देश की राजनीति को ‘मोदी केन्द्रित’ किसने बनाया

punjabkesari.in Friday, Mar 01, 2019 - 04:16 AM (IST)

इस कॉलम को लिखते समय भारत और पाकिस्तान सीमा पर युद्ध के बादल गहराते जा रहे हैं। युद्ध होगा या नहीं कहना कठिन है। 26 फरवरी को जहां भारतीय वायुसेना ने गुलाम कश्मीर और पाकिस्तान की सीमा में घुसकर जैश-ए-मोहम्मद सहित कई आतंकी संगठनों के शिविरों और जेहादियों को खत्म किया, वहीं प्रतिक्रियास्वरूप, पाकिस्तानी वायुसेना ने 27 फरवरी को भारतीय सीमा में घुसकर भारतीय सैन्य ठिकाने के पास बम फैंक दिया। 

इसी दुस्साहस का प्रतिकार करते हुए भारतीय वायुसेना के मिग-21 बाइसन ने उनका अत्याधुनिक लड़ाकू विमान एफ-16 मार गिराया। इस घटनाक्रम में देश का जांबाज सपूत विंग कमांडर अभिनंदन पाकिस्तान के कब्जे में चला गया, जिसकी सुरक्षित वापसी का पुरजोर प्रयास हर स्तर पर किया जा रहा था। अब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने उसे शुक्रवार को वापस लौटाने की घोषणा की है। 

इसी बीच दिल्ली में कांग्रेस के नेतृत्व में 21 विपक्षी दलों का जमावड़ा लगा, जिसमें एक स्वर में आरोप लगाया गया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सत्तारूढ़ भाजपा भारतीय सेना की कार्रवाई का श्रेय ले रहे हैं और पूरे मामले का राजनीतिकरण किया जा रहा है। प्रश्न है कि देश की राजनीति को ‘नरेंद्र मोदी केन्द्रित’ किसने बनाया? 

वर्ष 2016 में जब दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के बिसहड़ा गांव में गौहत्या और उसके मांस के सेवन के आरोप में मोहम्मद अखलाक नामक व्यक्ति की उन्मादी भीड़ ने हत्या कर दी थी या फिर 2017 में हरियाणा के बल्लभगढ़ में ट्रेन में सीट को लेकर जुनैद भीड़ के गुस्से का शिकार हो गया था, तब इन्हीं विरोधी दलों और उनके बौद्धिक समर्थकों ने एक स्वर में इस प्रकार के घटनाक्रमों के लिए सीधे तौर पर भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराया था। अब यदि अनियंत्रित भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति की हत्या के लिए नरेन्द्र मोदी को सीधा जिम्मेदार ठहराया जा सकता है तो देश के प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर सीमापार बैठे आतंकियों पर भारतीय वायुसेना सफल कार्रवाई करती है, तो इसके लिए सरकार के मुखिया को श्रेय देने पर आपत्ति का औचित्य क्या है? 

देश का विमर्श बदल रहा है
पिछले डेढ़ दशक से देश का विमर्श (नैरेटिव) लगातार बदल रहा है। यू.पी.ए. काल में ‘ङ्क्षहदू आतंकवाद’ का जन्म हुआ। इस मिथक के जन्मदाता कांग्रेस के वह कर्णधार रहे, जिन्हें तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी का आशीर्वाद प्राप्त था। राष्ट्रवादी और ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ विचार के ध्वजवाहक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘हिंदू आतंकवाद’ से जोडऩे की भी कवायद की गई। आर.एस.एस. के साथ ङ्क्षहदू समाज और भारत को शेष विश्व में लांछित करने से भी गुरेज नहीं किया गया। उस समय सार्वजनिक विमर्श में तब भी इस्लामी आतंकवाद को जगह नहीं मिली थी, जब वर्ष 2008 में 26/11 मुंबई आतंकवादी हमला हुआ था। उस समय सार्वजनिक विमर्श में तत्कालीन भारतीय नेतृत्व द्वारा स्थापित मिथक ‘हिंदू आतंकवाद’ को लेकर कांग्रेस, वामपंथी और पाकिस्तान एक ही भाषा बोल रहे थे। 

