क्या अब भारतीय लोकतंत्र पर दूषित प्रचार बंद होगा
punjabkesari.in Thursday, Jun 06, 2024 - 05:41 AM (IST)
18वें लोकसभा चुनाव के नतीजे अपने अंदर कई संदेशों को समेटे हुए हैं। पहला पिछले कुछ वर्षों से विरोधी दल, विदेशी शक्ति और मीडिया के एक भाग द्वारा नरेटिव गढ़ा जा रहा था कि देश की लोकतांत्रिक-संवैधानिक संस्था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘जेब’ में है अर्थात् प्रजातंत्र समाप्त हो चुका है। ई.वी.एम. और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाकर देश को कलंकित किया जा रहा था। चुनाव परिणाम ने न केवल इस प्रकार के मिथकों को तोड़ दिया, बल्कि इसने भारत के जीवंत, बहुलतावादी, पंथनिरपेक्षी और स्वस्थ लोकतांत्रिक छवि को पुनस्र्थापित किया है। क्या प्रधानमंत्री मोदी का अंधविरोध करने वाला वाम-जिहादी-सैकुलर समूह अपने इस वाहियात प्रलाप के लिए देश से माफी मांगेगा?
दूसरा प्रधानमंत्री मोदी ने इतिहास रचते हुए स्वतंत्र भारत में 1962 के बाद लगातार तीसरी बार सरकार बनाने का जनमत प्राप्त किया है। पिछले लोकसभा चुनाव (2019) की तुलना में भाजपा को इस बार 0.8 प्रतिशत मतों का नुकसान हुआ है। इससे उसकी देश में 63 सीटें घट गईं और वह अपने दम पर तीसरी बार लगातार बहुमत का आंकड़ा छूने से पिछड़ गई। भाजपा को जिन 4 प्रदेशों में सर्वाधिक क्षति पहुंची, उसमें संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है। यहां की 80 लोकसभा सीटों में भाजपा इस बार 41 प्रतिशत मतों के साथ 33 सीटों पर विजयी हुई है, जोकि पिछले चुनाव की तुलना में 29 सीटें कम है। इसका सीधा लाभ समाजवादी पार्टी-कांग्रेस नीत विरोधी गठबंधन को मिला है। तीसरा, अपने बल पर बहुमत के आंकड़े से चूकने के बाद भाजपा इस बार तेलुगू देशम पार्टी (टी.डी.पी.) और जनता दल-यू (जे.डी.यू.) सहित लगभग 30 सहयोगियों पर निर्भर होकर सरकार चलाएगी। आंध्रप्रदेश में भाजपा और जन सेना पार्टी से गठबंधन करने के बाद टी.डी.पी. ने दमदार प्रदर्शन करते हुए राज्य की 175 सदस्यीय विधानसभा में अकेले दो तिहाई से अधिक अर्थात् 135 सीटें जीतकर जबरदस्त वापसी की है।
चौथा, टी.डी.पी. के अतिरिक्त बिहार में एन.डी.ए. सहयोगी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जे.डी.यू. ने भी भाजपा के साथ मिलकर शानदार प्रदर्शन किया है। इससे साबित होता है कि बिहार की राजनीति में नीतीश अब भी लोकप्रिय हैं। राजग गठबंधन के अंतर्गत भाजपा ने 17 में से 12, जे.डी.यू. ने 16 में से 12 और चिराग पासवान की पार्टी ने अपनी सभी 5 सीटों पर जीत हासिल की है। कांग्रेस-आर.जे.डी. सहित विरोधी गठजोड़ जबरदस्त प्रचार के बाद भी 10 सीटें ही जीत पाया है। पांचवां, ओडिशा में भाजपा ने कीर्तिमान रचा है। 40 प्रतिशत से अधिक मतों के साथ पार्टी ने 147 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 78 सीटें जीतकर अपने दमखम पर बहुमत प्राप्त किया है। वहीं लोकसभा में 21 में से 20 सीटें अपने नाम करके सत्तारूढ़ बीजू जनता दल (बी.