लोकतंत्र का विरोधाभास : निराश मतदाता और जवाबदेही की तलाश

punjabkesari.in Sunday, Apr 21, 2024 - 05:37 AM (IST)

लोकतंत्र का सबसे शक्तिशाली अंग, मतदाता, सबसे अधिक त्रस्त क्यों है? सैद्धांतिक रूप से, लोकतंत्र जनता के लिए, जनता द्वारा और जनता के शासन का प्रतीक है। जाहिर तौर पर लोग किसी भी लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। लोकतंत्र में जनकल्याण से बढ़कर किसी चीज की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन फिर भी क्या यह हकीकत में सच है? दरअसल यह आसानी से देखा जा सकता है कि आम आदमी यानी मतदाता ही किसी भी व्यवस्था का सबसे बड़ा भुक्तभोगी होता है। लोकतंत्र के सबसे शक्तिशाली अंग के रूप में मतदाता के पास मतपेटी के माध्यम से राष्ट्र की नियति को आकार देने की कुंजी है। फिर भी, व्यवहार में मतदाताओं की निराशा स्पष्ट है। ऐसा क्यों है कि लोकतंत्र का मूल मंत्र, जो कल्याण और सशक्तिकरण का वादा करता है, अक्सर आम आदमी को निराश कर देता है? 

भारत में सत्ता की सबसे छोटी इकाई पंचायत है। सबसे बड़ी सीट लोकसभा है। राज्यों पर शासन करने के लिए राज्य विधानसभाएं हैं। दो दलीय व्यवस्था वाले देशों में सत्ता का बंटवारा दो दलों के बीच होता रहता है। रूस जैसे छद्म लोकतांत्रिक देशों में सत्ता मजबूत नेता के हाथ में ही रखी जाती है। लेकिन भारत जैसे बहुदलीय लोकतंत्र में अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग पाॢटयां शासन करती हैं। नई-नई पाॢटयां उभरती रहती हैं। लेकिन सभी चुनाव मतदाताओं द्वारा ही होते हैं। हर स्तर पर सरकार चुनने की पूर्ण शक्ति मतदाता के पास है। प्रत्येक मतदाता के पास वोट की समान शक्ति होती है, तो सवाल यह उठता है कि जबकि सभी स्तरों पर सरकार केवल मतदाताओं द्वारा चुनी जाती है, फिर भी उन्हें ही पीड़ित क्यों होना पड़ता है? 

लोकतंत्र की आधारशिला चुनावी प्रक्रिया में राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए बड़े-बड़े वायदे करते हैं। हालांकि, चुनाव केवल नए शासकों को चुनने के लिए एक तंत्र के रूप में कार्य करते हैं और जरूरी नहीं कि उन वायदों को पूरा करने की गारंटी भी देते हों। भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों का चुनावी परिदृश्य ऐसे वायदों से भरा पड़ा है जो आम आदमी की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करते हैं। हालांकि, प्रत्येक गुजरते चुनाव चक्र के साथ बयानबाजी और वास्तविकता के बीच का अंतर बढ़ता जाता है। राजनीतिक दलों द्वारा इन गंभीर मुद्दों के समाधान के लिए की गई जोशीली प्रतिज्ञाओं के बावजूद, जमीनी हकीकत अक्सर बिल्कुल अलग तस्वीर पेश करती है। आम मतदाता के लिए, संघर्ष केवल प्रतिस्पर्धी वादों के बीच चयन करने के बारे में नहीं है, बल्कि अधूरी उम्मीदों की भूल-भुलैया से निकलने के बारे में भी है। 

प्रणालीगत असमानताओं और आर्थिक विषमताओं के कारण गरीबी का चक्र जारी है। दशकों की प्रतिज्ञाओं के बावजूद, लाखों लोग अभी भी अभाव और अवसरों की कमी से जूझ रहे हैं। भारत की आजादी के बाद से ही गरीबी उन्मूलन हर राजनीतिक दल का एजैंडा रहा है। इसी तरह आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतें हर चुनाव में मुद्दा रही हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला सुरक्षा, बुनियादी ढांचा आदि अन्य सामान्य एजैंडे रहे हैं। एक आम आदमी की ज्यादा महत्वाकांक्षाएं नहीं होतीं। उनकी उम्मीदें पर्याप्त आय, वस्तुओं की नियंत्रित कीमतें, उनके बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा सुविधाएं, अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं, व्यक्तिगत सुरक्षा और त्वरित न्याय तक सीमित हैं। विडम्बना यह है कि हर चुनाव के साथ वादों की आवाज जूं-जूं दवा की। 

