बच्चों की ‘चिंता’ करने के मामले में विफल रही हैं हमारी सरकारें

punjabkesari.in Saturday, Mar 25, 2017 - 10:58 PM (IST)

मानव संसाधन विकास की हमारी परिकल्पना में बाल स्वास्थ्य और बाल पोषण के लिए कोई स्थान नहीं। वास्तव में ‘मानव संसाधन विकास’ ‘शिक्षा’ के लिए प्रयुक्त होने वाला एक नया शब्द है। राजीव गांधी ने तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के रूप में एक ऐसी परिवर्तनकारी और दूरगामी परिकल्पना की थी जिसमें मानव विकास के सभी आयाम शामिल किए जा सकें लेकिन उनकी मौत के जल्दी ही बाद इसका परित्याग कर दिया गया और आज हमारे पास जो मानव संसाधन मंत्रालय है वह पुराने जमाने के शिक्षा मंत्रालय का ही एक नया नाम है। 

हम यह भूल गए लगते हैं कि शिक्षा होती ही बच्चों के लिए है। शिक्षा उनकी छिपी हुई क्षमताओं को तभी पूर्ण रूप में साकार करेगी यदि बालक को अच्छा पोषण मिलता है और वह स्वस्थ है। यह सत्य है कि हमने बाल शिक्षा के मामले में कई प्रकार की पेशकदमियां की हैं लेकिन जिन बच्चों को हम शिक्षित करना चाहते हैं और भविष्य के शानदार नागरिकों के रूप में जिन्हें पुलकित करना चाहते हैं उनकी स्थिति क्या है? 

2015-16 का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस.) इस शृंखला का चौथा सर्वेक्षण है। यह जनसंख्या, स्वास्थ्य एवं पोषण के मामले में न केवल प्रत्येक राज्य बल्कि सम्पूर्ण देश के लिए अब तक की सबसे व्यापक जानकारी और आंकड़े उपलब्ध करवाता है। यह एक ऐसी रिपोर्ट है जो कुछ मामले में हमें गर्व से इतराने का मौका देती है लेकिन कई अन्य पहलुओं के संबंध में काफी निराशाजनक भी है। 

सदमाखेज परिणाम
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से लेकर भारत ने नि:संदेह कई मानव विकास सूचकांकों के मामले में उल्लेखनीय प्रगति की है। उदाहरण के तौर पर 1947 में जीवन प्रत्याशा केवल 32 वर्ष थी जो अब बढ़कर 66 वर्ष हो चुकी है और साक्षरता दर 12 प्रतिशत से उछलकर 74 प्रतिशत पर पहुंच चुकी है। पुरुषों और महिलाओं के बीच अनेक सूचकांकों के मामले में ङ्क्षलग असमानता पहले की तुलना में कम हुई है लेकिन इस प्रगति के बावजूद हमारे बच्चों की स्थिति शर्मनाक है। 

मैडीकल तौर पर यह स्थापित हो चुका है कि बच्चे के जीवन के प्रथम 5 वर्ष काफी हद तक उसके शेष जीवन दौरान उसके स्वास्थ्य तथा शारीरिक एवं मानसिक विकास को निर्धारित करते हैं तो फिर देखें कि भारत के बच्चों की वर्तमान स्थिति क्या है? हर 2 में से 1 बच्चा खून की कमी का शिकार है। प्रत्येक 3 में से 1 बच्चे का शारीरिक विकास पूरी तरह नहीं हो पाता और उसका वजन भी जरूरत से कम होता है। प्रत्येक 5 बच्चों में से एक का जीवन भाड़ में चला जाता है। इसका एकमात्र कारण है अपर्याप्त मात्रा में भोजन का उपलब्ध होना, पौष्टिकता की कमी, घटिया पेयजल और स्वच्छता की भयावह व्यवस्था। 

खाद्य सुरक्षा की अनदेखी
भारत ने भी संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग के बाल अधिकार कन्वैंशन पर हस्ताक्षर किए हुए हैं। इस कन्वैंशन की धारा 24 (2) में अन्य बातों के साथ-साथ यह भी बताया गया है कि: ‘‘प्रादेशिक पार्टियां पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक भोजन और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाकर कुपोषण और बीमारी से लडऩे के लिए उपयुक्त कदम उठाएंगी...।’’ 

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 सस्ते दामों पर गुणवत्तापूर्ण भोजन तक पर्याप्त मात्रा में सुगम्यता सुनिश्चित करने के लिए ही पारित किया गया था। इसके अंतर्गत प्रति माह, प्रति व्यक्ति के लिए 5 किलो अनाज का वायदा किया गया था। गर्भवती और स्तनपान करवाने वाली महिलाओं, 6 माह से 6 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों तथा कुपोषण पीड़ित बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किए गए थे। साधारण किस्म के पोषण मानक तय किए गए थे: विभिन्न वर्गों के लिए प्रतिदिन 500 से 800 कैलोरी ऊर्जा एवं 12 से 25 ग्राम प्रोटीन। 

अधिनियम के अंतर्गत इसके निष्पादन पर नजर रखने के लिए प्रत्येक प्रदेश में राज्य खाद्य आयोग को भी कानूनी तौर पर अनिवार्य बनाया गया था लेकिन 21 मार्च तक इस कानून के वायदे पूरे नहीं हुए थे और 9 राज्यों ने तो अभी तक राज्य खाद्य आयोग तक का गठन नहीं किया। इन 9 राज्यों में जहां महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक जैसे बड़े राज्य शामिल हैं, वहीं छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे ऐतिहासिक दृष्टि से गरीब राज्य भी शामिल हैं। सुप्रीमकोर्ट ने इस भारी-भरकम लापरवाही के आरोपों का उत्तर हासिल करने के लिए संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों को तलब किया है। 

संदिग्ध प्रतिबद्धता
जहां मूल रूप में जिम्मेदारी राज्य  सरकारों पर आती है, वहीं हमारे बच्चों के प्रति केन्द्र सरकार की प्रतिबद्धता भी संदिग्ध है। * यदि सरकार ने बाद के वर्षों में भी खर्च करना जारी रखा होता तो  2013-14 में पहले वाले स्तर के हिसाब से इसने 6155 करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च किए होते तो अगले दोनों वर्षों में यह आंकड़ा 18,087 तथा 22,561 रुपए होता। 

एक के बाद एक सरकारें- खास तौर पर राज्य सरकारें भारत वर्ष के बच्चों की चिंता करने के मामले में बुरी तरह विफल रही हैं। मेरा ऐसा मानना है कि अमन-कानून की स्थिति बनाए रखने को छोड़कर यह कत्र्तव्य ही दूसरा सबसे महत्वपूर्ण काम है। इस लापरवाही के कारण ही हमारे मानव संसाधनों की गुणवत्ता बहुत घटिया है। आर्थिक वृद्धि से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तक हर बात हमारी मानवीय पूंजी की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। हम विशाल आबादी की दृष्टि से जिस लाभ की स्थिति की शेखी बघारते हैं वही हमारे गले का पत्थर बनता जा रहा है। 

हमारे यहां तमिलनाडु में एक लोकोक्ति है: ‘‘बच्चा और भगवान वहीं वास करते हैं जहां उनकी मान्यता होती है और उनका उत्सव मनाया जाता है।’’ यह बहुत खेद की बात है कि एक राष्ट्र के रूप में हम अपने देवताओं के तो उत्सव मनाते हैं लेकिन बच्चों की अनदेखी करते हैं। 


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