Dharmik Katha: ‘मन’ ही है बंधन और मुक्ति का कारण
punjabkesari.in Thursday, Nov 24, 2022 - 12:05 PM (IST)
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पुत्र प्राप्ति की कामना से भगवान व्यास ने भगवान शंकर की उपासना की। इसके फलस्वरूप उन्हें शुकदेव जी पुत्र रूप में प्राप्त हुए।व्यास जी ने शुकदेव जी के जात, कर्म, यज्ञोपवीत आदि सभी संस्कार सम्पन्न किए और गुरुकुल में रह कर शुकदेव जी ने शीघ्र ही सम्पूर्ण वेदों एवं अखिल धर्मशास्त्रों में अद्भुत पांडित्य प्राप्त कर लिया।
गुरु गृह से लौटने के बाद व्यास जी ने पुत्र का प्रसन्नतापूर्वक स्वागत किया। उन्होंने शुकदेव जी से कहा, ‘‘पुत्र! तुम बड़े बुद्धिमान हो। तुमने वेद और धर्मशास्त्र पढ़ लिए। अब अपना विवाह कर लो और गृहस्थ बन कर देवताओं तथा पितरों की भक्ति करो।’’
शुकदेव जी ने कहा, ‘‘पिता जी! गृहस्थाश्रम सदा कष्ट देने वाला है। महाभाग! मैं आपका पुत्र हूं। आप मुझे इस अंधकारपूर्ण संसार में क्यों धकेल रहे हैं? स्त्री, पुत्र, पौत्रादि सभी परिजन दुख पूॢत के ही साधन हैं, इनमें सुख की कल्पना करना भ्रम मात्र है। जिसके प्रभाव से अविद्या जन्य कर्मों का अभाव हो जाए, आप मुझे उसी ज्ञान का उपदेश करें।’’
व्यास जी ने कहा, ‘‘पुत्र! तुम बड़े भाग्यशाली हो। मैंने देवी भागवत की रचना की है। तुम इसका अध्ययन करो। सर्वप्रथम आधे श्लोक में इस पुराण का ज्ञान भगवती पराशक्ति ने भगवान विष्णु को देते हुए कहा है, ‘यह सारा जगत मैं ही हूं, मेरे सिवा दूसरी कोई अविनाशी वस्तु है ही नहीं।’ भगवान विष्णु से यह ज्ञान ब्रह्मा जी को मिला। ब्रह्मा जी ने इसे नारद जी को बताया तथा नारद जी से यह मुझे प्राप्त हुआ। फिर मैंने इसकी बारह स्कंधों में व्याख्या की। महाभाग! तुम इस वेदतुल्य देवी भागवत का अध्ययन करो। इससे तुम संसार में रहते हुए माया से अप्रभावित रहोगे।’’
व्यास जी के उपदेश के बाद भी जब शुकदेव जी को शांति नहीं मिली तब उन्होंने कहा, ‘‘बेटा! तुम जनक जी के पास मिथिला पुरी में जाओ। वह जीवनमुक्त ब्रह्मज्ञानी हैं। वहां तुम्हारा अज्ञान दूर हो जाएगा। इसके बाद तुम यहां लौट आना और सुखपूर्वक मेरे आश्रम में निवास करना।’’
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व्यास जी के आदेश से शुकदेव जी मिथिला पहुंचे। वहां द्वारपाल ने उन्हें रोक दिया, तब काठ की भांति मुनि वहीं खड़े हो गए। उनके ऊपर मान-अपमान का कोई असर नहीं पड़ा। कुछ समय बाद राजमंत्री उन्हें विलास भवन में ले गए। वहां शुकदेव जी का विधिवत आतिथ्य सत्कार किया गया, किन्तु शुकदेव जी का मन वहां भी विकार शून्य बना रहा।
अंत में उन्हें महाराज जनक के समक्ष प्रस्तुत किया गया। महाराज जनक ने उनका आतिथ्य सत्कार करने के बाद पूछा, ‘‘महाभाग! आप बड़े नि:स्पृह महात्मा हैं। किस कार्य से आप यहां पधारे हैं, बताने की कृपा करें?’’
शुकदेव जी बोले, ‘‘राजन! मेरे पिता व्यास जी ने मुझे विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा दी है परंतु मैंने उसे बंधन कारक समझ कर अस्वीकार कर दिया। मैं संसार बंधन से मुक्त होना चाहता हूं। आप मेरा मार्गदर्शन करने की कृपा करें।’’
महाराज जनक ने कहा, ‘‘मनुष्यों को बंधन में डालने और मुक्त करने में केवल मन ही कारण है। विषयी मन बंधन और निॢवष्यी मन मुक्ति का प्रदाता है। अविद्या के कारण ही जीव और ब्रह्मा में भेद बुद्धि की प्रतीति होती है। महाभाग! विद्या अर्थात ब्रह्म ज्ञान से अविद्या शांत होती है। यह देह मेरी है, यही बंधन है और यही देह मेरी नहीं है, यही मुक्ति है। बंधन शरीर और घर में नहीं है, अहंता और ममता में है।’’
जनक जी के उपदेश से शुकदेव जी की सारी शंकाएं दूर हो गईं। वह पिता के आश्रम में लौट आए। इसके बाद उन्होंने पितरों की सुंदरी कन्या पीवरी से विवाह करके गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन किया और फिर संन्यास लेकर मुक्ति प्राप्त की।