भारत बंद : शिकायतों का देश बना भारत

punjabkesari.in Wednesday, Mar 30, 2022 - 04:10 AM (IST)

पैट्रोल के बढ़तेे मूल्यों पर आक्रोश के मद्देनजर शिकायतें आम बात हो गई हैं। कारण महत्वपूर्ण नहीं है, इसका सरोकार केवल अपना विरोध प्रदर्शन करने से है। विरोध प्रदर्शन जितने ऊंचे स्वर में हो, उतना अच्छा और इसकी सफलता का मापन इस बात से किया जाता है कि लोगों को इससे कितनी असुविधा हुई और कितना काम ठप्प हुआ। आप इसकी कितनी भी आलोचना करें किंतु यह एक उद्देश्य से किया जा रहा है। 

ताजा 48 घंटे का भारत बंद केन्द्र सरकार की कामगार विरोधी, किसान विरोधी, जन विरोधी और राष्ट्र विरोधी नीतियों के विरुद्ध श्रमिक संघों के संयुक्त मंच द्वारा आयोजित किया गया तथा यह सोमवार से मंगलवार तक चला। इससे सार्वजनिक बैंकिंग सेवाएं, परिवहन, रेलवे और बिजली आपूर्ति प्रभावित हुई। 

श्रमिक संघों की मुख्य मांग श्रम कानूनों में लचीलेपन, श्रम निरीक्षण के उदारीकरण, किसी भी तरह के निजीकरण और राष्ट्रीय मौद्रीकरण पाइपलाइन से संबंधित श्रम कानून में प्रस्तावित संशोधनों को रद्द करना है। साथ ही मनरेगा के अंतर्गत मजदूरी में वृद्धि की मांग, ठेके के कामगारों के नियमितीकरण की मांग भी उठाई गई। हरियाणा, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और केरल इससे सर्वाधिक प्रभावित रहे। वामपंथी दलों और द्रमुक के सदस्यों ने संसद के बाहर प्रदर्शन भी किया। 

प्रश्न उठता है कि क्या हड़ताल स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है या इसका तात्पर्य लोकतंत्र में मूल अधिकारों का दमन है? क्या कामगारों के हितों, बेहतर मजदूरी और जीवन की गुणवत्ता के प्रति प्रतिबद्धता, राजनीतिक कारणों या अप्रासंगिक होने के भय के कारण श्रमिकों को एकजुट रखना है और क्या यह सरकार के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन का प्रभावी तरीका है? कामगारों का कहना है कि राज्य की नव उदारवादी नीतियां, जो नियोक्ताओं के पक्ष में हैं, उनसे उनके ऐतिहासिक अधिकारों को छीना जा रहा है। आज स्थिति ऐसी हो गई है कि समाज का हर वर्ग हड़ताल करने की योजना बना रहा है क्योंकि यह लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए आवश्यक है। 

उल्लेखनीय है कि वर्ष 1991 से केन्द्रीय श्रमिक संघों ने 18 राष्ट्रव्यापी बंद किए हैं और बैंकों, बीमा कंपनियों आदि द्वारा केन्द्र सरकार की आर्थिक और श्रम नीतियों के विरुद्ध हड़तालें की गई हैं। पिछले 3 वर्षों में 210 हड़तालों और लॉकआऊट के कारण 36.94 लाख श्रम दिवसों का नुक्सान हुआ और इस मामले में केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक शीर्ष स्थान पर हैं। ये आंकड़े श्रम और रोजगार मंत्रालय के हैं। वर्ष 2018-20 के दौरान 89 हड़तालों में सरकारी क्षेत्र को सर्वाधिक 19.91 लाख श्रम दिवसों का नुक्सान हुआ। प्रत्येक विरोध प्रदर्शन से यह आशा जगती है कि शिकायतों का निराकरण होगा क्योंकि लोग अपने अधिकारों और संविधान पर हमले के विरुद्ध सड़कों पर उतर आते हैं। 

