भारत-चीन संबंधों का निहितार्थ

punjabkesari.in Friday, May 11, 2018 - 02:33 AM (IST)

विश्व में जिस प्रकार के घटनाक्रम सामने आ रहे हैं उनसे वैश्विक राजनीति का प्रभावित होना स्वाभाविक है। उस पृष्ठभूमि में क्या भारत-चीन के संबंध प्रगाढ़ हो सकते हैं? 

गत दिनों चीन ने 28 भारतीय दवाओं (अधिकतर कैंसर विरोधी दवा) से आयात शुल्क हटा दिया। अब तक चीन से आयात-निर्यात में भारी असमानता के कारण भारत को कई वर्षों से 50 अरब डालर से अधिक का घाटा उठाना पड़ रहा है। इस पृष्ठभूमि में चीन का यह निर्णय भारतीय घाटे को कम करने में सहायक हो सकता है, क्योंकि चीन में कैंसर दवाओं का सालाना बाजार लगभग 19-20 अरब डॉलर का है। 

इसके अतिरिक्त, सीमा पर तनाव कम करने हेतु दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों ने कुछ दिन पहले बैठक भी की, साथ ही दोनों देशों के सैन्य मुख्यालयों के बीच हॉटलाइन सेवा शुरू करने संबंधी खबर भी सामने आई। जो चीन, विशेषकर उसका सरकारी मीडिया, डोकलाम विवाद से उग्र शब्दावलियों का उपयोग कर भारत को धमकाने का प्रयास कर रहा था, उसके स्वरों में आज ‘‘रिश्तों का नया अध्याय’’ जैसे शब्द के पीछे का भावार्थ क्या है? 

उपरोक्त घटनाक्रमों की पटकथा-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच 27-28 अप्रैल को वुहान में हुई अनौपचारिक बैठक ने लिखी है। किसी भी कूटनीतिक विजय का मापदंड संबंधित देशों के राष्ट्राध्यक्षों की राजनीतिक बुद्धिमता,  उनकी कार्यकुशलता और निर्णयों पर निर्भर करता है। इस भेंट से जो परिणाम अब तक सामने आए हैं, वे भारत के हित में हैं। यही कारण है कि भारत में  जो भी बुद्धिजीवी या चिंतक (विरोधी सहित) प्रधानमंत्री मोदी के हालिया चीन दौरे का आकलन कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर इस घटनाक्रम को एशियाई महाद्वीप में 2 बड़े देशों के संबंधों में आई कड़वाहट को दूर करने के प्रयास के रूप में देख रहे हैं।

वुहान में मोदी-शी के बीच हुई बैठक का एक और महत्वपूर्ण पक्ष है, जिसका संबंध क्षेत्रीय और वैश्विक घटनाक्रमों से है, जो दोनों देशों को प्रभावित भी करता है। जिस समय विश्व की नजरें मोदी-शी की पहली अनौपचारिक बैठक की ओर थीं,  उसी दौरान दो शत्रु कोरियाई देशों के प्रमुख 30 वर्षों में पहली बार वार्ता के लिए एक मेज पर आमने-सामने बैठे थे। अमरीका समर्थित दक्षिण कोरिया के नेता मून-जे-इन से उत्तरी कोरियाई तानाशाह किम जोंग-उन की भेंट स्वाभाविक रूप से चीन की महत्वाकांक्षाओं को निर्विवाद रूप से असहज कर रही होगी। 

कोरियाई प्रायद्वीप पर चीन अपना दबदबा और रचनात्मक भूमिका को यथेष्ट बनाए रखना चाहता है, जिसमें उसका साथ वैचारिक समानता के कारण उत्तरी कोरिया भी देता आ रहा है। बीते डेढ़ माह में 2 बार किम जोंग का पेइचिंग (25-28 मार्च) और डालियान (8 मई) में राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिलना, साथ ही प्योंगयांग (3 मई) की दुर्लभ यात्रा के दौरान चीनी विदेश मंत्री वांग यी का किम जोंग से भेंट करना, स्पष्ट करता है कि कोरियाई प्रायद्वीप में अपनी पकड़ कमजोर होने से चीन विचलित है। अब यदि किम जोंग-उन और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बीच होने वाली संभावित बैठक से कोई ठोस परिणाम निकलता है तो नि:संदेह यह साम्यवादी चीन की विस्तारवादी मानसिकता व उसके अमरीका विरोधी अभियान पर एक और करारी चोट होगी। 

दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं-अमरीका और चीन के बीच छिड़ा व्यापारिक युद्ध भी विश्व को प्रभावित कर रहा है। ट्रम्प अधीन अमरीका के कारण जिस तरह विश्व में संरक्षणवाद का दौर लौटा है, उसका प्रतिकार चीन भी अपनी संरक्षणवादी नीतियों के साथ कर रहा है। इस बीच अमरीका ईरान के साथ परमाणु समझौता भी निरस्त कर चुका है। वर्ष 2015 में हुए इस सौदे में अमरीका-ईरान के अतिरिक्त ब्रिटेन, चीन, जर्मनी और रूस भी शामिल थे। जहां चीन का अमरीका से व्यापारिक युद्ध प्रचंड हो रहा है, वहीं एशियाई-प्रशांत और हिन्द महासागर क्षेत्रों में बहुपक्षीय व्यापार और चीन के साम्राज्यवादी राजनीति को ध्वस्त करने की दिशा में भारत, अमरीका, जापान, आस्ट्रेलिया के एक मंच पर साथ आने से, चीन असहज राजनीतिक-आर्थिक स्थिति में पहुंच चुका है। 

अब इन हालिया घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में संभवत: चीन समझ गया है कि विश्व में उसकी प्रतिकूल स्थिति में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश व भावी आर्थिकी महाशक्ति भारत के साथ टकराव जारी रखना और उसके प्रति अत्यधिक विरोधी मुद्रा अपनाना, उसे अब तक के सबसे बड़े भू-राजनीतिक संकट में फंसा सकता है। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य से भारत भी अछूता नहीं है। उस स्थिति में बुद्धिमता के साथ चीन से रिश्ते मजबूत करना उसके लिए लाभप्रद हो सकता है। आपसी सहयोग पर बल देने के अतिरिक्त अफगानिस्तान में भारत-चीन द्वारा एक संयुक्त आॢथक परियोजना पर काम करने की सहमति देना, वुहान में मोदी-शी वार्ता का सबसे स्वागत योग्य निर्णय है। 

तानाशाह माओ-त्से-तुंग की मृत्यु के बाद अनंतकाल के लिए राष्ट्रपति शी जिनपिंग के अधीन आ चुका चीन अच्छी तरह समझता है कि 1950-60 के दशक में पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके बाद के कार्यकालों में जो भारत हुआ करता था, जिसमें उसे 1962 में शर्मनाक पराजय भी झेलनी पड़ी थी, वह 56 वर्ष पश्चात मोदी युग में पूरी तरह बदल चुका है। उस दौर में जिस प्रकार भारत साम्यवादी चीन के साम्राज्यवादी आतंक का शिकार हो रहा था, वह स्थिति भी 2018 में अब पूरी तरह परिवर्तित हो चुकी है। 

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को डोकलाम घटनाक्रम से तीन संकेत मिल चुके हैं। पहला-भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री इतने कमजोर नहीं हैं कि उन पर किसी प्रकार का दबाव काम आए। दूसरा-डोकलाम पर भारत का कड़ा रुख कोई आकस्मिक नहीं था, जिसे वह अपने अनुरूप सांचे में ढालने का प्रयास कर सकें और तीसरा-यदि आवश्यकता हुई तो भारत अपने सभी शत्रुओं को उसी की भाषा में जवाब भी दे सकता है और उसकी आगामी रणनीति का भी अंदाजा लगा सकता है।-बलबीर पुंज


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Pardeep

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