सिर्फ शब्दों से नहीं बुझेगी ‘भारत की प्यास’

punjabkesari.in Tuesday, Sep 13, 2016 - 01:42 AM (IST)

(पूनम आई कौशिश): कहीं सूखा, कहीं बाढ़, जहां सूखा वहां आत्महत्या, जहां बाढ़ वहां दुर्घटना। कल तक भारत के जल चक्र का इतिहास प्रकृति निर्मित इस दुविधा में निहित था किंतु आज यह दुविधा पानी की चाह से कहीं आगे बढ़ गई है तथा यह राजनीतिक दृष्टि से एक संवेदनशील मुद्दा बन गया है जिसका कारण हमारे स्वार्थी नेता हैं जो अपने वोट बैंक को संदेश देने के लिए इसे एक और चुनावी मुद्दा बनाने जा रहे हैं। यह मुद्दा एक गंदा राजनीतिक विवाद बन सकता है और इससे भावी पीढिय़ां प्रभावित हो सकती हैं। 

 
कावेरी जल बंटवारे पर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच चल रहा विवाद इसका प्रमाण है। पिछले सप्ताह सोमवार को उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक सरकार को निर्देश दिया था कि वह तमिलनाडु में साम्बा फसल को बचाने के लिए अगले 10 दिनों तक 15 हजार क्यूसिक पानी छोड़े और लगा था कि इससे दोनों राज्यों के बीच 1892 से चली आ रही नदी जल राजनीति का अंत हो जाएगा, किंतु यह हमारी गलतफहमी थी। 
 
इससे दोनों राज्यों के बीच राजनीतिक वाक्युद्ध बढ़ा और फलत: दोनों राज्यों में बंद का आयोजन किया गया। दोनों राज्यों ने अपनी-अपनी जनता की भावनाओं से खेला। कर्नाटक ने कहा कि इस निर्णय को मानने से उसके किसानों को नुक्सान होगा और यदि हम तमिलनाडु को एक क्यूसिक पानी भी छोड़ते हैं तो इससे हजारों एकड़ भूमि पर फसल बर्बाद होगी तथा अगले फरवरी तक बेंगलूर  और मैसूर में पेयजल की समस्या पैदा होगी। 
 
तमिलनाडु ने इसका प्रत्युत्तर यह कहकर दिया कि यदि कर्नाटक पानी नहीं छोड़ेगा तो उसकी 15 लाख एकड़ भूमि में फसल बर्बाद होगी। कर्नाटक ने कावेरी नदी जल में से हमारे हिस्से को हड़प लिया है। तमिलनाडु ने इस संबंध में आंकड़े भी दिए कि देश की कुल जनसंख्या में राज्य की जनसंख्या 6 प्रतिशत है जबकि यहां जल संसाधन केवल 3 प्रतिशत हैं। राज्य में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 800 घन मीटर है। राज्य में वाॢषक वर्षा 792 मिली मीटर होती है, जबकि राष्ट्रीय औसत 1250 मिली मीटर है। 
 
उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय से सिद्धरमैया की कांग्रेस सरकार बड़ी मुश्किल में पड़ गई। राज्य में कावेरी बेसन के 4 जलाशयों में 46,70,000 मिलियन घन फुट पानी है और कर्नाटक के किसान अपनी समस्या के समाधान के लिए प्रधानमंत्री मोदी की ओर देख रहे हैं किंतु भाजपा इसे एक राजनीतिक अवसर मान रही है। नदी जल विवाद में कावेरी एकमात्र समस्या नहीं है। 
 
नदी जल विवाद गत वर्षों में प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बना रहा और कुछ बड़े राज्यों के विभाजन के बाद यह विवाद और बढ़ा जिससे अंतर्राज्यीय राजनीतिक व कानूनी लड़ाइयां बढ़ीं। कोई भी राज्य दूसरे राज्य को पानी देना नहीं चाहता है। किंतु केन्द्र ने इस समस्या का स्थायी समाधान ढूंढने के बजाय अल्पकालिक समाधान ढूंढा जिससे ऐसी स्थिति बनी कि संबंधित राज्य संविधान का उल्लंघन कर स्वतंत्र निर्णय लेने लगे। 
 