बंद की मूल अवधारणा इस बात पर केन्द्रित थी कि व्यवस्था को हिलाने के लिए शक्तिहीन लोगों के समूह के पास एकमात्र उपाय विरोध प्रदर्शन करना है, जिसमें अधिक मजदूरी के लिए घेराव से लेकर नीतिगत निर्णयों के विरुद्ध हड़ताल भी शामिल है। किंतु धीरे-धीरे इसमें विकृति आने लगी। हड़ताल को तभी प्रभावी माना जाने लगा जब काम बंद हो। इसलिए हड़ताली लोग अपने जनाधार का उपयोग करने लगे और इसमें ङ्क्षहसा का प्रयोग होने लगा तथा हर चीजें ठप्प की जाने लगीं। 

विडंबना देखिए, एक ओर हम कहते हैं कि भारत विश्व की अगली महाशक्ति है और इसकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है, दूसरी ओर हम यह नहीं समझ पाते कि इस लक्ष्य की प्राप्ति में हड़ताल एक बाधा है। किसी भी सभ्य राष्ट्र में पार्टियां या श्रमिक संघ विरोध की आवाज के लिए नागरिकों के कष्टों को उचित नहीं ठहराते। बंद का कोई भी आह्वान पीड़ित आम आदमी द्वारा किया जाना चाहिए न कि श्रमिक संघों, नेताओं या कार्पोरेट क्षेत्र की बड़ी बिल्लियों द्वारा। 

वस्तुत: लोग हड़तालों से ऊब गए हैं। एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार 4 में से 3 लोग हड़ताल पर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में हैं। 10 में से 8 लोग हड़ताली नेताओं को कठोर दंड देने या भारी जुर्माना लगाने के पक्षधर हैं। केवल 15 प्रतिशत लोग हड़ताल में विश्वास करते हैं। 10 प्रतिशत लोग हड़तालों में स्वेच्छा से भाग लेते हैं। 60 प्रतिशत लोग सविनय अवज्ञा, शांतिपूर्ण धरना, कैंडल लाइट मार्च के गांधीवादी विरोध प्रदर्शन का समर्थन करते हैं। 

यह सच है कि संविधान में व्यक्ति को विरोध करने का अधिकार दिया गया है किंतु संविधान में किसी भी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं दिया गया। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि लोकतंत्र न तो भीड़तंत्र है और न ही अव्यवस्था पैदा करने का लाइसैंस। यह अधिकारों और कत्र्तव्यों, स्वतंत्रता और दायित्वों के बीच एक नाजुक संतुलन है। 

समय आ गया है कि हम अमरीकी कानून से प्रेरणा लें, जिसमें राष्ट्रीय राजमार्ग या उसके निकट भाषण देने का संवैधानिक अधिकार नहीं है, ताकि ऐसे स्थानों पर भीड़ एकत्र न हो और राजमार्ग बाधित न हो। ब्रिटेन में पब्लिक ऑर्डर एक्ट 1953 के अंतर्गत यूनिफार्म में किसी भी सार्वजनिक सभा में भाग लेना एक अपराध बनाया गया है। प्रिवैंशन ऑफ  क्राइम एक्ट, 1953 के अंतर्गत विधिपूर्ण प्राधिकार के बिना किसी भी सार्वजनिक स्थान पर हथियार ले जाना एक अपराध है। सैडिटियस मीटिंग्स एक्ट, 1817 में संसद की बैठकों के दौरान वेस्टमिंस्टर हाल के एक किलोमीटर की परिधि में 50 से अधिक लोगों की बैठक पर प्रतिबंध लगाया गया है। 

कुल मिलाकर एक ऐसे वातावरण में जब बाहुबल का प्रयोग कर अपना हिस्सा मांगना व्यक्ति का दूसरा स्वभाव बन गया हो तो ऐसे समय में हड़तालों को बंद किया जाना चाहिए। राज्य को पंगु बनाना, कार्पोरेट क्षेत्र का ध्यान खींचने के लिए ब्लैकमेङ्क्षलग करना, नीतियों में बदलाव करवाना, धन के प्रवाह को बाधित करना, निवेशकों को भगाना, रोजगार को संकट में डालना, ये सब उचित नहीं है। यहां पर हड़तालों की कोई गुंजाइश नहीं है, चाहे वे किसी भी उद्देश्य से बुलाई गई हों। हमें एकजुट होकर खड़े होना होगा और कहना होगा ‘बंद करो यह नाटक’।-पूनम आई. कौशिश
 


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