कांग्रेस लगातार सत्ता में रहने के कारण अब हार रही है

punjabkesari.in Saturday, Feb 14, 2015 - 02:23 AM (IST)

अरविंद केजरीवाल ने अपने गुरु अन्ना हजारे से अलग होकर आम आदमी पार्टी (आप) बना ली जो 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में 28 सीटें जीत कर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी तथा 15 वर्षों से सत्तारूढ़ कांग्रेस की शीला दीक्षित को 22000 वोटों से हरा कर कीर्तिमान बनाया।

शुरू में तो केजरीवाल ने कांग्रेस व भाजपा दोनों को माफिया द्वारा संचालित व भ्रष्ट बताकर अपने बच्चों की कसम खाई थी कि वह उनके समर्थन से सरकार नहीं बनाएंगे पर भाजपा के सरकार बनाने से इंकार करने पर उन्होंने कांग्रेस द्वारा दिए गए बिना शर्त समर्थन से सरकार बना ली परंतु कांग्रेस व भाजपा द्वारा ‘लोकपाल’ को समर्थन न देने पर 14 फरवरी, 2014 को त्यागपत्र दे दिया। 
 
हमने तो 29 दिसम्बर 2013 के सम्पादकीय ‘‘अब आप की अग्रि परीक्षा शुरू’’ में पहले ही लिखा था कि जैसे कांग्रेस ने चौ. चरण सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा व इंद्र कुमार गुजराल को समर्थन देकर बाद में उनकी सरकारें गिरा दी थीं वैसे ही वह केजरीवाल की सरकार को भी गिरा देगी और ऐसा ही हुआ। 
 
यदि भाजपा के इंकार के बाद केजरीवाल भी सरकार न बनाते तो केंद्र को मजबूरन फिर चुनाव करवाने पड़ते और वह रिकार्ड संख्या में सीटें जीत कर प्रबल बहुमत से सत्ता में लौटते जैसे अब जीते हैं। 
 
10 फरवरी को आधिकारिक नतीजे आते ही कांग्रेस में घमासान मच गया व आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए। पार्टी की प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष अजय माकन ने किसी का नाम लिए बिना (शीला) सरकार को जिम्मेदार ठहराया व कहा कि ‘‘जब भी हम जनता को सस्ती बिजली और पानी देने की बात कहते हैं तो हमसे पिछले 15 वर्षों का हिसाब मांगा जाता है।’’ 
 
इसके जवाब में 12 फरवरी को शीला दीक्षित ने कहा कि ‘‘चुनावों पर अजय माकन का ध्यान था ही नहीं। वह किसी बड़े नेता को साथ लेकर नहीं चले और उनका मानना था कि वह अकेले ही सब कुछ कर लेंगे। उन पर मुझे तरस आ रहा है।’’ शीला ने तो यहां तक कह दिया, ‘‘कांग्रेस में क्या कुछ गलत नहीं हुआ। हमने कोई रणनीति, कोई विजन ही नहीं बनाया।’’ 
 
शीला के बयान को बिल्कुल गलत बताते हुए दिल्ली के मामलों के कांग्रेस प्रभारी पी.सी. चाको ने कहा कि शीला के कार्यकाल में अनसुलझे छोड़े गए मुद्दे पार्टी की हार का कारण बने। दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष लवली ने भी कहा है कि ‘‘शीला जी को माकन पर दोष मढऩे का अधिकार नहीं है क्योंकि वह भी चुनाव प्रचार समिति का हिस्सा थीं, सभी बैठकों में हाजिर होती थीं और प्रचार के लिए भी गई थीं।’’ और सोनिया ने भी पार्टी नेताओं को फटकार लगाते हुए दिल्ली विधानसभा के चुनावों में मिली हार पर सार्वजनिक मंचों पर आपस में न उलझने की नसीहत दी। 
 
वास्तव में इस समय कांग्रेस इतनी बुरी स्थिति में पहुंच चुकी है कि संभलने में इसे कुछ वर्ष लग जाएंगे। अत: कांग्रेस के लिए यह समय आपस में उलझने का नहीं, शांत भाव से अपनी कमजोरियों को दूर करने का है। 
 
पी.सी. चाको ने तो एग्जिट पोल के अनुमान आते ही कह दिया था कि ‘‘संगठनात्मक ढांचे के अभाव और प्रदेश, जिला व ब्लाक स्तर पर कार्यकत्र्ताओं में कोई तालमेल न होने की कीमत कांग्रेस को चुकानी पड़ी है।’’ 
 
कांग्रेस के कार्यकत्र्ताओं की नाराजगी, उच्च पार्टी नेताओं की जमीनी कार्यकत्र्ताओं से दूरी, कांग्रेस हाईकमान से मिलने के लिए मुख्यमंत्रियों तक को दिल्ली में कई-कई दिन बैठने को मजबूर होना, परिवारवाद, टिकट वितरण में पक्षपात, धड़ेबंदी व फूट, अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की नीति तथा राज्यों के पार्टी नेताओं में सिरफुटौवल, आम जनता से दूरी, चुनाव प्रभारियों का राज्यों में न जाना आदि भी कांग्रेस के रसातल में उतरते जाने के कारण हैं।
 
इन सबका समाधान पार्टी संगठन के सही अर्थों में पुनर्गठन और सकारात्मक चर्चा से ही संभव है। पार्टी के समर्पित सदस्यों तक की उपेक्षा का ही परिणाम है कि जी.के. वासन, जयंती नटराजन, कृष्णा तीरथ, जगमीत बराड़, बीरेंद्र सिंह और राव इंद्रजीत सिंह जैसे पुराने नेता इसका साथ छोडऩे को मजबूर हो गए और पंजाब, हरियाणा से महाराष्ट्र तक पार्टी इकाइयों में सिरफुटौवल जारी है। 
 
उपरोक्त कारणों के अलावा लम्बे समय तक सत्ता में रहने से पार्टी में आई कुदरती कमजोरियों व सत्ता विरोधी लहर भी इसकी हार का कारण बनी। ऐसे हालात में कांग्रेस नेतृत्व गम्भीरतापूर्वक ऐसे प्रयास करे ताकि अगले चुनावों तक पार्टी कुछ संभल सके क्योंकि इसका मजबूत होना ही देश के तथा स्वयं इसके हित में है।
 

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