ईश्वरपुत्र स्वामी दयानंद जी की 191वीं जयंती पर विशेष

punjabkesari.in Saturday, Feb 14, 2015 - 08:32 AM (IST)

हम सो रहे थे एक-दो दिन से नहीं पांच हजार वर्षों से सो रहे थे। हमारे सोते-सोते क्या नहीं हुआ? हमारे सोने से, आलस्य प्रमाद से यह चक्रवर्ती देश पराधीन देश बन गया। 19वीं शताब्दी का पूर्वाद्र्ध तो भारतीयों के पतन की मुंह बोलती कहानी है। आलस्य, छल, कपट, स्वार्थलिप्सा और धार्मिक अंधविश्वासों में लीन होना भारतीयों का दैनिक व्यवहार बन चुका था। एक ओर अंग्रेजों की भारतीय साम्राज्य विस्तार की नीति जान लेवा सिद्ध हो रही थी, तो दूसरी ओर मुसलमानों के अत्याचारों ने उन्हें पीड़ित कर रखा था। 

 
प्रत्येक भारतीय को पाश्चात्य ढंग में रंगने के लिए विवश किया जा रहा था। ईसाई ब्रिटिश शासकों ने भारतीयों और विशेष रूप से हिंदुओं को अपमानित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। अंग्रेजों के विशिष्ट स्थानों पर भारतीय और कुत्तों का आना वर्जित लिखा होता था।
 
रामायण काल में राजसूय यज्ञ को सम्पन्न कराने के लिए माता सीता की सोने की मूर्त बनानी पड़ी और उस समय भी समाज में कहने को स्त्रियों को देवी के पद से विभूषित किया जाता था पर उनका अपमान करने में भी समाज सर्वाधिक अग्रणी था। विवाह का अर्थ न समझने वाले दुधमुंहे बच्चों के भी विवाह करा दिए जाते थे। कुछ जातियों में कन्या को उत्पन्न होने के साथ ही हत्या कर दी जाती थी। जातिभेद, दलित वर्गों की करुणाजनक स्थिति, नारियों पर अत्याचार, विधवाओं का करुण क्रंदन, धर्म के नाम पर अनेक पाखंड वेद मंत्रों के अर्थ बदल कर अपनी मान्यताओं को वेदानुकूल बता रहे थे। वेद ज्ञान का सूर्य अज्ञान के कोहरे से आवृत था। धर्म के तथाकथित विद्वानों ने वेदों का पठन-पाठन समाप्त कर दिया था।
 
दूसरी ओर भारत में व्यापारी बन कर आए अंग्रेज जब यहां के शासक बन बैठे तो अपनी आय बढ़ाने के लिए जनता पर इतने कर थोप दिए कि कृषि प्रधान देश दाने-दाने को तरस गया। अंग्रेजी शासन से भयभीत समाज स्वतंत्रता के मधुर स्वाद को भूल गया। अंधविश्वास, यज्ञों में पशु हिंसा व धर्म के नाम पर प्रताडि़त शोषित हिंदू समाज भी मृतप्राय: हो चुका था चारों ओर व्याप्त गहन अज्ञान अंधकार में कहीं-कहीं सुधार के नाम पर दीपक टिमटिमा तो रहे थे परन्तु उनका प्रकाश बहुत ही क्षीण था। वे उस तूफान को रोकने में बिल्कुल ही अशक्त थे जिससे सारा मानव समाज प्रभावित हो रहा था। 
 
इस असहय दुखद परिदृश्य को नजरअंदाज करना भारत पुत्र स्वामी दयानंद जी के लिए असंभव था। अत: ऐसी आंधी को रोकने के लिए उन्हें अडिग चट्टान बनना पड़ा और हरिद्वार में कुंभ के मेले में पाखंड खंडिनी पताका गाढ़ी जिससे इन्होंने समाज में व्याप्त अनार्षवाद, सम्प्रदायवाद, मत मतांतर, जातिबंधनों, अंधविश्वासों पर तो चोट की ही, राजनीतिक परिदृश्य को भी प्रभावित किया। देशोद्धार तथा समाज सुधार की कामना से जो भी विचार कर्म में परिणत किया और निर्भीक स्वरों में उसी को समाज में प्रतिष्ठापित किया। स्त्री शिक्षा का प्रचलन, विधवा विवाह का समर्थन, अनमेल विवाह, अस्पृश्यता निवारण संबंधी उनके विचारों ने भारतीयों के हृदयों को झिझोड़ा और उस समय भारतीयों के हृदयों में अंग्रेजों के प्रति भी जो विद्वेष मवाद बनकर वर्षों से एकत्र हो रहा था स्वामी जी जैसे सच्चे सामाजिक कार्यकर्ता का आघात लगते ही बहुमुखी क्रांति के रूप में फूट पड़ा। स्वामी जी के अंत:करण में यही कामना थी कि भारतवर्ष के एक छोर से दूसरे छोर तक व्याप्त कुरीतियां उन्मूलित हों।
 
