हमने ऐसे भारत की कल्पना तो नहीं की थी

punjabkesari.in Saturday, Feb 03, 2018 - 02:50 AM (IST)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और आजादी के दशक और उसके आसपास जन्मी पीढ़ी ने भारत की ऐसी कल्पना तो कतई नहीं की होगी जैसा कि देश की वर्तमान दशा और दिशा से प्रतीत होता है। एक खुशहाल, संपन्न और अनेक सम्प्रदाय, जाति, धर्म तथा विविधताओं के बीच सौहार्दपूर्ण देश की कल्पना अवश्य की थी। 

आज स्थिति क्या है? जहां एक ओर हम गर्व से झूम उठते हैं जब गणतंत्र दिवस पर अपनी सेना के पराक्रम और नवीनतम तकनीक से युक्त देश की प्रगति की झलक देखते हैं लेकिन तभी शर्मसार भी हो जाते हैं, जब इस राष्ट्रीय त्यौहार पर साम्प्रदायिक और धार्मिक हिंसा होती देखते हैं। इसी तरह जब हम विदेशों में भारतीय साख का डंका बजते हुए देखते हैं तो वहीं देश में राम रहीम जैसे धर्म के नाम पर कुकर्म करने वाले बाबा को बचाने के लिए अपनी जान तक की बाजी लगाने को तत्पर ङ्क्षहसक भीड़ के दृश्य विचलित कर देते हैं। इसी तरह एक साधारण फिल्म को लेकर कुछ लोग देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश में लगे सामने आ जाते हैं। 

आजादी के बाद तय हुआ था कि हर हाथ को रोजगार मिलेगा, कोई अनपढ़ नहीं रहेगा, सभी सेहत से मालामाल होंगे और भारत उन देशों की तरह विकसित देश कहलाएगा जो हमारे साथ या उसके आसपास ही आजाद हुए थे। सच्चाई यह है कि जो देश दूसरे विश्व युद्ध में पूरी तरह से बर्बाद हो गए थे, जैसे कि जापान और जर्मनी, आज हम उनके सामने कहीं नहीं ठहरते। इसी कड़ी में यूरोप और एशिया के वे देश भी आते हैं जो आज हमसे बहुत आगे निकल चुके हैं, उनके यहां गरीबी और बेरोजगारी का पैमाना बदल चुका है। हम अभी भी गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की गिनती ही करते रहते हैं। बेरोजगारी का आंकड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है और सकल घरेलू आय उन देशों के बराबर आने का नाम ही नहीं ले रही। 

बेरोजगारी -एक कलंक: विश्व बैंक की मानें तो विकासशील देश के प्रति व्यक्ति को सालाना 3 लाख से 7 लाख कमाना चाहिए, तभी वह विकासशील की श्रेणी में आएगा लेकिन हमारे देश का प्रति व्यक्ति 1 लाख भी सालाना नहीं कमाता तो हम तो इस श्रेणी से बाहर ही हैं। देश ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जिनके पास रोजगार ही नहीं है। सरकारी नौकरी के एक पद के लिए लाखों आवेदन भरे जाते हैं। वहीं सरकारी नौकरियों की चयन प्रक्रिया इतनी सुस्त है कि उस नौकरी को पाने में सालों-साल लग जाते हैं, तब तक या तो वह निराश हो चुका होता है या अपनी काबिलियत से कम वेतन वाली नौकरी कर लेता है और इतना ही नहीं, अगर उस नौकरी की आयु सीमा 25 वर्ष है तो वह उस नौकरी के योग्य भी नहीं रह जाता। 

