भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए ‘अनेकतावाद’ का महत्व

punjabkesari.in Wednesday, Feb 24, 2016 - 01:54 AM (IST)

(एच.के. दुआ): अनेकतावाद की अवधारणा का भारत की परिकल्पना के साथ हाड़-मांस का नाता है। कोई भी दूसरे के बिना जिन्दा नहीं रह सकता। दोनों तरह के विचार प्रवाह एक साथ बहते जा रहे हैं और इसी प्रक्रिया में किसी न किसी स्थान पर उनका संगम नहीं हो जाता तो एक अरब से भी अधिक आबादी वाला यह देश मुश्किलों में घिर जाएगा। 

 
महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए लडऩे वाले लोग और कई दूसरे राष्ट्रीय एकता के लिए अनेकतावाद का महत्व समझते थे, जिसे कि ब्रिटिश शासन में बुरी तरह अस्त-व्यस्त कर दिया गया था। नव भारत का निर्माण करने के लिए ऐसा किया जाना अति आवश्यक था। आज भी इसकी जरूरत है। 
 
जो संविधान हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने तैयार किया था, वह एक प्रकार से राष्ट्रीय आम सहमति का प्रतिनिधित्व करता था और यही आम सहमति स्वतंत्र भारत के लिए अनेकतावादी समाज तथा अनेकतावादी राजनीतिक तंत्र के महत्व को रेखांकित करती है। 
 
राष्ट्र विभाजन के समय हुए व्यापक साम्प्रदायिक दंगों और दरपेश समस्याओं के बावजूद संविधान सभा में हुई अधिकतर बहसें राष्ट्रीय आम सहमति  को प्रतिबिम्बित करती थीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अधिकतर अन्य पाॢटयों ने अनेकतावादी तथा लोकतांत्रिक समाज एवं राजनीतिक तंत्र की परिकल्पना के महत्व को रेखांकित किया। अनेक प्रकार के उतार-चढ़ावों में से गुजरते हुए यह आम सहमति स्वतंत्रता प्राप्ति तथा बाद में संविधान अपनाए जाने से लेकर 7 दशक बाद भी हमारे पास विरासत के रूप में मौजूद है। 
 
फिर भी गत कुछ समय से देश के विभिन्न भागों में प्रभावशाली लोगों द्वारा इस आम सहमति पर सवाल उठाने वाले स्वर उभारे जा रहे हैं। ये स्वर न केवल ठोस रूप में राष्ट्रीय आम सहमति पर सवाल उठा रहे हैं  बल्कि बिल्कुल संविधान की बुनियादों को ही चुनौती दे रहे हैं। दीर्घकालिक रूप में यह बात दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ-साथ जोखिमपूर्ण भी होगी। 
 
संवैधानिक स्कीम के आलोचक इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि ‘सैकुलर’ शब्द तो संविधान की प्रस्तावना में केवल आपात्काल के दौरान 1976 में घुसेड़ा गया था। उनकी यह दलील बेशक त्रुटिपूर्ण है, फिर भी यह उस नींव को नहीं हिला पाई, जिस पर संविधान की पूरी परिकल्पना विकसित हुई है। 
 
केवल प्रस्तावना में ही नहीं बल्कि अन्य स्थानों पर भी संविधान किसी न किसी रूप में सैकुलरवाद के सिद्धांत और इस बात को रेखांकित करता है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में सैकुलरवाद अथवा अनेकतावाद का वास्तविक अभिप्राय: क्या है। संविधान में बाद में ‘सैकुलरवाद’ शब्द घुसेड़े जाने के आधार पर इसे चुनौती देने से विधान की उस अधोसंरचना को नकारा नहीं जा सकता, जो सैकुलर एवं लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर खड़ी है। 
 
भारत एक विशाल विभिन्नता से भरा देश है, फिर भी यदि एकल राष्ट्र सत्ता के रूप में नहीं तो भी एक राष्ट्र के रूप में कई शताब्दियों से जिन्दा है। वैसे भी एकल राष्ट्र सत्ता तंत्र की अवधारणा राजनीतिक तथा भू-क्षेत्रीय दृष्टि से बहुत अधिक पुरानी नहीं है। 
 
सैंकड़ों जातियों, अनेक मजहबों, भाषाओं और क्षेत्रीय विभिन्नताओं से ओत-प्रोत देश के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक ताने-बाने में अनेकता के बावजूद भारतीय राष्ट्र का सार तत्व भारत की एकता की अवधारणा को संजोए हुए है। सकारात्मक और भविष्योन्मुखी चिंतकों की दृष्टि में अनगिनत रंगों वाला भारतीय परिदृश्य एक प्रकार से अनेकता में एकता का सजीव प्रमाण है। 
 
एक अन्य दृष्टि से देखा जाए तो यह विभिन्नताएं अक्सर विभाजनकारी सिद्ध हुई हैं। गत कुछ समय से अनेकता में एकता की अवधारणा को उन लोगों द्वारा चुनौती दी जा रही है, जिनका यह मानना है कि भारत एक वर्चस्वशील बहुसंख्य मजहब से संबंध रखता है। इस प्रकार की मानसिकता प्रतिगामी है और निश्चय ही प्रगतिवादी चिन्तनधारा को प्रतिबिम्बित नहीं करती। जाति परम्परा को गौरवशाली विरासत कहते हुए न्यायोचित ठहराना एक अस्वस्थ रुझान है और शायद समाज पर हावी उच्च जातियों की हितसाधना करता है। लैंगिक विभाजन भी बहुत प्रचंड है। महिलाओं को कमजोर समझना और उन्हें बराबर की ताकत के रूप में न देखना भेदभाव तथा पोंगापंथी मानसिकता को प्रतिबिम्बित करता है और यह आधी आबादी को राष्ट्र निर्माण में योगदान करने से वंचित रखता है। 
 
सुदूर अतीत के इतिहास में अपनी पसंद-नापसंद के अनुसार झांकने और मस्जिद गिराने से सहिष्णु भारत की परम्परा को बल नहीं मिलता, बल्कि इसका विरोध ही प्रखर होता है। युवा पुरुषों और महिलाओं के अधिकारों पर खाप पंचायतों द्वारा निर्णयकारी भूमिका अदा किया जाना तथा कथित ‘मर्यादा हत्याएं’ (ऑनर किङ्क्षलग) कानून  के शासन के विरुद्ध जाता है। देश के अनेक भागों में संवैधानिक गारंटियों के बावजूद दलितों के साथ भेदभाव होता है। 
 
इसी प्रकार राष्ट्रीय आबादी का 8 प्रतिशत हिस्सा बनने वाले आदिवासी झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा देश के अन्य कई भागों में माओवादी बगावत का रास्ता अपना रहे हैं। नीति निर्धारकों को यह स्मरण रखना होगा कि सामाजिक धरातल के ऊपर और नीचे पनप रहे सामाजिक, राजनीतिक और आॢथक तनावों को तात्कालिक कार्य समझ कर उनका प्रबंधन करना चाहिए। कारण चाहे कोई भी हो, समाज का कोई भी वर्ग यदि अलगाव की भावना से ग्रसित महसूस करता है तो इससे आक्रोश तथा सामाजिक-राजनीतिक असंतोष का ही मार्ग प्रशस्त होता है। 
 

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