आक्रामक चुनाव में कांग्रेस की रक्षात्मक रणनीति!

punjabkesari.in Sunday, May 05, 2024 - 05:25 AM (IST)

गांधी -नेहरू परिवार की पारंपरिक लोकसभा सीटों अमेठी और रायबरेली को लेकर जारी सस्पैंस के अंतिम क्षणों में पटाक्षेप से जवाब कम मिले, सवाल ज्यादा उठते हैं। इन सीटों पर नामांकन की अंतिम तिथि वाले दिन ही उम्मीदवारों के ऐलान से कांग्रेस की किसी सुनियोजित रणनीति के बजाय कन्फ्यूजन का संदेश ज्यादा गया। केरल में वायनाड से लगातार दूसरी बार चुनाव लड़ रहे पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अब रायबरेली से भी लड़ेंगे। 2004 से 2019 तक रायबरेली से लगातार 5 बार जीतीं सोनिया गांधी ने बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य कारणों से इस बार राजस्थान से राज्यसभा में चुने जाने का विकल्प चुना। 

पिछली बार 2 सीटों से चुनाव लड़े राहुल वायनाड से तो जीत गए, लेकिन अपनी परम्परागत सीट अमेठी से, लगातार 3 बार जीतने के बाद, स्मृति ईरानी से लगभग 55 हजार वोटों से हार गए। इसीलिए लंबे अर्से से गांधी-नेहरू परिवार की पारंपरिक सीटें रहीं अमेठी और रायबरेली को लेकर राजनीतिक गलियारों से लेकर मीडिया तक में अटकलों का बाजार गर्म था। चर्चाएं रहीं कि वायनाड में मतदान हो जाने के बाद राहुल अमेठी से ताल ठोकेंगे, जबकि प्रियंका गांधी अपनी चुनावी राजनीति की शुरूआत रायबरेली से कर सकती हैं। 

पिछले दिनों कांग्रेस सूत्रों के हवाले से यह खबर भी आई कि राहुल-प्रियंका के असमंजस के बीच खुद सोनिया गांधी ने दोनों से फोन पर बात की है। यह भी बताया गया कि सोनिया ने यहां तक कहा है कि उन दोनों के चुनाव न लडऩे का अर्थ दोनों सीटें भाजपा को थाली में रख कर दे देने जैसा होगा। पर 3 मई को नामांकन के अंतिम दिन कांग्रेस ने ऐलान किया कि राहुल, रायबरेली से लड़ेंगे, जबकि अमेठी से गांधी-नेहरू परिवार के निष्ठावान रहे किशोरी लाल शर्मा चुनाव लड़ेंगे। 

मूलत: पंजाब से आने वाले किशोरी लाल शर्मा दशकों से अमेठी और रायबरेली लोकसभा क्षेत्रों में, वहां से गांधी-नेहरू परिवार के निर्वाचित सांसदों के प्रतिनिधि के रूप में राजनीतिक कामकाज देखते रहे हैं। कोई राजनीतिक दल अपने निष्ठावान को पुरस्कृत करे, यह अच्छी बात है, पर क्या शर्मा के लिए रायबरेली ज्यादा आसान सीट नहीं होती? वहां से भाजपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे दिनेश प्रताप सिंह पुराने कांग्रेसी हैं, और पिछले लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी के विरुद्ध हार चुके हैं। ऐसे में राहुल के खुद रायबरेली से लडऩे और किशोरी लाल शर्मा को अमेठी में स्मृति ईरानी के विरुद्ध लड़वाने से बहुत सकारात्मक राजनीतिक संदेश नहीं गया है। राहुल को हरा चुकी स्मृति को शर्मा कड़ी टक्कर दे पाएंगे- ऐसा मानने का फिलहाल तो कोई आधार नहीं दिखता। 

