Parshuram jayanti: भगवान परशुराम की जन्मस्थली से जुड़ा है अद्भुत इतिहास
punjabkesari.in Tuesday, Apr 29, 2025 - 11:17 AM (IST)

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Parshuram jayanti 2025: रेणुका वही जगह है जहां भगवान विष्णु के छठे स्वरूप परशुराम का जन्म हुआ था। महर्षि जमदाग्नि और उनकी पत्नी रेणुका जी ने झील के साथ लगती चोटी तापे का टिब्बा में सदियों तक तपस्या की थी। कहा जाता है कि उस समय इस झील को ''राम सरोवर'' नाम से पुकारा जाता था। उस समय भगवान विष्णु ने इनकी तपस्या से खुश होकर उन्हें वचन दिया कि वह स्वयं उनके बेटे के रूप में जन्म लेंगे। बाद में ऐसा हो भी गया। लेकिन वर्षों बाद सहस्त्रबाहु नाम के एक शक्तिशाली शासक ने इस इलाके पर हमला कर दिया। कामधेनु गाय हासिल करने के लिए उसने महर्षि को भी पकड़ लिया और उससे जोर जबरदस्ती करने लगा। मगर महर्षि जमदग्नि ने यह कहकर गाय देने से मना कर दिया कि यह गाय उन्हें भगवान विष्णु ने दी है। ऐसे में वह इस गाय को किसी और को देकर भगवान का भरोसा नहीं तोड़ सकते।
इससे क्रोधित होकर सहस्त्रबाहु ने महर्षि का वध कर दिया। उसी समय उनकी पत्नी रेणुका जी साथ लगते राम सरोवर में कूद गई और हमेशा के लिए जलसमाधि ले ली। कहा जाता है कि उस समय परशुराम यहां नहीं थे। बाद में जब परशुराम को इसका पता चला तो उन्होंने सहस्त्रबाहु का वध कर दिया। साथ ही तपस्या से हासिल की विद्या से पिता को भी नया जीवन दे दिया। इसके बाद परशुराम ने अपनी मां से प्रार्थना की कि वह इस झील से बाहर आ जाए। लेकिन मां रेणुका ने कहा कि वह अब हमेशा के लिए इस झील में वास करेंगी।
रेणुका नामक स्थान जिला सिरमौर के मुख्यालय नाहन से लगभग चालीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पर रेणुका की आदमकद मूर्ति स्थापित की गई है तथा वहीं पर भगवान परशुराम का एक प्राचीन मंदिर था जिसका सन् 1982 में जीर्णोद्धार किया गया है। यह भव्य रेणुका झील जिसके चारों ओर परिक्रमा मार्ग है। इस मार्ग की लम्बाई लगभग चार किलोमीटर है। डंडोर नामक गांव के पुजारी पूजा-अर्चना का कार्य निभाते हैं। रेणुका झील के साथ ही नीचे की ओर परशुराम ताल है।
कहते हैं कि जनसाधारण को सहस्रबाहु से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान परशुराम ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था। बाद में हवन कुंड रेणुका झील के पानी से भर गया। इसी को परशुराम ताल कहा जाता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि महापराक्रमी भगवान परशुराम अपनी मां से भेंट करने के लिए प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल दशमी को महेंद्र पर्वत से यहां आते हैं। दीपावली के दस दिन बाद यहां पर बहुत विशाल मेला लगता है। जो पूर्णिमा तक चलता है। स्थानीय देवता भी अपने-अपने रथ पर रेणुका मेले में आकर मेले की शोभा बढ़ाते हैं। पालकी पर भगवान परशुराम की शोभायात्रा निकाली जाती है जो देखते ही बनती है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस मेले को राज्य स्तरीय घोषित किया है।
