Gurdwara Garhi Sahib: ‘गढ़ी चमकौर’ में 40 सिंहों ने किया था मुगल फौज का मुकाबला
punjabkesari.in Wednesday, Dec 22, 2021 - 09:09 AM (IST)

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Gurdwara Sri Garhi Sahib Chamkaur: गुरु गोबिंद सिंह जी 6 और 7 पौष की बीच वाली रात को (5 और 6 दिसम्बर 1705 ईस्वी को) आनंदपुर साहिब को छोड़ कर आ गए और रास्ते में सिखों और मुगल फौजों के बीच भारी जंग हुई। गुरु जी का परिवार बिछुड़ गया। छोटे साहिबजादे और माता गुजरी जी गुरु घर के रसोइया गंगू ब्राह्मण के साथ सहेड़ी गांव को चले गए और बड़े साहिबजादे श्री गुरु गोबिंद सिंह जी और सिंहों के साथ चमकौर साहिब जी की ओर चल पड़े। माता सुंदरी जी और माता साहिब कौर जी भाई मनी सिंह जी के साथ दिल्ली की तरफ चले गए।
Battle of chamkaur sahib: साहिब में जगत सिंह की हवेली थी। गुरु जी ने 5 सिंहों को उसके पास भेजा और हवेली या गढ़ी की मांग की जिससे दुश्मन फौज का मुकाबला करने के लिए कोई अड्डा बन सके। जगत सिंह मुगल सेना से डरते हुए न माना। गुरु जी ने उसको गढ़ी का किराया देने और फिर पूरा मूल्य देने की भी पेशकश की परंतु वह नहीं माना। फिर जगत सिंह के छोटे भाई रूप सिंह को गुरु जी ने बुलाया जो अपने हिस्से की गढ़ी देना मान गया। गुरु जी भाई रूप सिंह की गढ़ी में आ गए।
Chamkaur di garhi history: अगले दिन जंग शुरू हो गई तथा श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी की आज्ञा पाकर बाबा अजीत सिंह जी रण में उतरे। कहा जाता है कि जब साहिबजादा अजीत सिंह जालिमों के सामने आए तो बाबा जी का तेज देख कर दुश्मन कांप कर रह गए। जब हाथ में तलवार लेकर बाबा जी ने घुमाई तो दुश्मन को गश पड़ने लगे।
श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी की संगत में रहने वाले कवि सेनापति भी बाबा जी की इस जंग की खुल कर तारीफ करते हैं। कवि सेनापति अनुसार जब साहिबजादा जी की तलवार टूट गई तो आपने सांग के साथ शत्रु को इस तरह पिरोना शुरू कर दिया जैसे टहनी पर फल लगे हों।
श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी भी अपने होनहार सुपुत्र को लड़ते हुए किले से देख रहे थे। आखिर दुश्मन की फौज ने साहिबजादा जी को चारों ओर से घेर लिया और आप जी 8 पौष 1761 विक्रमी को अपने पिता जी के सामने शहादत का जाम पी गए। जब बाबा जुझार सिंह जी ने अपने बड़े भाई बाबा अजीत सिंह जी को शहादत का जाम पीते देखा तो आप जी ने भी जंग में जाने की आज्ञा मांगी। गुरु जी ने अपने लाडले सुपुत्र को अपने हाथों जंग के लिए तैयार किया। साहिबजादा जुझार सिंह जी अपने पिता गुरु जी की आज्ञा पाकर जंग में उतर आए। जंग में साहिबजादा जी ने पूरी तरह से हलचल मचा दी। बाबा जी जिस तरफ भी जाते हर तरफ दुश्मन यही कहते कि यह गुरुजी का बेटा है, इस से बचो।
आखिर बाबा जुझार सिंह जी को बड़ी संख्या में दुश्मनों ने इकठ्ठा होकर घेर लिया। फिर किसी ने हिम्मत करके पीछे से तीर के साथ वार किया। इतने में बाकी के दुश्मनों ने भी जोरदार हमले शुरू कर दिए। बाबा जुझार सिंह जी कइयों को मारते हुए शहीद हो गए। गुरु जी ने गढ़ी से ही फतह का जयकारा लगा दिया और अकाल पुरुख का शुक्राना किया। आखिर बाकी रहते सिंहों ने गुरमता करके गुरु जी को गढ़ी से बाहर जाने के लिए कहा। गुरु जी ने कहा कि वह पांच सिंहों के गुरमते आगे अपना सिर झुकाते हैं परन्तु वह चोरी-चोरी नहीं जाएंगे। खालसा जी ने यह बात मान ली और भाई दया सिंह जी, भाई धर्म सिंह जी और भाई मान सिंह जी को भी गुरु जी के साथ ही गढ़ी में से बाहर जाने का हुक्म दे दिया।
गुरु जी ने गढ़ी में से जाने से पहले भाई संगत सिंह जी को अपनी कलगी और पोशाका पहना दिया था इसीलिए गढ़ी साहिब जी को ‘तिलक स्थान’ भी कहा जाता है। यहीं गुरु जी ने फरमाया था कि खालसा गुरु है और गुरु खालसा है। वास्तव में चमकौर का घेरा डाले बैठी फौज में मलिक मरदूद खान भी शामिल था जो यह शेखी मार कर आया था कि वह गुरु जी को जिंदा पकड़ कर लाएगा। गुरु जी को भी इस बात का पता था इसलिए गुरु जी ने मलिक को भी चुनौती दी। गुरु जी ने गढ़ी से बाहर निकल कर एक पुराने पीपल के वृक्ष नीचे खड़े होकर ताली मार कर कहा, ‘पीर-ऐ-हिंद मय रवद’ अर्थात ‘हिंद का पीर’ जा रहा है।
गुरु जी की ताली की आवाज, फिर नगाड़ों और जयकारों की गुंजार को सुन कर दुश्मन फौज में भगदड़ मच गई। जहां गुरु जी ने ताली मार कर दुश्मन को सचेत किया था वहां आजकल गुरुद्वारा ताली साहिब बना हुआ है। जिस कच्ची गढ़ी में 40 सिंहों ने गुरु जी के नेतृत्व में यह जंग लड़ी थी वहां गुरुद्वारा गढ़ी साहिब बना हुआ है।
जहां लड़ाई हुई और फिर बाद में सभी शहीद सिंहों का अंगीठा तैयार करके संस्कार किया गया वहां मुख्य गुरुद्वारा कतलगढ़ साहिब सुशोभित है। यहां हर साल 6, 7 और 8 पौष को शहीद सिंहों की याद में शहादत जोड़ मेला भरता है।