कांग्रेस अपना संगठन दुरुस्त करे

punjabkesari.in Wednesday, Aug 31, 2016 - 12:23 AM (IST)

क्या कांग्रेस को वापस लाया जा सकता है? यह सवाल मेरे सामने रखा गया। दूसरा सवाल था कि क्या यह पार्टी प्रासंगिक है। दूसरे सवाल का जवाब मैंने पहले दिया और कहा कि डेढ़ सौ साल पुराना संगठन, जिसमें आस्था रखने वाले सदस्य सुदूर गांवों में फैले हैं, अप्रासंगिक नहीं हो सकता। कांग्रेस ने आजादी के आंदोलन का नेतृत्व किया और पांच दशक तक देश पर शासन किया है।

मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे कांग्रेस के शीर्ष नेता आदर्श हैं और उनके नेतृत्व में लोगों ने जो कुर्बानियां दीं उसे मैं भूल नहीं सकता। उनकी बात का महत्व था और उनकी अपील पर लोग कहीं भी, किसी समय भी इक_ा होते थे। उस समय कांग्रेस भारत थी और भारत कांग्रेस था।

लाल बहादुर शास्त्री, जिन्होंने जवाहर लाल नेहरू के बाद सत्ता संभाली, के निधन के बाद से परिस्थितियां बदलने लगीं। मुझे शास्त्री के साथ प्रैस आफिसर के रूप में काम करने का सौभाग्य मिला था। उन्हें उत्तराधिकार को लेकर नेहरू की सोच को लेकर संदेह था और वह अक्सर कहा करते थे कि उनके दिमाग में तो उनकी पुत्री है। लेकिन शास्त्री यह भी जोड़ देते थे कि यह आसान नहीं होगा।

यह सही निकला क्योंकि नेहरू के निधन के बाद मोरारजी देसाई ने सबसे पहले दावेदारी ठोकी। कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज मोरारजी देसाई को नहीं चाहते थे क्योंकि उन्हें अडिय़ल माना जाता था और उस देश के लिए अनुदार जहां विभिन्न धर्म, जाति और क्षेत्र के लोगों के साथ सहमति बनाकर चलना जरूरी है।

नेहरू के उत्तराधिकारी शास्त्री बने, लेकिन कम समय में ही दिल का दौरा पडऩे के कारण ताशकंद में उनका निधन हो गया जहां वह पाकिस्तान के मार्शल-ला प्रशासक जनरल अयूब खान से शांति के समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए गए थे। मेरा ख्याल है कि अगर वह जिंदा रहते तो भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते सामान्य हो गए होते। मुझे याद है कि शास्त्री के अचानक निधन की जानकारी होने पर अयूब उस डाचा (शहर से दूर बने आवास) पर आए थे जिसमें रूसी लोगों ने भारत के प्रधानमंत्री को ठहराया था।

मेरे सामने जनरल अयूब ने कहा था कि ‘‘अगर वह (शास्त्री) जिंदा रहते तो भारत और पाकिस्तान लंबे समय के लिए दोस्त बन जाते।’’ अयूब ने शास्त्री की शव-पेटी को उस हवाई जहाज तक कंधा दिया था जिसमें वह दिल्ली लाई गई। मुझे लगता है कि अयूब ने पाकिस्तान की भावना को ही व्यक्त किया था क्योंकि बाद में जब उस देश की मैंने यात्रा की तो लोगों को शास्त्री की दोस्ती याद करते पाया।

खेल बिगाडऩे वाले पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो थे। वह ऐसी संधि पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहते थे जिसमें भारत और पाकिस्तान के बीच के मुद्दों का हल निकालने के लिए ङ्क्षहसा छोडऩे की बात हो। वह ताशकंद से सीधे इस्लामाबाद के लिए उड़े और यह प्रचार कर दिया कि अयूब ने देश को भारत के हाथों बेच दिया। अयूब जिस बात पर राजी हुए थे वह यही था कि भारत और पाकिस्तान के मतभेद शांति से हल किए जाएंगे।

अयूब शांति का जो मसविदा अपने साथ लाए थे उस पर शास्त्री ने उन्हीं के हाथों से लिखवाया, ‘‘हथियार का सहारा लिए बिना।’’ हाथों से लिखे गए ये शब्द भारत के राष्ट्रीय  अभिलेखागार में रखे हुए हैं। हालांकि पाकिस्तान में बहुत सारे लोग इस पर संदेह करते हैं, लेकिन वास्तविकता यही है कि अयूब ने शांति की संधि पर इसलिए हस्ताक्षर किए थे क्योंकि सेना प्रमुख के नाते उन्हें मालूम था कि युद्ध किस तरह की तबाही करता है।