त्रेतायुग के महान सम्राट मंधाता के पौत्र प्रतिसेनजित की रेणुका और बेणुका नाम की दो अत्यंत रूपवती कन्याएं थीं। राजा को अपने धन-वैभव पर बहुत अहंकार था तथा उन्होंने एक दिन अपनी दोनों पुत्रियों से पूछा कि तुम किसका दिया खाती हो। बेणुका ने तो कह दिया कि पिता जी हम तो आपका दिया खाती हैं मगर रेणुका बोली कि हम सब परमात्मा का दिया खाते हैं।
राजा बेणुका के उत्तर से तो प्रसन्न हुआ मगर रेणुका के उत्तर से उसके अहंकार को ठेस लगी। प्रतिकार स्वरूप उसने बेणुका का विवाह तो तत्कालीन अत्यधिक पराक्रमी सम्राट सहस्रबाहु अर्जुन के साथ किया मगर रेणुका का विवाह निर्धन तपस्वी भृगुवंशीय जमदग्नि के साथ किया।
इन्हीं जमदग्नि एवं रेणुका के यहां महापराक्रमी भगवान श्री परशुराम जी का जन्म बैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को हुआ। इनका बचपन का नाम राम था तथा यह अपने भाइयों रुमण्वान, सुषेण, वसु और विश्वावसु में सबसे छोटे थे। ब्राह्मण कुल में पैदा होने पर भी बचपन से ही इनके संस्कार क्षत्रियों जैसे थे। यह अत्यधिक पराक्रमी और साहसी थे और सदा अपने हाथ में एक फरसा लिए रहते थे जिसके कारण उनका नाम ‘परशुराम’ पड़ गया।
सहस्रबाहु अपनी शक्ति का प्रयोग जनता के दमन के लिए करते थे। वह तपस्वी लोगों का भी उत्पीड़न करते थे इसलिए साधु, संत तथा तपस्वी भी उनके राज्य से धीरे-धीरे पलायन करने लगे। तपस्वी जमदग्नि भी उनका राज्य छोड़ कर अपनी पत्नी रेणुका के साथ हिमाचल प्रदेश के ददाहु के पास तपे टीले पर आ बसे। यहीं जमदग्नि ने घोर तप किया इसलिए इसे ‘तपे का टीला’ कहा जाता है। जमदग्नि के नाम से इसे ‘जामू टीला’ भी कहा जाता है मगर आजकल यह स्थान ‘जमदग्नि टिब्बा’ नाम से प्रसिद्ध हो गया है। जामू टीले से डेढ़-दो किलोमीटर नीचे जामू ग्राम पड़ता है जहां ऋषि दम्पति रहते थे तथा पांचवें पुत्र परशुराम जी का जन्म भी यहीं पर आकर हुआ था।
परशुराम जी आश्रमवासी ऋषि के पुत्र थे मगर फिर भी वह अपने दायित्व के प्रति जागरूक रहे। निश्चित रूप से वह अहिंसक वृत्ति वाली आश्रम संस्कृति की उपज थे मगर वह यह भी जानते थे कि दुष्टों का नाश करने के लिए हिंसा का सहारा लेना आवश्यक है। वह योगीराज श्रीकृष्ण तथा मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की परम्परा के ही पोषक थे और यथायोग्य व्यवहार करना उनका सिद्धांत था इसलिए उन्होंने अत्याचारी शासकों का नाश करने का बीड़ा उठाया जो पूजा-अर्चना, वेद-पाठ एवं हवन-यज्ञ आदि के विध्वंस में लगे हुए थे। ब्राह्मण संस्कृति का इस प्रकार से विनाश किया जाना परशुराम को मान्य नहीं था। वह आर्य संस्कृति के पोषक थे। अत्याचारी शासकों के विनाश और अपने मां-बाप का सच्चा श्राद्ध करके इस महापराक्रमी योद्धा ने असम राज्य की पूर्वी सीमा पर जहां से ब्रह्मपुत्र नदी भारत में प्रवेश करती है, अपने फरसे का त्याग कर दिया और महेंद्र पर्वत पर आश्रम बनाकर अपना जीवन योग-ध्यान में व्यतीत करने लगे। जब श्रीराम ने सीता के स्वयंवर में शिव धनुष तोड़ा तो परशुराम अत्यधिक क्रोधित होकर पुन: आ गए मगर श्रीराम की आध्यात्मिकता एवं मर्यादाओं से अवगत होने के बाद वह शांत हो गए।