इस कथा को पढ़ने के बाद यकीनन आप भी जुए की महफिल को कहेंगे अलविदा
punjabkesari.in Tuesday, Jun 03, 2025 - 06:59 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
जुआ एक ऐसी लत है, जिससे न जाने कितने हंसते-खेलते परिवार तबाह हुए हैं। जुआ आज तक कभी किसी का नहीं हुआ है। जो जीतता है और जीतने की लालसा में अगले दिन भी खेलता है तो वह जुए की लत का शिकार हो जाता है। दीमक की भांति यह व्यक्ति और उसके परिवार को खोखला करता जाता है। यह एक सामाजिक बुराई मानी जाती है और सरकार ने भी इस पर पाबंदी लगा रखी है लेकिन जो पक्के जुआरी होते हैं, वह किसी भी मौके पर जुआ खेलने से परहेज नहीं करते हैं। जुआ खेलने की परमंरा बहुत पुरानी रही है।
ऋग्वेद कालीन ग्रंथों में बताया गया है कि आर्य जुए को आमोद-प्रमोद के साधन के रूप में इस्तेमाल करते थे। उस काल में पुरुषों के लिए जुआ खेलना समय बिताने का साधन था। जुए से जुड़े विभिन्न खेलों की अनेक ग्रंथों में चर्चा की गई है। अथर्ववेद के अनुसार जुआ मुख्यत: पासों से खेला जाता था।
महाभारत में उल्लेख है कि दुर्योधन ने पांडवों का राज्य हड़पने के लिए युधिष्ठिर को जुए के शिकंजे में फंसा दिया था । युधिष्ठिर ने जुए में अपना सब कुछ लुटाने के बाद अपनी पत्नी द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया और उसे हार गए। यह जुआ भीषण संग्राम का कारण बना था। सार्वजनिक मनोरंजन के लिए भी जुआ खेलने का प्रचलन रहा है। मौर्यकालीन समाज में इस खेल का जिक्र किया गया है। विदेशी राजदूत मेगस्थनीज ने मौर्यकालीन वैभव का जिक्र करते हुए लिखा है कि भारतीय भड़कीले वस्त्र और आभूषणों के प्रेमी हैं तथा वैभव और विलासिता को दिखाने के लिए जुआ खेलते थे।
एक बार की बात है। एक व्यक्ति को रोज-रोज जुआ खेलने की बुरी आदत पड़ गई थी। उसकी इस आदत से सभी बड़े परेशान रहते। लोग उसे समझाने की भी बहुत कोशिश करते कि वह यह गंदी आदत छोड़ दे लेकिन वह हर किसी को एक ही जवाब देता, ‘‘मैंने यह आदत नहीं पकड़ी, इस आदत ने मुझे पकड़ रखा है।’’
और सचमुच वह इस आदत को छोड़ना चाहता था पर हजार कोशिशों के बावजूद वह ऐसा नहीं कर पा रहा था।
परिवार वालों ने सोचा कि शायद शादी करवा देने से वह यह आदत छोड़ दे, सो उसकी शादी करा दी गई। कुछ दिनों तक तो सब ठीक चला पर फिर वह जुआ खेलने जाने लगा। उसकी पत्नी भी अब काफी चिंतित रहने लगी और उसने निश्चय किया कि वह किसी न किसी तरह अपने पति की इस आदत को छुड़वा कर ही दम लेगी।
एक दिन पत्नी को किसी सिद्ध साधु-महात्मा के बारे में पता चला और वह अपने पति को लेकर उनके आश्रम पहुंची। साधु ने कहा, ‘‘बताओ पुत्री तुम्हारी क्या समस्या है?’’ पत्नी ने दुखपूर्वक सारी बातें साधु-महाराज को बता दीं।
साधु-महाराज उनकी बातें सुन कर समस्या की जड़ समझ चुके थे और समाधान देने के लिए उन्होंने पति-पत्नी को अगले दिन आने के लिए कहा।
अगले दिन वे आश्रम पहुंचे तो उन्होंने देखा कि साधु-महाराज एक पेड़ को पकड़ कर खड़े हैं। उन्होंने साधु से पूछा कि आप यह क्या कर रहे हैं और पेड़ को इस तरह क्यों पकड़े हुए हैं?
साधु ने कहा, ‘‘आप लोग जाइए और कल आइएगा।’’
फिर तीसरे दिन भी पति-पत्नी पहुंचे तो देखा कि फिर से साधु पेड़ को पकड़ कर खड़े हैं। उन्होंने जिज्ञासावश पूछा, ‘‘महाराज आप यह क्या कर रहे हैं?’’
साधु बोले, ‘‘पेड़ मुझे छोड़ नहीं रहा है। आप लोग कल आना।’’
पति-पत्नी को साधु जी का व्यवहार कुछ विचित्र लगा, पर वे बिना कुछ कहे वापस लौट गए।
अगले दिन जब वे फिर आए तो देखा कि साधु महाराज अभी भी उसी पेड़ को पकड़े खड़े हैं। पति परेशान होते हुए बोला, ‘‘बाबा आप क्या कर रहे हैं? आप इस पेड़ को छोड़ क्यों नहीं देते?’’
साधु बोले, ‘‘मैं क्या करूं बालक यह पेड़ मुझे छोड़ ही नहीं रहा है?’’
पति हंसते हुए बोला, ‘‘महाराज आप पेड़ को पकड़े हुए हैं, पेड़ आप को नहीं। आप जब चाहें उसे छोड़ सकते हैं।’’
साधु-महाराज गंभीर होते हुए बोले, ‘‘इतने दिनों से मैं तुम्हें क्या समझाने की कोशिश कर रहा हूं, यही न कि तुम जुआ खेलने की आदत को पकड़े हुए हो, यह आदत तुम्हें नहीं पकड़े हुए है।’’
पति को अपनी गलती का अहसास हो चुका था। वह समझ गया कि किसी भी आदत के लिए वह खुद जिम्मेदार है और वह अपनी इच्छा शक्ति के बल पर जब चाहे उसे छोड़ सकता है।