इस पृष्ठभूमि में कोई आश्चर्य नहीं कि जब विश्व में इस्लामी आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान अलग-थलग हो चुका है, तब भारत में विपक्षी दल अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मोदी सरकार को ‘युद्ध-उन्मादी’ चित्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। क्या भारत-पाकिस्तान के बीच वर्तमान तनाव के लिए पाकिस्तान समॢथत पुलवामा आतंकवादी हमला और इसी तरह दशकों से भारत में होने वाले आतंकी घटनाएं जिम्मेदार नहीं? 

‘नया भारत’ अब कोई जुमला नहीं, बल्कि एक वास्तविकता है, जिसे पाकिस्तान सहित शेष विश्व पहचान और समझ चुका है। 1971 में वामपंथियों के प्रभाव में आने से पूर्व, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी ऐसा ही साहस दिखाया था। उस समय पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में बंगलादेश का जन्म हुआ। इसी कालखंड में 90 हजार से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, तब दुनिया ने हिंदू पराक्रम का विराट रूप देखा था। तब युद्धबंदियों को बिना शर्त रिहा करके इंदिरा गांधी ने इतिहास की उसी गलती को दोहरा दिया, जिसे हिंदू समाज सदियों से करता आ रहा है। 

इस बार भारत ने पुलवामा में हुए आतंकी हमले का बदला लेने के लिए जिस तरह हवाई हमले का विकल्प चुना, वैसा अब तक विश्व में इसराईल और अमरीका जैसे देश ही करते आए हैं। यक्ष प्रश्न है कि 26 फरवरी से पहले तक भारत इस प्रकार की कार्रवाई करने से क्यों झिझक रहा था? क्या यह सत्य नहीं है कि जिन 12 लड़ाकू विमानों- मिराज 2000 (वज्र) ने मंगलवार को सीमापार जेहादियों को जमींदोज किया और सकुशल लौट आए, वह जहाज भारतीय वायुसेना के बेड़े में 29 जून 1985 से शामिल है? 

उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष में बदलाव
पिछले 57 महीनों में देश के भीतर आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष में आमूलचूल परिवर्तन आया है। कश्मीर में ‘ऑप्रेशन ऑलआऊट’ हो, 2016 की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ हो या फिर इस बार पाकिस्तान की सीमा में घुसकर भारतीय सेना की ‘एयर स्ट्राइक’ क्या ये सब वर्तमान राष्ट्रीय नेतृत्व की दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना संभव है? 

यक्ष प्रश्न है कि भारतीय अधिष्ठान ने अपनी कार्रवाई में गुलाम कश्मीर के मुजफ्फराबाद और चकोटी स्थित आतंकी ठिकानों को निशाना बनाने के साथ-साथ पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा स्थित बालाकोट का चुनाव क्यों किया? इसके मुख्य 2 कारण हैं। पहला- पुलवामा आतंकवादी हमले के बाद जिस प्रकार भारतीय नेतृत्व ने कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान को विश्व से अलग-थलग करने हेतु वैश्विक दबाव  बनाया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय सेना को पुलवामा आतंकी हमले का बदला लेने की खुली छूट दी, उससे घबराए पाकिस्तान ने गुलाम कश्मीर स्थित सैंकड़ों जेहादियों को अपनी सीमा के भीतर बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के सुविधायुक्त शिविर में स्थानांतरित कर दिया था। 

