संसद में कार्य न हो, यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को शोभा नहीं देता

punjabkesari.in Wednesday, Jul 21, 2021 - 05:47 AM (IST)

मानसून की झमाझम वर्षा ने पूरे देश को तर कर दिया है किंतु वहीं दूसरी आेर संसद के 19 दिवसीय मानसून सत्र के पहले दिन प्रधानमंत्री मोदी अपने मंत्रिपरिषद के सहयोगियों का परिचय सदन से नहीं करवा पाए क्योंकि दोनों सदनों में विपक्ष ने शोर-शराबा किया, जिसके चलते उनकी कार्रवाई स्थगित करनी पड़ी। प्रश्न उठता है कि क्या पहले की तरह यह सत्र भी तू-तू, मैं-मैं में बरबाद हो जाएगा और सदन में बहिर्गमन तथा अव्यवस्था देखने को मिलेगी? 

आप इसे विपक्ष द्वारा अपनी शक्ति का प्रदर्शन भी कह सकते हैं क्योंकि वह सशक्त भाजपा नीत सरकार के समक्ष अपनी राजनीतिक वैधता के लिए संघर्ष कर रहा है। इस तरह के व्यवहार या सतही विवादों पर विरोध प्रदर्शन की राजनीति से लोगों का मोहभंग होगा विशेषकर तब, जब वे अर्थव्यवस्था की खराब स्थिति, ईंधन और अन्य आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते मूल्य, बढ़ती बेरोजगारी, किसान आंदोलन, लद्दाख में चीनी अतिक्रमण आदि के बारे में चिंतित हैं। यह ऐसा समय है जब सरकार को धूल चटाई जा सकती है और उसकी विफलताआें के बारे में उससे कठिन और तीखे प्रश्न पूछे जा सकते हैं। 

उदाहरण के लिए कोरोना महामारी और टीकाकरण नीति का कुप्रबंधन ही लीजिए, जो राजनीतिक प्रचार का साधन बन गया है। नि:संदेह नए केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री की नियुक्ति सरकार द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से इस बात की स्वीकारोक्ति है कि वह कोरोना की दूसरी लहर के बारे में त्वरित और सुदृढ़ कार्रवाई करने में विफल रही है। स्वास्थ्य मंत्रालय यह बात प्रचारित कर रहा है कि राज्यों के पास अभी भी वैक्सीन की 2,60,12,152 डोज उपलब्ध हैं, फिर भी देश में वैक्सीन की कमी है और इसका कारण सरकार द्वारा समय पर पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन की आपूर्ति न कर पाना और वैक्सीन विनिर्माण की क्षमता का विस्तार न कर पाना है। 

दिसंबर के अंत तक सरकार देश की पूरी वयस्क जनता को टीका लगवाना चाहती है। मई में सरकार ने कहा था कि इस वर्ष के अंत तक 2.16 अरब डोज उपलब्ध होंगी किंतु उच्चतम न्यायालय में दिए गए शपथ पत्र में इनकी सं या 1$3.5 करोड़ डोज बताई गई है। दोनों में से कौन सा आंकड़ा सही है? सरकारों का उतावलापन देखिए। कोरोना महामारी के बीच ईंधन के दामों में निरंतर वृद्धि हो रही है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक शहरों में पिछले कुछ सप्ताहों में पैट्रोल के दाम 100 रुपए पार कर चुके हैं जिस कारण महंगाई बढ़ रही है और लोगों के घरों का बजट गड़बड़ा रहा है। 

पैट्रोल और डीजल के दामों में वृद्धि का कारण कुछ हद तक अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दामों में वृद्धि कहा जा सकता है किंतु केन्द्र और राज्यों द्वारा तेल पर ऊंची दरों पर कर लगाना अनुचित है। पैट्रोल की खुदरा बिक्री पर राज्यों और केन्द्र के कुल कर 58 प्रतिशत और डीजल पर 52 प्रतिशत हैं। केन्द्र का उत्पाद शुल्क 32-33 रुपए है और राज्यों द्वारा वैट लगाया जाता है। समय आ गया है कि वे एक-दूसरे पर दोषारोपण बंद करें। संसद में इस बारे में गंभीरता से विचार करें कि तेल को जी.एस.टी. के अंतर्गत लाया जाए या तेल पर तर्कसंगत कर लगाया जाए। 

सैंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार मई में शहरी बेरोजगारी दर 14$.73 प्रतिशत जबकि अप्रैल में यह 9.78 प्रतिशत थी। इस तरह ग्रामीण बेरोजगारी दर मई में 10.$63 प्रतिशत थी जबकि अप्रैल में यह 7.13 प्रतिशत थी।

किसानों का आंदोलन राजनीतिक कम और उनकी आजीविका से जुड़ा हुआ अधिक दिखाई देता है क्योंकि देश में लगातार कृषि संकट बना हुआ है। यह खाद्यान्नों की आवश्यकता से जुड़ा मुद्दा है। देश की 65 प्रतिशत से अधिक जनसं या कृषि और संबंधित कार्यकलापों पर निर्भर है किंतु गत 25 वर्षों में अर्थव्यवस्था में कृषि का हिस्सा 33 प्रतिशत से घटकर 15 प्रतिशत रह गया है और खेतीबाड़ी में सरकारी निवेश निरंतर गिर रहा है। समय आ गया है कि सरकार इस मुद्दे का निराकरण करे। सरकार को राजनेताओं, न्यायाधीशों, पत्रकारों आदि की जासूसी के बारे में पेगासस स्कैंडल के बारे में भी स्पष्टीकरण देना होगा।

संसद के कार्यकरण की लागत प्रति मिनट ढाई लाख रुपए है, इसलिए हमारे सांसदों को स्पष्ट बताया जाना चाहिए कि वे आम जनता के पैसों को बर्बाद नहीं कर सकते। समय आ गया है कि सभी सांसद इस बात पर विचार करें कि किस तरह संसदीय लोकतंत्र को मजबूत किया जाए अन्यथा लोग उनका उपहास करना शुरू कर देंगे।  

संवैधानिक दृष्टि से कार्यपालिका दिन के प्रत्येक सैकेंड के लिए संसद के प्रति जि मेदार और जवाबदेह है। कार्यपालिका का अस्तित्व लोकसभा में प्राप्त विश्वास पर आधारित है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच युद्ध रेखाएं खिंच गई हैं और यदि यह अविश्वास बढ़ता गया तो इससे संसद की गरिमा गिरेगी और उसकी छवि खराब होगी। संसद में कोई कार्य न हो, यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को शोभा नहीं देता। 

इस सत्र का महत्व राष्ट्रीय मुद्दों को आगे बढ़ाने में इसकी सफलता द्वारा आंका जाएगा। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता के रूप में मोदी को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि एक कुशल नेता अपने विपक्षियों से हमेशा कुछ न कुछ सीखता है। इसके साथ ही हमारे सांसदों को इस बात का आत्मावलोकन करना होगा कि वे किस तरह की विरासत छोड़ रहे हैं। क्या वे संसद को इसके कार्यकरण में आई गिरावट के बोझ तले दबने देंगे?-पूनम आई. कौशिश


 


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