जे.डी.) का सूपड़ा साफ कर दिया है। सूबे में 24 वर्षों से सत्तासीन और शारीरिक रूप से अस्वस्थ 77 वर्षीय निवर्तमान मुख्यमंत्री और बी.जे.डी. के अध्यक्ष नवीन पटनायक अब शायद ही इस पराजय से वापसी कर पाएं। ओडिशा के अतिरिक्त, अरुणाचल प्रदेश की 60 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 54 प्रतिशत मत और 46 सीटों के प्रचंड बहुमत के बल पर भाजपा सरकार बनाने में सफल हुई है।
छठा, पश्चिम बंगाल में तमाम तरह के विवाद, मुस्लिम कट्टरपंथियों के तुष्टीकरण और भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने विरोधी आई.एन.डी.आई.ए. गठबंधन और भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़कर 46 प्रतिशत मतों के साथ यहां की 42 में से 29 सीटें जीतने में सफलता प्राप्त की है। वर्ष 2014 के बाद तृणमूल का यह सबसे बेहतर प्रदर्शन है। सातवां, कौन जेल में रहेगा, इसका फैसला अदालतें करती हैं। परंतु दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस चुनाव को अपने जेल के अंदर रहने या बाहर रहने का अधिकार मतदाताओं को सौंप दिया, जिसका नतीजा यह रहा कि उनके शासित वाले दिल्ली में ‘आप’ का खाता तक नहीं खुला, तो वहीं उनकी पार्टी पंजाब में विधानसभा चुनाव (2022) का चमत्कार दोहराने में विफल हो गई और 13 में से केवल 3 सीटें ही जीत पाई।
आठवां, इस चुनाव में भाजपा की अखिल भारतीय स्वीकार्यता को और अधिक बल मिला है। केरल में पहली बार उसका खाता खुला है। यहां की त्रिशूर सीट पर भाजपा उम्मीदवार सुरेश गोपी ने वामपंथी प्रतिद्वंद्वी को 74 हजार से अधिक मतों से हराया है। तेलंगाना में भाजपा की सीटें पिछले चुनाव की तुलना में 4 से बढ़कर 8 हो गई है। आंध्रप्रदेश में 3, तो कर्नाटक में 17 सीटों पर विजयी हुई हैं। तमिलनाडु में भले ही भाजपा एक भी सीट जीतने में असफल रही हो, परंतु उसका मत प्रतिशत पहली बार 11 प्रतिशत को पार कर गया है।
आज मुस्लिम समाज के जिस ‘आक्रोश’ को भाजपा झेल रही है, ठीक उसी तरह का गुस्सा कांग्रेस का भी सह चुकी है। वर्ष 1935 के बाद अविभाजित भारत के कुछ प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी थी। तब मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की इन्हीं प्रांतीय सरकारों में तथाकथित ‘मुस्लिम अत्याचार’ पर 1937-38 में पीरपुर समिति का गठन किया था। उसने अपनी रिपोर्ट में ‘बहुसंख्यकवाद’ आदि विषयों को लेकर कांग्रेस को ‘सांप्रदायिक’ घोषित कर दिया था। बाद में अंग्रेजों और वामपंथियों के समर्थन से इन आरोपों को इस्लाम के नाम पर भारत के तकसीम का मुख्य आधार बना लिया गया था। एक सदी बाद भी मुस्लिम समाज के यह इल्जाम जस के तस हैं। तब यह आरोप इकबाल-जिन्नाह की मुस्लिम लीग ने वामपंथियों-अंग्रेजों के साथ मिलकर गांधी-पटेल-नेहरू की कांग्रेस पर लगाए थे और आज वही जहर राहुल की कांग्रेस, स्वयंभू सैकुलरवादी माक्र्स-मैकॉले मानसपुत्रों के साथ मिलकर मोदी-शाह-योगी की भाजपा पर उगल रहा है।-बलबीर पुंज