Kabir Das Jayanti 2020: कबीर दास की वाणी बदल सकती है अपकी जिंदगानी

punjabkesari.in Friday, Jun 05, 2020 - 10:19 AM (IST)

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Kabir Das Jayanti 2020: वाणी सद्गुरु कबीर की एक बार जो प्रेम से पढ़ ले, उसके जीवन में आएगा ऐसा बदलाव, वो खुद रह जााएगा हैरान। 

हांसी खेल हराम है, जो जन रमते राम। माया मंदिर इस्तरी, नहिं साधु का काम॥ 
भावार्थ :
जो सज्जन सदा राम में रमते हैं अर्थात आत्म-ज्ञान में स्थित रहते हुए ध्यान भजन में लीन रहते हैं, उनके लिए सांसारिक हास्य-मजाक तथा खेल हराम है। इसी प्रकार संसार में माया-मोह, मन रिझाने के महल-मंदिर और विषय-वासना से लिप्त स्त्री से साधुजनों का कोई संबंध नहीं।

PunjabKesari Kabir Das Jayanti 2020

सब वन तो चंदन नहीं, शूरा के दल नाहिं। सब समुद्र मोती नहीं, यों साधु जग माहिं॥ 
भावार्थ :
सारा वन चंदन नहीं होता, शूरवीरों के दल नहीं होते और सारा ही समुद्र मोतियों से भरा हुआ नहीं होता। इसी प्रकार विवेकवान साधक-परायण विरक्त साधु इस संसार में बहुत कम होते हैं अर्थात इस संसार में ऐसे-वैसे की तो भरमार है परंतु मूल्यवान व गुणवान पदार्थों का अभाव है।

संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय। लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय॥ 
भावार्थ :
साधु-संतों की संगत करो, वह कभी भी निष्फल नहीं हो सकती। जिस प्रकार पारसमणि के स्पर्श से लोहा स्वर्ण में बदल जाता है, उसी प्रकार संतों की सत्संगति से दुष्ट-दुर्जन भी सज्जन बन जाते हैं।

सो दिन गया अकाज में, संगत भई न संत। प्रेम बिना पशु जीवना, भाव बिना भटकंत॥ 
भावार्थ :
वह दिन तो व्यर्थ ही गया, जिस दिन न तो सत्संग हुआ और न संतों का दर्शन-मिलन हुआ। प्रेम के बिना यह जीवन पशु के समान है, अर्थात पशु केवल पेट-पूर्ति तक ही अपनी दौड़ रखते हैं (प्रेम का अर्थ नहीं जानते) और भाव-भक्ति को नहीं जानते, अर्थात प्रेम, भक्ति-भाव के बिना जीवन निरर्थक है।

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कमल पत्र हैं साधु जन, बसै जगत के माहिं। बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं॥
भावार्थ :
साधुजन कमल पत्र के समान इस संसार रूपी सागर में रहते हैं अर्थात जिस प्रकार कमल पत्र की जड़-कीचड़ में रहते हुए भी कमल उसमें नहीं डूबता, उसी प्रकार साधु जन संसार में होते हुए भी उससे मोह ग्रस्त नहीं होते। जैसे बालक को पालने वाली दाई बालक की सेवा ममता करते हुए भी उसे अपना नहीं मान सकती।

दया गरीबी बंदगी, समता शील सुभाव। ये तो लक्षण साधु के, कहैं कबीर सद्भाव॥ 
भावार्थ :
सद्गुरु कबीर जी सद्भावपूर्वक कहते हैं कि दया, विनम्रता, सेवा, समता, शील एवं सत्य भाव-ये सब संतों के लक्षण हैं। इन्हीं सद्गुणों से संत सबको सुखदायी होते हैं, जिससे वे सर्वत्र पूजनीय होते हैं।

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आशा तजि माया तजै मोह तजै अरु मान। हरष शोक निंदा तजै, कहैं कबीर संत जान॥  
भावार्थ :
कबीर जी कहते हैं कि संत उन्हीं को जानो जिन्होंने सभी आशाओं का त्याग कर दिया हो, संसार की माया और मोह का भी त्याग कर दिया हो और मान-अपमान को छोड़कर समरूप हो गए हों। किसी की प्राप्ति पर न तो वे हर्ष से फूले समाते हों और न कुछ खोने पर दुखी होते हों। जो निंदा ईर्ष्या से दूर रह कर अपने ही सद्भाव में रहते हो।

संत न छाड़ै संतता, कोटिक मिलै असंत। मलय भुवंगम बेधिया, शीतलता न तजंत॥ 
भावार्थ :
चाहे करोड़ों असंत अर्थात अज्ञानी-पापी मिल कर संतों के ऊपर वार कर दें परंतु संत अपनी मर्यादा को कभी नहीं छोड़ते। जिस प्रकार चंदन के वृक्ष पर अनेक विषधर लिपटे रहते हैं परंतु चंदन अपनी शीतलता के गुण को नहीं छोड़ता।

बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय। साधु जन रमता भला, दाग न लागै कोय॥  
भावार्थ :
बहता हुआ पानी निर्मल (स्वच्छ) होता है और बंधा हुआ अर्थात रुका हुआ पानी गंदा होता है। इसी प्रकार साधु-संतों का ज्ञान-भाव से विचरण करते रहना अच्छा होता है। इस तरह विचरते हुए उन्हें कोई दोष नहीं लग सकता अर्थात मोहादि भी नहीं हो सकता। 


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Niyati Bhandari

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