सुभाष जयंती आज: भुलाए नहीं भूलेगी ‘आजाद हिंद सेना’ के सिपाही की स्मृति

punjabkesari.in Monday, Jan 23, 2017 - 09:45 AM (IST)

23 जनवरी 1897 की वह अनुपम बेला भला कौन भुला सकता है, जब उड़ीसा के कटक शहर में एक नामी वकील जानकी दास बोस के घर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में चमकने वाला एक ऐसा वीर योद्धा जन्मा था, जिसे पूरी दुनिया ने नेताजी के नाम से जाना और जिसने अंग्रेजी सत्ता की ईंट से ईंट बजाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बचपन से ही कुशाग्र, निडर, किसी भी तरह का अन्याय और अत्याचार सहन न करने वाले तथा अपनी बात पूरी ताकत के साथ कहने वाले सुभाष ने मैट्रिक की परीक्षा 1913 में कलकत्ता के प्रैजीडैंसी कॉलेज से द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की।


कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1919 में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माता-पिता के दबाव के चलते सुभाष आई. सी. एस. की परीक्षा के लिए इंगलैंड चले गए और उन्होंने अगस्त 1920 में यह परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण भी कर ली परन्तु उस समय देश का माहौल इस तरह के सम्मानों के सर्वथा विपरीत था, इसलिए सुभाष दुविधा में थे कि वह एक आई.सी.एस. के रूप में नौकरी करके ऐश की जिंदगी बिताएं या अंग्रेज सरकार की इस शाही नौकरी को लात मार दें। उन्होंने तब अपने पिता को पत्र भी लिखा, ‘‘दुर्भाग्य से मैं आई.सी.एस. की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया हूं मगर मैं अफसर बनूंगा या नहीं, नहीं कह सकता।’’


देशभक्त सुभाष ने निश्चय किया कि वह ब्रिटिश सरकार में नौकरी करने के बजाय देश सेवा ही करेंगे और उसी समय उन्होंने ब्रिटेन स्थित भारत सचिव (सैक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया) को त्यागपत्र भेजते हुए लिखा कि वह विदेशी सत्ता के अधीन कार्य नहीं कर सकते। नौकरी छोड़कर सुभाष भारत लौटे तो बंगाल में उस समय देशबंधु चितरंजन दास का बहुत प्रभाव था। सुभाष भी उनसे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने चितरंजन दास को अपना राजनीतिक गुरु बना लिया। 1921 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता ले ली। दिसम्बर 1921 में भारत में ब्रिटिश युवराज प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत की तैयारियां चल रही थीं, जिसका चितरंजन दास और सुभाष ने घोर विरोध किया और जलूस निकाले, इसलिए दोनों को जेल में डाल दिया गया। इस तरह सुभाष 1921 में पहली बार जेल गए।  


सुभाष पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे, इसलिए उन्होंने 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में ‘विषय समिति’ में नेहरू रिपोर्ट द्वारा अनुमोदित प्रादेशिक शासन स्वायत्तता के प्रस्ताव का डटकर विरोध किया था।


1930 में सुभाष कलकत्ता नगर निगम के महापौर निर्वाचित हुए और फरवरी 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में पहली बार पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। उसके बाद जनवरी 1939 में महात्मा गांधी के प्रबल विरोध के बावजूद वह पुन: कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए लेकिन आपसी मतभेद इतना बढ़ चुका था कि अप्रैल 1939 में उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर 5 मई 1939 को ‘फारवर्ड ब्लॉक’ नामक नया दल बना लिया।


उस समय तक सुभाष की गतिविधियां और अंग्रेज सरकार पर उनके प्रहार इतने बढ़ चुके थे कि अंग्रेज सरकार ने उन्हें भारत रक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया। जेल में सुभाष ने आमरण अनशन शुरू कर दिया, जिससे उनकी सेहत बहुत बिगड़ गई तो अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल से रिहा कर उनके घर में ही नजरबंद कर दिया लेकिन जनवरी 1941 में सुभाष अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंककर वहां से भाग निकलने में सफल हो गए। वहां से निकलकर वह काबुल और पेशावर होते हुए जर्मनी की ओर कूच कर गए। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था तथा जापानी अंग्रेजों पर भारी पड़ रहे थे, अत: सुभाष ने जापानियों की मदद से अपनी लड़ाई लडऩे का निश्चय किया।


10 अक्तूबर 1942 को उन्होंने बर्लिन में ‘आजाद हिंद सेना’ की स्थापना की। अक्तूबर 1943 में सेना का विधिवत गठन हुआ। इसमें हर जाति, हर धर्म, हर सम्प्रदाय के सैनिक थे और इसके विधिवत गठन के समय नेताजी ने भारत को विदेशी गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ नारे के साथ समस्त भारतवासियों का आह्वान किया था। उनकी बातों और इस नारे से देशवासी इतने प्रभावित हुए कि देखते ही देखते उनके साथ एक बहुत बड़ा काफिला खड़ा हो गया। 18 अगस्त 1945 को सिंगापुर से टोक्यो जाते समय फार्मोसा में नेताजी का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और इस तरह स्वतंत्रता की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण अध्याय वहीं समाप्त हो गया।


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