हमें मतदाता द्वारा निर्णय लेने की प्रक्रिया को समझना होगा ताकि यह समझा जा सके कि वह कैसे निर्णय लेता है कि किसके पक्ष में मतदान करना है। चुनाव प्रक्रिया के दौरान राजनीतिक दल मतदाताओं से कई वायदे करते हैं। मतदाता विभिन्न पाॢटयों के वादों को तौलते हुए पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान करने का मन बनाते हैं। दुर्भाग्य से मतदाताओं जिनमें से अधिकांश अशिक्षित और अनभिज्ञ होते हैं, के सामने वादों को वास्तविकता में बदलने की संभावना को सत्यापित करने के लिए बहुत कम जानकारी होती है। नेता और मीडिया की विश्वसनीयता मतदाता के फैसले पर असर डालती है। कुछ मतदाता किसी विशेष पार्टी की विचारधारा का पालन करते हैं और इस आधार पर उनके प्रति प्रतिबद्ध रहते हैं। इसके अतिरिक्त धार्मिक एवं जातिगत मान्यता भी वोटर को प्रभावित करती है लेकिन पूरी व्यवस्था में सबसे बड़ी खामी यह है कि वादा पूरा न कर पाने वाले दलों की कोई जवाबदेही नहीं है। 

मतदाता के पास एकमात्र उपाय यही है कि वह अगले चुनाव में अपना मन बदल दे और सरकार बदल दे। लेकिन नए वायदों पर आने वाले नए शासक की फिर वायदे पूरे न करने की कोई जवाबदेही नहीं है। आजादी के बाद भारत में सभी वर्षों के दौरान चक्रों में ऐसा होता रहा है। विडंबना यह है कि ज्यादातर सरकारें पिछली सरकार के खराब प्रदर्शन के लिए चुनी जाती हैं और अपने किसी अच्छे काम के आधार पर नहीं। स्पष्ट आंकड़े हैं जो दिखाते हैं कि सरकारें कैसे सत्ता विरोधी लहर के कारण बदली जाती हैं। इससे राजनीतिक दलों को भी संतुष्टि मिली है। वे समझते हैं कि भले ही विपक्ष में रहते हुए उन्होंने कोई अच्छा काम नहीं किया, लेकिन सत्ताधारी दल की सत्ता विरोधी लहर के कारण उन्हें सत्ता मिल जाएगी। इसके अलावा भारत में प्रमुख राजनीतिक दल हमेशा केंद्र या राज्यों में सत्ता में रहते हैं। ऐसा शायद ही कोई समय होता है जब कोई बड़ी पार्टी राज्यों और केंद्र दोनों में सत्ता से पूरी तरह बाहर हो जाती है। चुनाव हर 5 साल में आते हैं और कुछ समय तक सत्ता से बाहर रहने से पार्टियों को ज्यादा ङ्क्षचता नहीं होती। इससे मतदाता एक दुष्चक्र में फंस गया है क्योंकि किसी को भी सत्ता खोने का डर नहीं है क्योंकि सत्ता में दोबारा आने का मौका है। 

मतदाता तो सरकारें बदलता ही रहता है। हताशा में है लेकिन राजनीतिक दलों को अपने पक्ष में काम करने के लिए प्रभावित नहीं कर सकते। मतदान का एक पहलू यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि पैसे या अन्य आभार के लिए वोट देने की कुप्रथा है। इससे गलत लोगों का चयन हो जाता है जो बाद में उन लोगों की परवाह नहीं करते जिन्होंने उन्हें वोट दिया था क्योंकि उन्हें लगता है कि भविष्य में उन्हें इसी तरह दोबारा वोट मिल सकते हैं। यद्यपि वोटिंग पावर तो हर मतदाता के पास है लेकिन व्यवस्था ऐसी है कि सत्ता चंद हाथों में केन्द्रित हो जाती है। हर व्यक्ति को वोट देने का अधिकार है लेकिन उसी वोट को वापस लेने का अधिकार नहीं है। 

