पति के लिए इन्द्रिय सुख का त्याग कर गई थी कुबेर लोक

punjabkesari.in Monday, Dec 12, 2016 - 10:04 AM (IST)

संसार की पतिव्रता देवियों में गान्धारी का विशेष स्थान है। यह गन्धर्वराज सुबल की पुत्री और शकुनि की बहन थीं। इन्होंने कौमार्यावस्था में भगवान शंकर की आराधना करके उनसे सौ पुत्रों का वरदान प्राप्त किया था। जब इनका विवाह नेत्रहीन धृतराष्ट्र से हुआ, तभी से इन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली। इन्होंने सोचा कि जब मेरे पति नेत्रहीन हैं, तब मुझे भी संसार को देखने का अधिकार नहीं है। पति के लिए इन्द्रिय सुख के त्याग का ऐसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। इन्होंने ससुराल में आते ही अपने श्रेष्ठ आचरण से पति एवं उनके परिवार को मुग्ध कर दिया। 


देवी गान्धारी पतिव्रता होने के साथ अत्यन्त निर्भीक और न्यायप्रिय महिला थीं। इनके पुत्रों ने जब भरी सभा में द्रौपदी के साथ अत्याचार किया, तब इन्होंने दुखी होकर उसका खुला विरोध किया। जब इनके पति महाराज धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की बातों में आकर पांडवों को दोबारा द्यूत के लिए आमंत्रित किया, तब इन्होंने जुए का विरोध करते हुए अपने पति देव से कहा, ‘‘स्वामी! दुर्योधन जन्म लेते ही गीदड़ की तरह रोया था। उसी समय परम ज्ञानी विदुर जी ने उसका त्याग कर देने की सलाह दी थी। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुल-कलंक कुरु वंश का नाश करके ही छोड़ेगा। आप अपने दोषों से सबको विपत्ति में मत डालिए। इन ढीठ मूर्खों की हां-में-हां मिलाकर इस वंश के नाश का कारण मत बनिए। कुल कलंक दुर्योधन को त्यागना ही श्रेयस्कर है। मैंने मोह वश उस समय विदुर की बात नहीं मानी, उसी का यह फल है। राज्यलक्ष्मी क्रूर के हाथ में पड़ कर उसी का सत्यानाश कर देती हैं। बिना विचारे काम करना आपके लिए बड़ा दुखदायी सिद्ध होगा।’’


गान्धारी की इस सलाह में धर्म, नीति और निष्पक्षता का अनुपम समन्वय है। जब भगवान श्री कृष्ण सन्धिदूत बन कर हस्तिनापुर गए और दुर्योधन ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा बिना युद्ध के सूई के अग्रभर भी जमीन देना स्वीकार नहीं किया। इसके बाद गान्धारी ने उसको समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा! मेरी बात ध्यान से सुनो। भगवान श्रीकृष्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा विदुर जी ने जो बातें तुमसे कहीं हैं, उन्हें स्वीकार करने में ही तुम्हारा हित है जिस प्रकार उद्दंड घोड़े मार्ग में मूर्ख सारथी को मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियों को वश में न रखा जाए तो मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है। इन्द्रियां जिसके वश में हैं, उसके पास राज्यलक्ष्मी चिरकाल तक सुरक्षित रहती हैं। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता। तुम श्री कृष्ण की शरण लो। पांडवों का न्यायोचित भाग तुम उन्हें दे दो और उनसे संधि कर लो। इसी में दोनों पक्षों का हित है। युद्ध करने में कल्याण नहीं है।’’


दुष्ट दुर्योधन ने गान्धारी के इस उत्तम उपदेश पर ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण महाभारत के युद्ध में कौरव पक्ष का संहार हुआ। देवी गान्धारी ने कुरुक्षेत्र की भूमि में जाकर वहां महाभारत के महायुद्ध का विनाशकारी परिणाम देखा। उनके सौ पुत्रों में से एक भी पुत्र शेष नहीं बचा। पांडव तो किसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण की कृपा से गान्धारी के क्रोध से बच गए, किंतु भाववश भगवान श्री कृष्ण को उनके शाप को शिरोधार्य करना पड़ा और यदुवंश का परस्पर कलह के कारण महाविनाश हुआ। 


महाराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के बाद देवी गान्धारी कुछ समय तक पांडवों के साथ रहीं और अंत में अपने पति के साथ तपस्या करने के लिए वन में चली गईं। उन्होंने अपने पति के साथ अपने शरीर को दावाग्रि में भस्म कर डाला। गान्धारी ने इस लोक में पति सेवा करके परलोक में भी पति का सान्निध्य प्राप्त किया। वह अपनी नश्वर देह को छोड़ कर अपने पति के साथ ही कुबेर के लोक में गईं। पतिव्रता नारियों के लिए गान्धारी का चरित्र अनुपम शिक्षा का विषय है। 


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