पहले ही केन्द्र सरकार कृष्णा नदी जल बंटवारे को लेकर आंध्र प्रदेश और कर्नाटक, गोदावरी मुद्दे पर महाराष्ट्र और कर्नाटक, मांडेल मंडोवी नदी को लेकर गोवा और कर्नाटक तथा नर्मदा को लेकर मध्य प्रदेश और गुजरात के बीच विवादों में उलझी हुई है, हालांकि अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम 1956 के अंतर्गत ऐसे मुद्दों के समाधान के लिए 5 अधिकरणों का गठन किया जा चुका है। 
 
कुछ पार्टियां और नेता अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए नदी जल विवाद जैसे मुद्दों को उठाते हैं। साथ ही कुछ राज्य राष्ट्रीय हितों से अधिक महत्व अपने राज्यों के हितों को देते हैं और कई बार राज्य अधिकरणों के पंचाट को नहीं मानते या नदी जल बंटवारा समझौतों को तोड़ देते हैं। अभी हाल ही में तेेलंगाना में सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति ने केन्द्र से कहा है कि वह आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तेलंगाना के बीच कृष्णा नदी के जल बंटवारे पर पुर्नविचार करे क्योंकि ये राज्य नवगठित तेलंगाना के साथ अन्याय कर रहे हैं। 
 
विडम्बना देखिए कि हमारे देश में जल का प्रबंधन 6 केन्द्रीय मंत्रालयों- जल संसाधन मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, शहरी विकास मंत्रालय, खाद्य मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा किया जाता है। इन मंत्रालयों के बीच कोई समन्वय नहीं है। कृषि और जल संसाधन मंत्रालय परस्पर विपरीत दिशा में कार्य करते हैं तो ग्रामीण विकास मंत्रालय अन्य मंत्रालयों से स्वतंत्र काम करता है। प्रत्येक मंत्रालय अपने हितों की उत्साह से रक्षा करता है चाहे मोदी हों या कोई और हो।
 
21वीं सदी के भारत में पानी की तलाश और इसका प्रबंधन सबसे जटिल कार्य बन गया है। जल संसाधन मंत्रालय और कृषि मंत्रालय के अध्ययन के अनुसार 2025 तक गंगा सहित 11 नदियों में पानी की कमी हो जाएगी जिससे 90 करोड़ लोगों के जीवन पर संकट आ पड़ेगा। 2050 तक स्थिति और भी गंभीर होगी और तब तक पानी की मांग में 1180 मिलियन घन मीटर की वृद्धि हो जाएगी। 
 
जल संसाधन निरंतर कम होते जा रहे हैं एवं इसके लक्षण दिखाई देने लगे हैं। सरकार इसके समाधान के लिए आसमान की ओर देखती है। इससे प्रश्न उठता है कि क्या आने वाले वर्षों में भारत में पर्याप्त पानी होगा? समय आ गया है कि केन्द्र सरकार को पानी को एक राष्ट्रीय सम्पत्ति मानना चाहिए और उसकी कमी के लिए दीर्घकालीन उपाय करने चाहिएं। इसके लिए राष्ट्रीय नियोजन तथा स्थानीय समाधानों की आवश्यकता होगी अन्यथा अगले 2 दशकों में देश में गंभीर जल संकट पैदा हो जाएगा। 
 
साथ ही राज्यों को भी जल बंटवारे में निष्पक्षता बरतनी चाहिए और इसका एक टकराव के औजार के रूप में उपयोग नहीं करना चाहिए। भारत में वर्तमान में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता में तेजी से कमी आ रही है। 1951 में यह 5177 घन मीटर थी तो 1991 में यह घटकर 2209 घन मीटर और 2001 में 1800 घन मीटर हो गई तथा वर्तमान में 1582 घन मीटर है। भारत में भूमिगत जल का दोहन भी विश्व में सर्वाधिक है। इससे भूमिगत जल स्तर में भी तेजी से गिरावट आ रही है। इस स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मोदी सरकार ने गंगा पुनरुद्धार और नदी विकास परियोजना चलाई है तथा देखना यह है कि इस परियोजना को कितनी जल्दी लागू किया जाता है। मोदी राज्यों के बीच जल विवाद के स्थायी समाधान के लिए अम्बेदकर की योजना से प्रेरणा ले सकते हैं। 
 
कुल मिलाकर हमारे नेताओं को आगे आना होगा और बुनियादी मानव आवश्यकता के इस विषय पर विवेकहीन राजनीति बंद करनी होगी। केवल जुबानी जमा खर्च से काम नहीं चलेगा, व्यावहारिक समाधान ढूंढने होंगे।            
 

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