निरुक्त के अनुसार ‘ईश्वरपुत्र’ या ‘श्रेष्ठ’ को आर्य कहते हैं वैसे तो सभी ईश्वर के पुत्र हैं पर जिसमें विशेष रूप से दैवी और ईश्वरीय गुण वीरता, उदारता, गतिशीलता आदि होते हैं वे ईश्वर पुत्र हैं। वास्तव में आर्यपुत्र या श्रेष्ठ वह है जो क्रियाशील है जो अकर्मण्य नहीं कर्मरत है और यह मानता है कि आलस्य तथा उपेक्षा नाश का कारण होते हैं और ये मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं। 
 
ऐसे आर्यों के समूह को आर्य समाज की संज्ञा दी गई यानी आर्य समाज वह समाज है जो कर्मण्य है, गतिशील है। समाज में कर्मण्यता और गतिशीलता से तात्पर्य है कि अपने चारों ओर फैली रूढिय़ों, अंधविश्वासों, अन्याय तथा भूलों से राज्य को बचाकर समाज को सच्चाई और प्रकाश की ओर ले जाए। ‘कृष्वन्तो विश्वमार्यम’ अर्थात मानव जाति (विश्व) को आर्य (श्रेष्ठ) बनाना आर्य समाज का लक्ष्य है और इसका आधार है वेद और वैदिक संस्कृति के रूप में निश्चित दस नियम। इन्हें विश्व शांति के लिए ‘दश-शील’ का नाम दिया जा सकता है।
 
प्रथम दो नियम पारब्रह्म परमेश्वर में हमारी आस्था के सूचक हैं। तीसरा, चौथा और पांचवां नियम व्यक्तिगत जीवन के लिए आधार प्रस्तुत करते हैं। छठा नियम हमारे मुख्य उद्देश्य की सुस्पष्ट व्याख्या करता है। संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक, आत्मिक और  सामाजिक उन्नति। सातवें, आठवें और नौवें नियम हमारे सामाजिक संबंधों के लिए निर्देश प्रस्तुत करते हैं। दसवां नियम इस बात का परिचायक है कि हम कहां और किस काम को करने के लिए स्वतंत्र हैं। 
 
हमें प्रत्येक कार्य को धर्मानुसार एवं सत्य-असत्य की पहचान करके करना चाहिए। स्वार्थ को त्याग कर परोपकार की भावना जागृत करना और सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हुए केवल अपनी उन्नति से ही संतुष्ट नहीं रहना चाहिए बल्कि सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिए और अंत में स्वतंत्रता के महत्व को बताते हुए अपने राष्ट्रधर्म का पालन करने की शिक्षा भी दी गई है।
 
ये नियम हमें वही संदेश देते हैं जो हम अपने जीवन में अपनाने की कोशिश करते रहते हैं और अपने बच्चों में जिन भावों को हम जगाना चाहते हैं। इन नियमों में महर्षि ने ईश्वर का सच्चा स्वरूप क्या है बताने की कोशिश की। इसमें संदेह नहीं कि आर्य समाज के वैचारिक आंदोलन ने लोगों के दिलों-दिमाग बदले हैं, देश-विदेश में वैदिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार और प्रभाव हुआ है। लोग दकियानूसी भ्रमजाल से मुक्त हुए हैं, हो रहे हैं, साक्षरता बढ़ रही है, वर्ण व्यवस्था की पुरानी बेडिय़ां टूट रही हैं नए मानदंडों पर समाज का नया ढांचा बन रहा है किंतु अब भी सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता के उस लक्ष्य को नहीं पा सके जो महर्षि दयानंद का स्वप्न था। 
 
जिस आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता और फूट ने हमें पहले घेरा था और इस ‘पारस मणि’ और ‘स्वर्ण भूमि’ को विदेशी आक्रान्ताओं ने पराधीन, दरिद्र, दीन-हीन बना दिया था वे दुर्गुण आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहे। हां वे दुर्गुण हाइटैक अवश्य हो गए हैं। आज हम स्वतंत्र हैं लेकिन क्या सजग भी हैं? भले ही ज्ञान-विज्ञान की दौड़ में हम खूब आगे बढ़ गए हैं किंतु फिर भी हमारा ‘कुछ नहीं’ ‘बहुत कुछ’ हमारे सामने ही लुटा जा रहा है। आइए जानें। स्वयं को टटोलें।  
                       
—श्रीमती वीना जुनेजा
बी.सी.एम. आर्य माडल सी.सै. स्कूल, शास्त्री नगर, लुधियाना
 
 
 
 

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