बेशक राहुल के पास वायनाड के मतदाताओं के प्रति प्रतिबद्धता के आधार पर किसी भी दूसरी सीट से चुनाव न लडऩे का बेहतर नैतिक आधार हो सकता था, लेकिन रायबरेली से लड़ कर उन्होंने उसे भी गंवा दिया। अगर 2 सीटों से ही चुनाव लड़ रहे हैं, तब अपनी परंपरागत सीट छोड़ कर रायबरेली जाने से भाजपा को यह प्रचार करने का मौका उन्होंने खुद उपलब्ध कराया है कि वह डर गए। माना कि अमेठी से राहुल की जीत तय नहीं थी, पर हार तय मान लेने का क्या कारण रहा? अब भाजपा के इस प्रचार की राहुल और कांग्रेस कैसे काट करेंगे? 

सवाल यह भी है कि 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का नारा देने वाली प्रियंका अब मौका आने पर क्यों पीछे हट गईं? उम्मीद यही थी कि भारत जोड़ो यात्रा से हासिल आत्मविश्वास के बल पर राहुल फिर अमेठी से ही ताल ठोकेंगे, जबकि बेटी रायबरेली में मां की विरासत संभालेगी। अब तर्क दिया जा रहा है कि परिवार के सभी सदस्यों का चुनाव लडऩा सही नहीं होता। अगर सभी सदस्य सक्रिय राजनीति में आ सकते हैं, तब चुनाव भी लड़ लेने में क्या समस्या है? एक ओर यह तर्क दिया जा रहा है, तो दूसरी ओर प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा तक मीडिया इंटरव्यू के जरिये चुनाव लडऩे की अपनी इच्छा जताते रहे हैं। 

सवाल यह भी है कि अगर राहुल दोनों सीटों से जीत गए तो उनके द्वारा खाली की जाने वाली सीट से क्या कोई पारिवारिक सदस्य चुनाव नहीं लड़ेगा? सीधा सवाल पूछें तो क्या दोनों जगह से जीत की स्थिति में राहुल द्वारा खाली की जाने वाली सीट से प्रियंका चुनाव नहीं लड़ेंगी? और क्या वह कभी चुनावी राजनीति में नहीं आना चाहतीं? बेशक कांग्रेस और राहुल गांधी को अपनी रणनीति तय करने का अधिकार है, लेकिन सार्वजनिक जीवन के फैसले पूरी तरह व्यक्तिगत नहीं हो सकते। उन पर टीका-टिप्पणी होगी ही क्योंकि उनका प्रभाव व्यापक होता है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा पूर्ण सहयोग के आश्वासन के बावजूद अमेठी-रायबरेली की बाबत इन फैसलों से कांग्रेस की रक्षात्मक रणनीति का नकारात्मक संदेश ही गया है। इससे पहले सूरत एवं इंदौर में ‘जयचंद-प्रकरण’ और दिल्ली में बगावत तथा पश्चिम बंगाल में अधीर रंजन चौधरी सरीखे वरिष्ठ नेता की ‘टी.एम.सी. से बेहतर होगा भाजपा को वोट देना’ जैसी अपील से भी कांग्रेस के राजनीतिक प्रबंधन पर गंभीर सवाल उठे हैं। 

फिर भला विपक्ष का सबसे बड़ा दल होने के बावजूद कांग्रेस ने ऐसी रक्षात्मक रणनीति से नकारात्मक चुनावी राजनीतिक संदेश का जोखिम क्यों उठाया? चुनावी आकलन के दौरान यह आशंका जताई जाती रही है कि विपक्षी दलों के आधे-अधूरे बने ‘इंडिया’ गठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी कांग्रेस ही साबित हो सकती है, क्योंकि लगभग 200 सीटों पर उसका भाजपा से सीधा मुकाबला होता है। क्षेत्रीय दल पहले भी भाजपा के विरुद्ध अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं। ऐसे में अंतिम परिणाम बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि खुद कांग्रेस, भाजपा के विरुद्ध कैसा चुनावी प्रदर्शन करेगी। अभी तक के संकेत बहुत सकारात्मक तो नहीं हैं।-राज कुमार सिंह
 


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