पाकिस्तान में हिंदू विरासत कैसे बचे?
punjabkesari.in Monday, Jun 03, 2024 - 05:04 AM (IST)
पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी आज 2.1 प्रतिशत रह गई है। इसमें भी ज्यादातर हिंदू कराची, सियालकोट और लाहौर में रहते हैं। इनमें भी ज्यादा प्रतिशत दलित और पिछड़ी जातियों के हिंदू हैं, जो गांव में रहते हैं और उनकी आर्थिक हालत काफी कमजोर है। हालांकि भारत सरकार ने बंटवारे के समय पाकिस्तान में रह गए हिंदुओं को भारत आकर बसने और यहां की नागरिकता लेने की प्रक्रिया आसान कर दी है फिर भी अपेक्षा के विपरीत पाकिस्तान में बसे हिंदू भारत आकर बसने को तैयार नहीं हैं क्योंकि वे सदियों से वहीं रहते आए हैं और वही उनकी मातृभूमि है।
बंटवारे से पहले पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू हर शहर में बसे थे और वे बड़े जमींदार व संपन्न व्यापारी थे। जिन्हें रातों-रात सब कुछ छोड़ कर भारत में शरणार्थी बन कर आना पड़ा। इन हिंदुओं व जैनियों ने पाकिस्तान में अपने आराध्य के एक से एक बढ़ कर मंदिर बनवाए थे जिनकी संख्या 1947 में 428 थी। जो आज घट कर मात्र 20 मंदिर रह गए हैं। इसी तरह पाकिस्तान के पंजाब सूबे में सैंकड़ों गुरुद्वारे थे जो बाद में भारत से गए मुसलमान शरणार्थियों के आशियाने बन गए। वैसे बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाज देवी का मंदिर विश्व प्रसिद्ध है। क्योंकि यह 64 शक्तिपीठों में से एक है और यहां सारे वर्ष तीर्थ यात्रियों का आना-जाना लगा रहता है। इसके अलावा कराची की हिंदू आबादी के बीच जो मंदिर हैं वे भी सुरक्षित हैं और उनमें भगवान की नियमित सेवा पूजा और उत्सवों का आयोजन होता रहता है। पर इतनी बड़ी संख्या में मंदिरों और गुरुद्वारों का नष्ट हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी क्योंकि जब उनमें आस्था रखने वाले लोग ही नहीं रहे तो ये मंदिर और गुरुद्वारे कैसे आबाद रहते?
इस स्थिति में बड़ा बदलाव तब आया जब 2011 में पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत के आदेश के बाद पेशावर के ऐतिहासिक गोरखनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार पाकिस्तान सरकार द्वारा करवाया गया। इसी तरह कराची में दरियालाल मंदिर का भी जीर्णोद्धार सरकार और भक्तों ने मिलकर किया। 2019 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खां ने घोषणा की थी कि बंटवारे के समय जो 400 मंदिर पाकिस्तान में थे उन सभी का अधिग्रहण करके सरकार उनका जीर्णोद्धार करवाएगी। इसी क्रम में सियालकोट में 1947 से बंद पड़े शिवाला तेजसिंह मंदिर का जीर्णोद्धार भी वहां की सरकार ने करवाया। पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहां की फौज लोकतंत्र को सफल नहीं होने देती। इमरान खां अपदस्थ कर दिए गए और उसके साथ ही उनकी यह योजना भी खटाई में पड़ गई। पर पाकिस्तान के पढ़े लिखे मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज में अपनी इन ऐतिहासिक धरोहरों को लेकर नव-जागृति आई है।
आप यू-ट्यूब पर अनेक टी.वी. रिपोर्ट्स देख सकते हैं जिनमें इन स्थलों को खोजने और दिखाने में पाकिस्तान के युवा यू-ट्यूबर उत्साह से जुटे हैं। चूंकि भारत और पाकिस्तान के बीच के रिश्ते बहुत मधुर नहीं हैं, इसलिए दुनिया के अन्य देशों विशेषकर यूरोप व अमरीका में रहने वाले संपन्न हिंदुओं को पाकिस्तान में स्थित ऐतिहासिक हिंदू तीर्थ स्थलों का उदारता से जीर्णोद्धार करवाना चाहिए। बशर्ते कि पाकिस्तान की मौजूदा सरकार और स्थानीय लोग इस बात के लिए तैयार हों और इन स्थलों की रक्षा और व्यवस्था की जिम्मेदारी भी लें। इसी क्रम में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की नील घाटी में पौराणिक शारदापीठ एक ऐसा तीर्थस्थल है जिसका विकास कश्मीरी पंडित व अन्य हिंदू ही नहीं, नील घाटी में रहने वाले मुसलमान भी करवाना चाहते हैं क्योंकि श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह विकसित हो जाने पर उन्हें यहां अपनी आर्थिक समृद्धि की असीम संभावनाएं दिखाई देती हैं।
भौगोलिक रूप से भी यह तीर्थ भारत की मौजूदा सीमा के परलीपार स्थित है। पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुजफ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र ‘कृष्ण-गंगा्र नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे मां शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था। जिस दिन से मां शारदा वहां विराजमान हुईं उस दिन से ही सारा कश्मीर ‘नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी/त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में’ कहते हुए उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर मां शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्मे,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गए, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। मां शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहां भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे।
इस तीर्थ के जीर्णोद्धार और इस संपूर्ण क्षेत्र के विकास के लिए शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतानंद देव तीर्थ कई वर्षों से सक्रिय हैं। उनके प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर पर अच्छे संबंध हैं और उन्हें सनातन धर्मियों का उदार समर्थन प्राप्त है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में भक्तों की यह भावना पूरी होगी ही और श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह ‘शारदा देवी कॉरिडोर’ का निर्माण हो सकेगा।-विनीत नारायण