कैसे मजबूत होगा भारत का न्याय तंत्र

punjabkesari.in Tuesday, Mar 13, 2018 - 03:18 AM (IST)

किसी भी लोकतंत्र के 3 प्रमुख अंग होते हैं- विधायिका अर्थात संसद और राज्यों की विधानसभाएं, कार्यपालिका अर्थात सरकार चलाने वाला नौकरशाही तंत्र तथा न्यायपालिका अर्थात अदालतों की 3 स्तरों पर चलने वाली व्यवस्था। इन तीनों में से एक मायने में न्यायपालिका अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस पर एक तरफ नागरिकों के विवाद सुलझाने का बहुत बड़ा दायित्व है तो दूसरी तरफ विधायिका और कार्यपालिका द्वारा कोई कार्य संविधान विरुद्ध न हो, यह दायित्व भी न्यायपालिका पर ही है। 

न्यायपालिका की दुर्दशा लगातार बढ़ती जा रही है। इस दुर्दशा को एक ही यंत्र से मापा जा सकता है कि कितनी शीघ्रता के साथ न्यायालयों में मुकद्दमों का निपटारा होता है। हमारे देश की न्यायपालिका के 3 स्तर हैं- सबसे नीचे जिला स्तर तक की अदालतें, मध्यम स्तर पर प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय तथा सबसे ऊपर भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय। इन सारी अदालतों में लगभग 3 करोड़ मुकद्दमे लम्बित हैं जिनमें से लगभग 60 लाख मुकद्दमे तो ऐसे हैं जो 5 साल से भी अधिक समय से लटके पड़े हैं। जितने समय तक अदालतों में मुकद्दमे लटके रहते हैं उतनी अवधि तक दोनों पक्षों में असंतोष बना रहता है। दो पक्षों का अर्थ दो व्यक्ति ही नहीं होता अपितु दो परिवार और यहां तक कि कई बार एक-एक मुकद्दमे के निर्णय से सैंकड़ों, हजारों व्यक्ति प्रभावित होते हैं। 

मुकद्दमों के लम्बित रहने का सीधा अर्थ है- उन सभी लोगों में असंतोष और धैर्यहीनता का बढ़ते जाना जो मुकद्दमे के निर्णय से प्रभावित हो सकते हैं। इस असंतोष से कितनी बड़ी संख्या में देश के नागरिकों की उत्पादन शक्ति भी प्रभावित होती है। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से नागरिकों में असंतोष का अर्थ है- देश के विकास में रुकावट। इसलिए किसी भी देश में विकास को निर्बाध गति से जारी रखने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका चुस्त-दुरुस्त तरीके से कार्य करे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के 31 पद हैं जबकि इस वक्त केवल 25 न्यायाधीश कार्यरत हैं और 7 न्यायाधीश इसी वर्ष सेवानिवृत्त होने वाले हैं। देश के 24 उच्च न्यायालयों में 1079 न्यायाधीशों के पद हैं जिनमें से लगभग 400 स्थान रिक्त हैं। जिला स्तर तक की अदालतों में न्यायाधीशों के 20 हजार से कुछ अधिक स्थान हैं जिनमें से इस समय लगभग 5,000 स्थान रिक्त हैं। 

अमरीका जैसे विकसित देशों में लगभग 10 हजार लोगों पर एक न्यायाधीश कार्य करता है जबकि हमारे देश में लगभग 80 हजार लोगों पर एक न्यायाधीश निर्धारित है। उस निर्धारित संख्या में भी नियुक्तियों में देरी इस अनुपात को और अधिक बढ़ा देती है। लम्बे समय से भारत की न्यायपालिका सरकारों से यह मांग करती रही है कि न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जाए और निर्धारित संख्या में नियुक्तियों की प्रक्रिया भी तेज की जाए। उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक आयोग भी गठित किया गया था परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के अपने आदेश से ही वह कार्य भी लटक गया है। 

नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सर्वोच्च न्यायालय और केन्द्र सरकार में एक शीत युद्ध चलता रहता है जिसके कारण न्यायाधीशों की नियुक्तियां भी हमेशा सुस्त गति से हो पाती हैं। देश की सभी जिला अदालतों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राज्य स्तर पर होती है। सर्वोच्च न्यायालय तथा केन्द्र सरकार इस विषय पर भी विचार कर रहे हैं कि सारे देश की जिला अदालतों के न्यायाधीशों की नियुक्ति भी एक केन्द्रीय प्रक्रिया के अंतर्गत प्रारम्भ की जाए। विडम्बना है कि सर्वोच्च न्यायालय और केन्द्र सरकार के बीच नियुक्तियों को लेकर बना द्वंद्व स्वयं ही एक बड़ी समस्या बना हुआ है। 

फिर भी मुकद्दमों के शीघ्र निपटारे के लिए वर्तमान व्यवस्था में से भी कई हल ढूंढे जा सकते हैं। जिला अदालतों तथा उच्च न्यायालयों में एक शिफ्ट के स्थान पर 2 शिफ्ट में कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है। सांध्य अदालतों की शुरूआत कुछ राज्यों में की गई है। इसे यदि सारे भारत में लागू किया जाए तो मुकद्दमों के निपटारे में बहुत बड़ी सुविधा मिल सकती है। अदालतों में मुकद्दमों को लटकाने के प्रयासों को समाप्त करना न्यायाधीशों के हाथ में है। किसी मुकद्दमे में बिना किसी मजबूत कारण के तिथियां आगे न बढ़ाई जाएं। न्यायाधीशों पर मुकद्दमों की छोटी-मोटी प्रक्रिया का दायित्व न छोड़ा जाए। इसके लिए अन्य सहायक अधिकारी भी नियुक्त किए जा सकते हैं। भारत के न्यायालयों को आधुनिक बनाने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना है। 

आज भी जिला स्तर तक के अनेकों न्यायालय कम्प्यूटर तकनीक से वंचित हैं। इसके लिए केन्द्र और राज्य सरकारों को न्यायपालिका के कार्य संचालन के बजट में भी वृद्धि करनी ही होगी। हमारे देश में वर्ष 2016 के बजट में न्याय व्यवस्था के लिए 0.2 प्रतिशत राशि आबंटित की गई थी। नि:संदेह 2017 के बजट में यह राशि 0.4 प्रतिशत कर दी गई परन्तु अमरीका जैसे विकसित देशों में न्यायपालिका के लिए 4 प्रतिशत से भी अधिक राशि आबंटित की जाती है।

केन्द्र सरकार का न्याय मंत्रालय जब तक इस गम्भीर विषय पर उदारतापूर्वक कार्य नहीं करेगा तब तक न्याय तंत्र की मजबूती दूर का सपना ही बना रहेगा। न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना बेशक तत्काल रूप से सम्भव न हो परन्तु कुछ अन्य सुझाव केवल आदेशों और थोड़े से बजट में वृद्धि करके लागू किए जा सकते हैं। जैसे कि निर्धारित संख्या में न्यायाधीशों की नियुक्ति, सांध्य अदालतों की शुरूआत और न्यायाधीशों को प्रक्रियात्मक कार्यों से मुक्त करके इन कार्यों को कानून में दक्ष सहायक अधिकारियों को सौंपना।-विमल वधावन


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