नैकां से पीछा छुड़ाने लगी कांग्रेस

punjabkesari.in Tuesday, Apr 23, 2019 - 04:32 AM (IST)

जम्मू -कश्मीर की तीन लोकसभा सीटों  पर गठबंधन करके नैशनल कांफ्रैंस के साथ ‘प्यार की पींगें’ बढ़ा रहे कांग्रेस के नेता अब उससे पीछा छुड़ाने की कवायद में जुट गए हैं। जैसे ही गठबंधन वाली 3 सीटों यानी जम्मू-पुंछ, कठुआ-ऊधमपुर-डोडा और श्रीनगर-बडग़ाम पर मतदान की प्रक्रिया पूरी हुई तो नैशनल कांफ्रैंस उपाध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के ‘जम्मू-कश्मीर में अलग प्रधानमंत्री’ जैसे बयानों पर कांग्रेस के तल्ख तेवर सामने आ गए। 

इसके अलावा ‘पी.एस.ए. हटाने’ एवं  ‘1953 से पूर्व की स्थिति की बहाली’ पर भी कांग्रेस नेताओं को आपत्ति है। उल्लेखनीय है कि गठबंधन के तहत जम्मू-पुंछ एवं कठुआ-ऊधमपुर-डोडा सीटें कांग्रेस और श्रीनगर-बडग़ाम सीट नैशनल कांफ्रैंस के हिस्से में आई थीं। इसके अलावा अनंतनाग-पुलवामा, बारामूला-कुपवाड़ा और लद्दाख सीटों पर दोनों पाॢटयों के बीच दोस्ताना मुकाबले की बात कही गई थी, लेकिन बाद में अनंतनाग-पुलवामा सीट से चुनाव लड़ रहे कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष गुलाम अहमद मीर ने ‘दोस्ताना मुकाबले’ वाली बात को सिरे से नकार कर गंभीरता से मुकाबला करके जीत हासिल करने का दावा किया था। अब विजयपुर में पूर्व मंत्री एवं कांग्रेस के साम्बा जिलाध्यक्ष मनजीत सिंह ने नैशनल कांफ्रैंस के खिलाफ खुलेआम मोर्चा खोलकर दोनों पार्टियों के बीच वैचारिक खाई के और चौड़ा होने का प्रमाण दिया है। 

जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नैशनल कांफ्रैंस का संबंध बेहद पुराना है। आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय में तो दोनों पाॢटयां एक ही हुआ करती थीं और कांग्रेस के नेता भी नैशनल कांफ्रैंस के चिन्ह पर चुनाव मैदान में उतरते थे। फिर 26 जनवरी 1965 को तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की औपचारिक नींव रखी। 

बनते-बिगड़ते रिश्ते
इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शुरूआती दौर में जब शेख अब्दुल्ला ने 1967 के चुनाव के दौरान ‘तरके मवालात’ (कांग्रेस का सामाजिक बहिष्कार) का नारा दिया तो दोनों पार्टियों के बीच जबरदस्त तलवारें खिंच गईं, लेकिन 1975 के इंदिरा-शेख समझौते के बाद दोनों पार्टियों के संबंध फिर से सामान्य हो गए। हालांकि इसके बाद दोनों पार्टियों की अपनी पहचान कायम रही और अपने-अपने चुनाव चिन्ह पर अपने उम्मीदवार मैदान में उतारती थीं। इसके बाद दोनों पार्टियां कभी समझौता करके तो कभी एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ती रहीं। इस पर तंज कसते हुए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दोनों पाॢटयों को ‘नामुराद आशिक’ की संज्ञा दी थी। 

वर्ष 2009 में नैशनल कांफ्रैंस और कांग्रेस ने उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में 6 साल तक राज्य सरकार चलाई लेकिन इन 6 वर्षों में शायद ही कोई महीना ऐसा गया हो जब किसी मुद्दे को लेकर दोनों पार्टियों के बीच मतभेद न उभरे हों। कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष प्रो. सैफुद्दीन सोज पहले नैशनल कांफ्रैंस के बड़े नेता रहे थे और नैकां नेतृत्व के आदेश का उल्लंघन करके वाजपेयी सरकार को 1 वोट से गिराने के कारण पार्टी से निष्कासित किए गए थे। जब उमर अब्दुल्ला सरकार का गठबंधन हुआ तो प्रो. सोज को ही सरकार चलाने के लिए दोनों पार्टियों के बीच समन्वय स्थापित करने वाली समिति का अध्यक्ष बनाया गया था लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस समिति की सिफारिशों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। इसके चलते विवादों को हवा मिलना स्वाभाविक था। 

वर्ष 2014 में दोनों पार्टियों ने अलग-अलग विधानसभा चुनाव लड़ा और एक-दूसरे के खिलाफ खुलकर आरोप-प्रत्यारोप किया, लेकिन सत्ता से बाहर होकर परेशान हुए दोनों पार्टियों के नेता 2017 में श्रीनगर व अनंतनाग लोकसभा उपचुनाव का सुनहरा अवसर खोना नहीं चाहते थे इसलिए नैशनल कांफ्रैंस अध्यक्ष डा. फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर और कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष गुलाम अहमद मीर ने अनंतनाग क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतरने के लिए गठबंधन कर लिया। कांग्रेस का दुर्भाग्य देखिए डा. फारूक अब्दुल्ला तो श्रीनगर से जीत कर लोकसभा पहुंच गए  लेकिन सरकार की सिफारिश पर चुनाव आयोग ने सुरक्षा कारणों से अनंतनाग उपचुनाव स्थगित करने की घोषणा कर दी। 

अनोखा गठबंधन
दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस ने अपनी नीतियों को तिलांजलि देते हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में नैशनल कांफ्रैंस के साथ जो अनोखा गठबंधन किया है उसमें कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष गुलाम अहमद मीर की अनंतनाग सीट शामिल ही नहीं की गई। परिणामस्वरूप मीर को पी.डी.पी. अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के साथ-साथ नैशनल कांफ्रैंस प्रत्याशी एवं जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश हसनैन मसूदी का भी सामना करना पड़ रहा है। बहरहाल, गठबंधन वाली सीटों पर मतदान होने के कारण नैशनल कांफ्रैंस और कांग्रेस का एक-दूसरे के प्रति दृष्टिकोण बदल रहा है। देखना दिलचस्प होगा कि 23 मई को दोनों पार्टियों के गठबंधन वाली और बिना गठबंधन वाली सीटों का चुनाव परिणाम क्या रहता है और आगामी विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों  के  बीच चुनावी गठबंधन होता है अथवा नहीं।-बलराम सैनी


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News