महाभारत: गणेश जी नहीं बल्कि सबसे पहली पूजा के अधिकारी बने श्रीकृष्ण, पढ़ें कथा
punjabkesari.in Thursday, Apr 16, 2020 - 06:10 AM (IST)

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जब भगवान श्रीकृष्ण भीमसेन द्वारा जरासन्ध का वध करवा कर तथा उसके द्वारा बंदी बनाए गए राजाओं को मुक्त करके इंद्रप्रस्थ लौट आए तब महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने भगवान श्री कृष्ण की अनुमति से वेदवादी ब्राह्मणों का आचार्य आदि के रूप में वरण किया।
धर्मराज युधिष्ठिर ने सभी प्रधान ऋषियों के साथ द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधन तथा विदुर आदि को भी यज्ञ में आमंत्रित किया। राजसूय यज्ञ का दर्शन करने के लिए देश-विदेश के सब राजा, उनके मंत्री तथा सभी आम और खास लोग वहां आए।
ब्राह्मणों ने सोने के हलों से यज्ञ भूमि को जुतवा कर राजा युधिष्ठिर को शास्त्रानुसार यज्ञ की दीक्षा दी। यज्ञ के सब पात्र सोने के बने हुए थे। विधिपूर्वक यज्ञ कार्य प्रारंभ हुआ। अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में अग्र पूजा किस की होनी चाहिए। जितनी मति थी उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका।
सहदेव ने कहा, ‘‘यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ही अग्र पूजा के अधिकारी हैं। यह सारा विश्व ही श्रीकृष्ण का रूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्ण रूप ही हैं। ये अपने संकल्प से की जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। इसलिए सबसे महान भगवान श्रीकृष्ण की ही अग्र पूजा होनी चाहिए।
इतना कहकर सहदेव चुप हो गए। उस समय युधिष्ठिर की यज्ञ सभा में जितने सत्पुरुष थे, सबने एक स्वर से ‘बहुत ठीक’ कह कर सहदेव की बात का समर्थन किया।
धर्मराज युधिष्ठिर ने सभासदों का अभिप्राय: जान कर बड़े ही आनंद से भगवान श्रीकृष्ण के पांव पखारे। उस समय देवताओं ने आकाश से पुष्पों की वर्षा की।
अपने आसन पर बैठा शिशुपाल यह सब देख रहा था। भगवान श्रीकृष्ण की अग्र पूजा देखकर वह मन-ही-मन जल-भुन गया। उसने कहा, ‘‘सभासदो! आप लोग अग्र पूजा के अधिकारी पात्र का चयन करने में सर्वथा असमर्थ रहे। बालक सहदेव के कहने पर आप लोग कृष्ण की अग्र पूजा कर रहे हैं, जो कदापि उचित नहीं है। यहां बड़े-बड़े तपस्वी, ज्ञानी, ब्रह्मनिष्ठ महात्मा बैठे हुए हैं, जिनकी पूजा लोकपाल भी करते हैं। उनको छोड़कर यह भला अग्र पूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है।’’
इस प्रकार शिशुपाल ने भगवान श्री कृष्ण को और भी बहुत-सी अशोभनीय बातें कहीं। सभासदों के लिए शिशुपाल की बात सुनना असह्य हो गया। उसे मार डालने के लिए पाण्डव, मत्स्य, कैकेय और सूर्यवंशी राजा हाथ में हथियार लेकर खड़े हो गए परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि मैंने अपनी बुआ को इसकी सौ गालियां क्षमा करने का वचन दे रखा है। जैसे ही वे पूरी हो जाएंगी, इसका अंत निश्चित है।
जब शिशुपाल सौ से अधिक गालियां बकने लगा, तब भगवान ने सबके देखते-देखते अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट डाला। उसके शरीर से एक दिव्य ज्योति निकल कर श्रीकृष्ण में समा गई। वह वैरभाव से ही सही, भगवान का चिंतन करने के कारण मुक्त हो गया।