सोचने वाली बात यह है कि अगर वह व्यक्ति उसी नौकरी के भरोसे है और अंत में उसे उससे भी हाथ धोना पड़ जाए तो वह क्या करे? स्वाभाविक है कि वह या तो आत्महत्या करेगा और अगर कहीं वह उग्र स्वभाव का हुआ तो अपराध का रास्ता अपना लेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज और उसके नियम-कानून कहीं न कहीं अपराध को जन्म दे रहे हैं जो देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। डेनमार्क का एक उदाहरण लीजिए। वह एक ऐसा देश है, जहां सबसे ज्यादा रोजगार है, जहां भ्रष्टाचार लगभग न के बराबर है, नागरिकों की आय में बहुत कम असमानता है। ऐसा ही एक देश है कनाडा, जहां बेरोजगारी बहुत कम है। 

युद्ध में सबसे ज्यादा हताहत होने वाला जर्मनी दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है क्योंकि वहां उद्यमिता को सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया गया। इतना ही नहीं, यह दुनिया के सबसे ज्यादा शिक्षित देशों में भी शामिल है। न्यूजीलैंड, जापान और चीन जैसे देश सबसे कम करप्शन वाले, आर्थिक रूप से मजबूत और उच्च जीवन स्तर में आते हैं। वहां का एक अमीर इंसान अपनी कमाई उद्योग में, शिक्षा पर और लोगों की भलाई पर खर्च करता है। वहां टैक्स बचाने पर नहीं, जीवन स्तर सुधारने पर जोर दिया जाता है। 

विदेशी बनाम भारतीय रईस: ऐसा नहीं है कि विकसित देशों में गरीब और अमीर के बीच खाई न हो लेकिन एक खास अंतर है जिसकी वजह से वहां का अमीर यह कोशिश करता दिखाई देता है जिससे उनका गरीब तबका भी खुशहाल हो सके। उदाहरण के लिए हमारे यहां अमीर लोग अपने रहने के लिए विलासितापूर्ण महल बनवाते हैं या फिर भव्य धार्मिक स्थल बनवाते हैं। यही बात सरकारी स्तर पर है। बेशकीमती जमीन राजनीतिज्ञों की मृत्यु के बाद उनकी स्मृति बनाए रखने के नाम पर हथिया ली जाती है। 

विदेशी रईस अपना धन, विज्ञान और टैक्नोलॉजी अनुसंधान केन्द्र बनाने, शिक्षण संस्थानों की स्थापना करने और पिछड़े देशों में स्वास्थ्य तथा रोजगार के संसाधन जुटाने में खर्च करते हैं। भारतीय अमीर अपनी पीढिय़ों तक को आर्थिक सुरक्षा देेने का इंतजाम करता है, बच्चों की शादियों में करोड़ों रुपया खर्च करने में नहीं हिचकता और अपने वैभव का प्रदर्शन करने का एक भी अवसर नहीं छोड़ता। इसके विपरीत विकसित देशों के अमीर अपने परिवार की बजाय समाज के विकास में धन लगाने को प्राथमिकता देते हैं। भारत एक ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता दोनों को कानूनी और सामाजिक मान्यता प्राप्त है। यहां शिक्षा पर नहीं, धार्मिक और रीति-रिवाजों के पाखंडों पर जोर दिया जाता है। यूं तो भारत में 119 अरबपति हैं और इस लिहाज से भारत विश्व में तीसरा स्थान भी रखता है लेकिन गरीबी तो वहीं की वहीं बनी हुई है। लोग एक वक्त के खाने के लिए भी तरस रहे हैं और कुछ लोग लाखों का घोटाला करके डकार भी नहीं मार रहे। लोगों की आय में इतना अंतर है कि देश 2 भागों में बंट गया है इंडिया यानी अमीर और भारत यानी गरीब। 

यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर और कभी साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर घमासान बंद ही नहीं हो पा रहा है। लोग आज भी रूढि़वादिता में ही फंसे हुए हैं। जरूरी है कि जनमानस को अपनी सोच का दायरा बदलना होगा। इसमें सरकार की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। उसे अपनी करनी से ऐसे उदाहरण पेश करने होंगे जिनसे सामान्य नागरिक उसका अनुसरण करने को तत्पर हो।-पूरन चंद सरीन


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