इस सवाल का जवाब कठिन है कि क्या पार्टी को वापस लाया जा सकता है। कांग्रेस के पास समर्थकों के दो बड़े समुदाय थे-दलित और मुसलमान। मायावती ने उन लोगों को अलग कर लिया जिसे खुद हिन्दू धर्म ने अछूत का दर्जा दे रखा था। वास्तव में दुनिया में कोई भी धर्म ऐसा नहीं है जो अपने ही लोगों के साथ परंपरा के अंग के रूप में ऐसा भेदभाव करता है।

वास्तव में अगर हिन्दू विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि मुसलमान हिन्दू धर्म से ही धर्मांतरित हुए हैं क्योंकि इसने लोगों के साथ बराबरी का बर्ताव नहीं किया, जबकि इस्लाम ने ऐसा किया। आज जब आर.एस.एस. घर वापसी का बैनर उठाता है तो उसे यह समझना चाहिए कि ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक भारत के ग्रामीण क्षत्रों में फैली हुई अस्पृश्यता को हिन्दू त्याग न दें। अलग-अलग जातियों के लोग भले ही बिस्तर पर साथ बैठने लगे हों लेकिन अभी भी उनके कुएं और श्मशान भूमि अलग-अलग हैं।

पाकिस्तान की स्थापना के बाद मुसलमानों ने एक ऐसी पार्टी को अपनाना चाहा जो सैकुलर हो। हालांकि कांग्रेस विचारधारा में वैसी मजबूत नहीं थी जितनी वह नेहरू और पटेल के समय में थी। फिर भी मुसलमानों के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था क्योंकि कांग्रेस के बाद उनके लिए एक ही विकल्प बचता था-कम्युनिस्ट पार्टी। यह उनकी योजना में फिट नहीं बैठती थी क्योंकि वह एकदम निरंकुश और कठोरता से नियम पालन करने वाली थी।

एक ऐसे मजहब में जिसे एक पवित्र ग्रंथ के अनुसार चलना हो, छूट की बहुत कम गुंजाइश है। इस्लाम ने धर्म बदलने वालों को आकर्षित किया क्योंकि इसने लोगों को बराबरी का अनुभव कराया। हदीस (कहे हुए शब्द) की व्यक्तिगत व्याख्या की गुंजाइश है। लेकिन भक्तों का मानना है कि करीब 1400 साल पुरानी इस किताब से अलग नहीं हटा जा सकता  क्योंकि ये अल्लाह के शब्द हैं।

इसके बावजूद इतने सालों में इस्लाम में बदलाव आया है। अगर यह अपने कट्टरपन से अलग हो सकता है तो हिन्दू धर्म को आधुनिक चुनौतियों के सामने अपने को आमूल-चूल रूप से बदलने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। लेकिन दलितों के साथ भेदभाव इतना गहरा है कि मैं इस दिशा में कोई ऊंची छलांग लगाने की उम्मीद नहीं रखता। यह हिन्दुओं के सामने एक चुनौती है।

इस बारे में अभी तक के अनुभव प्रसन्नता के नहीं हैंं। चुनाव के समय कुछ अपीलें की जाती हैं और यहां तक कि कांग्रेस के शीर्ष हिन्दू नेता दलितों के घर खाना भी खाते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही यह सब अलग फैंक दिया जाता है और लोग भेदभाव के अपने पुराने खूंटे पर लौट आते हैं। अगर कांग्रेस अपना खोया प्रभाव वापस लाना चाहती है तो इसे अपना घर साफ करना पड़ेगा।

सैकुलरिज्म सिर्फ एक शब्द रह गया है और कांग्रेस के कई नेता उतने ही कट्टर हैं जितने भाजपा के उन्मादी। सैकुलरिज्म एक प्रतिबद्धता है, एक मन का स्वभाव। हमने सैकुलरिज्म को अपने संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया है, लेकिन हम इस पर अमल करने से बहुत दूर हैं। और कभी-कभी मैं महसूस करता हूं कि भारत पाकिस्तान के रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहा है जहां लोग अपने को पक्का मुसलमान साबित करने के लिए धर्म की पहचान लगाए घूमते रहते हैं।

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