बालाकोट का जेहादी इतिहास
बालाकोट में कार्रवाई का दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण इसके जेहादी इतिहास में छिपा है। पहाडिय़ों से घिरा बालाकोट वर्ष 1831 से 2019 तक वहाबी आतंकवाद और जेहाद का केन्द्र रहा है। वर्तमान समय में भारतीय हवाई हमले से पहले जिस प्रकार बालाकोट से पाकिस्तान, भारत विशेषकर कश्मीर में सैंकड़ों जेहादियों को भेजता रहा है, ठीक उसी तरह लगभग 200 वर्ष पहले ‘काफिर-कुफ्रों’ के खिलाफ जेहादियों की एक फौज खड़ी हुई थी, जिसका शीर्ष नेतृत्व वहाबी इस्लामी कट्टरपंथी सैयद अहमद बरेलवी और इस्माइल देहलवी कर रहे थे। सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह की सेना ने इन सभी जेहादियों को मौत के घाट उतार कर पेशावर पर कब्जा किया था। 

सैयद अहमद बरेलवी का जन्म वर्तमान उत्तर प्रदेश के रायबरेली में 1786 में हुआ था, जिसका उद्देश्य उसके मजहबी ङ्क्षचतन के अनुरूप, भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामी शासन को स्थापित करना था। उस समय बरेलवी ने स्वयं को इमाम घोषित कर क्षेत्र के ‘काफिर-कुफ्र’ महाराजाओं के खिलाफ जेहाद की शुरूआत की थी, जिसमें उसकी फौज बालाकोट में 1824 से 1831 तक सक्रिय रही। जेहाद के लिए बालाकोट का चुनाव करने के पीछे बरेलवी की सोच थी कि सुदूरवर्ती क्षेत्र में कोई उस पर हमला नहीं करेगा और स्थानीय मुस्लिम आबादी के साथ अफगानिस्तान से भी उसके इस्लामी साम्राज्य की स्थापना के लिए शुरू किए गए जेहाद में सहायता मिलेगी। 

जिस कालखंड में बालाकोट से जेहाद की शुरूआत हुई, उस समय भारतीय उपमहाद्वीप के अलग-अलग हिस्सों में मुगल शासन कमजोर पड़ चुका था। मराठा, राजपूत और सिखों का आधिपत्य था। साथ ही ब्रितानी हुकूमत तेजी से अपने पैर पसार रही थी। ब्रितानियों का मत था कि बरेलवी और उसके साथी सिख साम्राज्य को कमजोर करके उसे ही लाभ पहुंचाएंगे, इसलिए उन्होंने यहां बरेलवी को जेहादी गतिविधि चलाने की पूरी छूट दे दी। किंतु 6 मई, 1831 के एक युद्ध में महाराजा रणजीत सिंह और उनकी सेना ने उन सभी जेहादियों को समाप्त कर दिया।

पाकिस्तानी लेखिका आयशा जलाल अपनी पुस्तक ‘पार्टिंस ऑफ अल्लाह एंड जेहाद’ में लिखती हैं, ‘बालाकोट का संबंध जिस जेहादी विचार से है, उसे 1990 के दशक में पुन: मजबूती तब मिली जब आतंकवादियों ने यहां प्रशिक्षण शिविरों की स्थापना कर कश्मीर स्थित भारतीय सुरक्षा बलों के खिलाफ  अभियान की शुरूआत की। वहां के सभी आतंकवादियों के लिए सैयद अहमद बरेलवी और इस्माइल देहलवी नायक हैं, जिनके जेहाद का अनुसरण वे करना चाहते हैं।’ 

यह किसी संयोग से कम नहीं कि बालाकोट में सैयद अहमद बरेलवी की जेहादी सेना को मौत के घाट उतारने वाले महाराजा रणजीत सिंह और अब उसी जगह जैश-ए-मोहम्मद के सैंकड़ों जेहादियों को जन्नत पहुंचाने वाले भारतीय वायुसेना के अध्यक्ष एयर चीफ  मार्शल बीरेन्द्र सिंह धनोआ, दोनों सिख पंथ से हैं। भले ही भारतीय कार्रवाई से बालाकोट में जेहादी खत्म हो गए हैं, किंतु कटु सत्य तो यह है कि जब तक जेहाद को प्रोत्साहित करने वाली मानसिकता भारतीय उपमहाद्वीप में सक्रिय रहेगी, तब तक इस संघर्ष में पूर्ण सफलता कल्पना मात्र है।-बलबीर पुंज
 


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