इन प्रणालीगत चुनौतियों से निपटने और मतदाताओं को सशक्त बनाने के लिए चुनाव सुधार जरूरी हैं। वापस बुलाने के अधिकार जैसे तंत्र की शुरूआत से मतदाताओं को चुनावों के बीच निर्वाचित प्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाने में मदद मिलेगी। इसके अतिरिक्त, पार्टियों को अपने घोषणापत्र के वादों को पूरा करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य होना चाहिए, गैर-अनुपालन के लिए दंड का प्रावधान होना चाहिए, जिसमें भविष्य के चुनावों में भाग लेने से अयोग्यता भी शामिल है।
मतदाता जागरूकता और जांच को बढ़ावा देने में मीडिया, नागरिक समाज और बौद्धिक समूहों की महत्वपूर्ण भूमिका है। पार्टी घोषणा पत्रों के निष्पक्ष विश्लेषण और प्रगति की नियमित निगरानी के माध्यम से, ये संस्थान मतदाताओं को सूचित विकल्प चुनने और निर्वाचित प्रतिनिधियों से जवाबदेही की मांग करने के लिए सशक्त बना सकते हैं। 

केस अध्ययन और शोध निष्कर्ष, सुधार की तत्काल आवश्यकता के बारे में इंगित करते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि चुनावी बदलाव का पैटर्न वैकल्पिक दृष्टिकोण में विश्वास की तुलना में मौजूदा सरकारों के प्रति असंतोष से अधिक प्रेरित है। इसके अतिरिक्त, अधूरे वायदों और शासन की विफलताओं के उदाहरण चुनावी बयानबाजी और शासन की वास्तविकता के बीच अंतर को उजागर करते हैं।

निष्कर्षत:, जबकि लोकतंत्र मतपेटी के माध्यम से सशक्तिकरण का वायदा करता है, इसकी प्रभावशीलता, जवाबदेही और सूचित निर्णय लेने पर निर्भर करती है। मतदाताओं को जवाबदेही के तंत्र के साथ सशक्त बनाकर, जागरूकता को बढ़ावा देकर और चुनाव सुधारों की वकालत करके, राष्ट्र लोकतांत्रिक आदर्शों और शासन की वास्तविकताओं के बीच की खाई को पाट सकते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि मतदाता की आवाज न केवल चुनावों के दौरान बल्कि पूरे शासन चक्र में गूंजती रहे। मतदाता जागरूकता, जिसे अक्सर लोकतंत्र के विमर्श में नजरअंदाज कर दिया जाता है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने में एक बुनियादी स्तंभ के रूप में खड़ी है। मतदाताओं के सामने आने वाली चुनौतियों के मद्देनजर, नागरिकों को सशक्त बनाने और लोकतंत्र की सच्ची भावना को बनाए रखने के लिए मतदाता जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है। इसमें चुनावी प्रक्रिया में नागरिकों का ज्ञान, समझ और भागीदारी शामिल है। इसमें राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों, उनके घोषणा पत्रों और उनके राष्ट्र के शासन को आकार देने में उनके वोट के महत्व के बारे में सूचित किया जाना शामिल है।

मतदाता जागरूकता बढ़ाने के ठोस प्रयासों के माध्यम से, राष्ट्र अधिक सक्रिय, सूचित और सशक्त नागरिकों के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं, जिससे उनके समाज के लोकतांत्रिक ताने-बाने को समृद्ध किया जा सकता है। राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों के कार्यान्वयन में हुई प्रगति की समय-समय पर समीक्षा भी करनी चाहिए। ऐसा अभ्यास 5 साल का मामला नहीं होना चाहिए, बल्कि यह बहुत बार-बार होना चाहिए। मतदाताओं को अपने अधिकारों के प्रति अधिक सतर्क रहना चाहिए और 5 साल बाद सरकार बदलने के बजाय हर समय सरकारों को चौकन्ना एवं दबाव में रखना चाहिए।-अश्वनी कुमार गुप्ता, सी.ए. 
 


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