कलयुग के न्यायधीश शनि देव दिलवलाते हैं कुंडली के सबसे बड़े दोष से मुक्ति

punjabkesari.in Friday, Nov 24, 2017 - 09:59 AM (IST)

ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से कुण्डली में निर्मित पितृदोष जीवन में समस्याओं तथा बाधाओं का कारण है। ज्योतिष के मतानुसार पितृदोष को कष्टकारी और बाधक योग माना जाता है। किसी भी जातक की जन्मकुंडली में पितृदोष का कारण सूर्य, शनि, राहु और केतु ग्रह की स्थिति होती है। कुण्डली में पितृदोष का पता लगाने हेतु अलग-अलग ग्रहों पर विचार किया जाता है। जैसे सूर्य से पुरुष, चन्द्रमा से स्त्री या माता, मंगल से भाई और शुक्र से पत्नी संबंधित पितृदोषों के असर पहचाना जा सकता है। 


जन्म कुण्डली का अर्थ: शब्द ''कुण्डली'' सत्यार्थ है सर्प की कुंडली है तथा जन्मपत्रिका को जन्म कुण्डली कहने का तर्क भी इसी आधार पर बना हुआ है। अतः जातक की कुण्डली में नव ग्रहों में प्रभाव का परिपालन कर्म नियंत्रक छाया ग्रहों राहू-केतु और कलयुग के न्यायधीश शनि देव का है। कालपुरुष सिद्धांत के अनुसार सूर्य सृष्टि का पिता है तथा शनि सूर्य का पुत्र है। ज्योतिष सिद्धांत के मतानुसार सूर्यपुत्र शनि एक सर्प है तथा राहू सर्प का मुख है और केतु सर्प की पूंछ है। मान्यता अनुसार सूर्य शनि राहू और केतु ये चार ग्रह सर्व ब्रहमांड के मूल कारण शिव की न्यायिक प्रिक्रिया के पात्र हैं। समस्त संसार के संहारकरता शिव हैं और मृत्युलोक के वासिओं के कर्मों का फल देने के लिए महादेव ने इन चारों को नियुक्त उसी समय कर दिया था जब सृष्टि के निर्माण के समय परम पिता ब्रह्मा जी ने 'मनु और शतरूपा' को भोग करके जीव निर्माण की प्रेरणा दी थी।


पितृदोष का ज्योतिष तर्क: कुण्डली के दशम भाव को पिता का भाव या पितृ का भाव कहा जाता है। ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार किसी भी भाव से बारवां भाव मोक्ष का भाव कहलाता है। सूर्य इस सृष्टि का पिता है अतः कुण्डली का दशम भाव सूर्य का नैसर्गिक स्थान है। जातक की जन्मकुंडली का नवम भाव अर्थात भाग्य स्थान पितृ मोक्ष स्थान कहलाता है। कुण्डली का अष्टम स्थान पितृ लाभ स्थान कहलाता है। वेदिक ज्योतिष अनुसार कुण्डली का पंचम स्थान पूर्व पुण्य जन्म स्थान कहलाता है अतः कुण्डली का पंचम स्थान पितृगण के पितृगण का लाभ स्थान है, इसी कारण पंचम स्थान को पूर्व पुण्यप्रद पितृ स्थान कहा गया है। कुण्डली में बनने वाला पितृदोष पंचम, अष्टम, नवम तथा दशम स्थान में बैठे क्रूर ग्रह से निर्मित होता है यां पंचमेश, अष्टमेश, भाग्येश यां दशमेश की किसी क्रूर ग्रह के साथ युति द्वारा निर्मित होता है। 


शनि द्वारा निर्मित पितृदोष: कालपुरुष सिद्धांत अनुसार प्राकृतिक रूप से जन्मकुण्डली के दशम भाव का स्वामी शनि होता है। कुण्डली का दशम भाव को पिता का भाव यां पितृ का भाव कहलाता है। जब कभी भी जन्मकुण्डली में सूर्य और शनि की युति अगर पंचम, अष्टम नवम अथवा दशम स्थान में होती है तो पितृदोष का निर्माण होता है। इसे पिता की पुत्र से दुश्मनी भी माना गया है। दूसरी स्थिति में अगर जातक की कुण्डली में पंचम, अष्टम नवम अथवा दशम स्थान में अगर शनि और राहू की युति होती है तो पितृदोष का निर्माण होता है।


शनिदेव दिलाते हैं पितृदोष से मुक्ति: शात्रों में शनि को ही कुण्डली में पितृदोष का निर्माता माना गया है तथा शनि को ही पितृदोष से मुक्ति का प्रदाता मना गाया है। शास्त्र अनुसार पीपल को शनि का मूल स्थान माना गया तथा शास्त्रों में पीपल के वृक्ष को ब्रह्म वृक्ष अथवा देव वृक्ष माना गया है। कालपुरुष सिद्धांत अनुसार समुद्र को पिता की संज्ञा दी गयी है तथा सूर्य और शनि संयुक्त रूप समुद्र पर अधिपत्य है। तिथियों में अमावस्या को पितृ और शनि की संज्ञा दी गयी है। अतः निम्न उपाय करके पितृदोष से मुक्ति पाई जा सकती है।


हर अमावस को कंडे का धुप कर के उसमे खीर का भोग लगाकर दक्षिण दिशा की ओर पितृगण का आव्हान कर के उनसे क्षमा याचना करे।


शनिवार के दिन उड़द के आटे में गुड मिलाकर तथा सरसों के तेल में तले पुए काली भैंस को खिलाएं।


शनिवार के दिन काले कपड़े में 400 ग्राम सरसों और काले तिल बांधकर नदी में प्रवाहित करें।


शनिवार के दिन काले शिवलिंग पर पानी में शमीपत्र मिलाकर अभिषेक करें। 


शनि अमावस्या के दिन घर की दक्षिण दिशा में तेल का दीपक जलाएं। 


पितृगण के निमित शनिवार के दिन समुद्र में नारियल बहा दें।


पानी में काले तिल मिलाकर सूर्य को अर्घ्य दें।


शनिवार के दिन पीपल की जड़ में जल चढ़ाएं।


आचार्य कमल नंदलाल
ईमेल: kamal.nandlal@gmail.com


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