Shankaracharya Jayanti: इन अद्भुत कामों से हिंदू धर्म को किया मजबूत
punjabkesari.in Tuesday, Apr 28, 2020 - 06:09 AM (IST)

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Adi Shankaracharya Jayanti 2020: आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता थे। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्र, मुंडक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तीरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार पूरे भारत में किया। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थ द्वारा खंडित किया और भारत में चार कोनों पर चार मठों की स्थापना की। भारतीय संस्कृति के विकास में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है।
आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ई. सन् 788 को तथा मोक्ष ई. सन् 820 स्वीकार किया जाता है। ‘शंकर दिग्विजय’ ‘शंकरविजयविलास’, ‘शंकरजय’ आदि ग्रंथों में उनके जीवन से संबंधित तथ्य उद्घाटित होते हैं। दक्षिण भारत के केरल राज्य (तत्कालीन मालाबार प्रांत) में आद्य शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तीरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। भारतीय प्राच्य परम्परा में आद्य शंकराचार्य को शिव का अवतार स्वीकार किया जाता है। आठ वर्ष की अवस्था में गोविंदपाद के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रिकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदांत का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदांत की दीक्षा देना तथा मंडन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना-इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देते हैं।
चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है।
आद्य शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में मोक्ष प्राप्त किया। आद्य शंकराचार्य ने ‘ब्रह्म सत्य जगन्मिथया’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, ‘सौंदर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भाष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने आसेतु हिमालय सम्पूर्ण भारत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बांध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन मुक्ति का एक सूत्र दिया-दुर्जन:सजन्नों भूयात सजन्न: शांतिमाप्नुयात।शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान विमोच्येत।।
अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांत बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्यजनों को मुक्त करें।
आदि शंकराचार्य ने कहा कि ज्ञान दो प्रकार के होते हैं। एक को पराविद्या और अन्य को अपराविद्या कहा जाता है। पहला गुण ब्रह्म (ईश्वर) होता है लेकिन दूसरा निर्गुण ब्रह्म होता है। शंकर के अद्वैत के दर्शन का सार-ब्रह्म और जीव मूलत: और तत्वत: एक हैं। हमें जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है। जीव की मुक्ति के लिए ज्ञान आवश्यक है। जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है।