आप निराकरण हो जाता है। अब यदि कोई पूछे कि भोजन से पूर्व स्नान क्यों करें जूता क्यों उतारें? वस्त्र क्यों उतारें? कुर्सी पर क्यों न बैठें? चौकी क्यों लगाएं? आसन पर क्यों बैठें? मौन क्यों रखें? लहसुन, प्याज, मद्य, मांस आदि का उपयोग क्यों न करें? होटलों में खानसामाओं का पकाया क्यों न खाएं?
तो इन सब प्रश्रों का एक ही उत्तर दिया जा सकता है कि यदि केवल पेट भरने के लिए खाना खाना हो, तब तो तुम पशुओं की भांति स्वतंत्र हो, जब जैसे जो चाहे यथेच्छ खाओ, परन्तु यदि दीर्घजीवी बनने के लिए भोजन करना है तो ईश्वर की उपासना में उपयुक्त न होने वाले सब रंग-ढंग व सब वस्तुजात अवश्य छोडऩे होंगे।
न चम्र्मोपरिसंस्थश्च चम्र्मवेष्टितापाश्र्ववान्।ग्रासलेशं न चाश्रीयात, पीतशेषं पिबेन्न तु।।शाकं मूलं फलेक्ष्वादि दन्तछेदैर्न भक्षयेत्।सञ्चयेन्नान्नमन्नेन विक्षिप्तं पात्रसंस्थितम्।बहूनां भुञ्जतां मध्ये न चाश्नीयात्त्वरान्वित:।।
अर्थात सिर ढांप कर भोजन करें। कुर्सी पर थाल रखकर न खाएं। एकमात्र वस्त्र पहनें और दुष्ट लोगों के सामने भोजन न करें। मृगादि के चर्म पर बैठकर भोजन न करें। जूता, चप्पल, खड़ाऊं पहनकर भोजन न करें। चमड़े पर बैठकर और चमड़े (पतलून की पेटी, चश्मे, घड़ी की चेन) द्वारा आवेष्टित हो भोजन न करें। किसी पदार्थ को दांतों से कुतरकर पुन: न खाएं। एक बार होठों से लगाकार पिए हुए पानी के अवशिष्ट भाग को पुन: न पीएं। थाली में बिखरा भात आदि भोजन पूरी रोटी के साथ इकट्ठा न करें। पंक्ति भोजन में सबके खाते रहने पर स्वयं झटपट खाने का प्रयत्न न करें।
न भिन्नभाण्डे भुञ्जीत। (मनु)अर्थात फूटे बर्तन में न खाएं।न नाविभुञ्जीत (आपस्तम्ब)अर्थात नाव में भोजन न करें। (लम्बी यात्रा में अनेक कमरों वाले महाजलयान स्टीमर इसके अपवाद हैं) एकवस्त्रो न भुञ्जीत कपाटमपधाय च। (देवल)
अर्थात केवल एक वस्त्र पहनें और किवाड़-पर्दा बिना बंद किए भोजन न करें।
खटवारूढो न भुञ्जीत। (यम)
अर्थात चारपाई/खाट पर बैठकर भोजन न करें।
यस्तु पाणितले भुङक्ते यस्तु फूत्कारसंयुतम्।प्रसृतांगुलिभिर्यश्च तस्य गोमांसवच्च तत्।।
अर्थात खुली हथेली पर रखकर जोर-जोर से सड़प्पे मारकर यानि फू-फू करते हुए और उंगलियां फैलाकर भोजन न करें।
न भुञ्जीताऽघृतं नित्यं सर्पराहुरघापहम्। (देवल)बिना घृत भोजन न करें, क्योंकि घृत ही भोजन के अनेक पापों का विनाशक है। नोच्छिष्टे घृतमादद्यात् (विष्णु)
अर्थात उच्छिष्ट (जूठे पदार्थ) में घृत नहीं डालना चाहिए।
करे कार्पासके चैव पाषाणे ताम्रभाजने।बटार्काश्वत्थपत्रेषु भुक्त्वा चांन्द्रायणं चरेत्।।पलाशपद्यनीचूतकदलीहेमराजते।मधुपत्रेषु भोक्तव्यं ग्रासमेकं तु गोफलम्।।
अर्थात हाथ पर, कपड़े पर, पत्थर और तांबे के बर्तन में, बट, अर्क, अश्वत्थ-बड़, आक, पीपल के पत्तों से बने दाने और पत्तलों पर नहीं खाना चाहिए। पलाश-ढाक, पद्मिनी-कमल, आम और केले से बनी पत्तल पर, सोने और चांदी के बर्तनों में तथा महुए के पत्ते पर भोजन करना लाभप्रद है।
आज भी भोजन की जो मर्यादा वैष्णवों में, उनमें भी खासकर श्रीसम्प्रदाय में प्रचलित है, शास्त्रोक्त आदर्श के सर्वाधिक निकट है, क्योंकि पीछे हमने भोजन के जो प्रधान चार नियम प्रकट किए हैं वे उक्त सम्प्रदाय में अभी तक अक्षुण्ण चले आते हैं। उक्त नियमों का पालन कर सभी लोग भोजन संबंधी नियमों का ग्रहपूर्वक पालन करते हुए दीर्घायु को प्राप्त करें।