भाजपा ने विपक्ष को ‘बांटने की कला’ सीख ली

punjabkesari.in Tuesday, Sep 29, 2020 - 03:10 AM (IST)

भाजपा अब अपनी प्रमुख सहयोगी पार्टियों से मेल-मिलाप के बिना रहना चाहती है। शनिवार को इसकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा नेतृत्व वाले राजग गठबंधन से किनारा कर लिया है। लोकसभा में इसके पास अच्छा बहुमत होने के साथ भाजपा का व्यवहार अब ‘‘जाएं अगर आप जाना चाहते हैं’’ वाला हो गया है। यही कारण है कि नाराज सहयोगियों को मनाने का कोई प्रयास नहीं हो रहा जैसा कि यह दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय में हुआ था। 80 के दशक का ऐसा भी समय था जब भाजपा के लिए सहयोगी तलाशना मुश्किल था। मगर आज ऐसा समय है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बहुत ही सशक्त स्थिति में हैं। 

दो वर्ष पूर्व भाजपा के पास पांच प्रमुख सहयोगी पार्टियां थीं। उनमें तेलगू देशम पार्टी, शिवसेना, अकाली दल, जद (यू) तथा पी.डी.पी. जैसी पार्टियों शामिल थीं। क्योंकि बिहार के चुनाव सिर पर हैं, भाजपा के पास प्रमुख सहयोगी के तौर पर जद (यू) ही है। अन्य छोटे दल हैं। इनमें तेलगू देशम ने मार्च, 2018 में सबसे पहले भाजपा को अलविदा कहा था। उसके बाद एक और पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना ने अक्तूबर, 2019 में भाजपा से महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री पद के मुद्दे पर नाता तोड़ लिया। हालांकि शिवसेना ने पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में कांग्रेस तथा राकांपा के समर्थन से सरकार का गठन किया। शिअद ने अब विवादास्पद कृषि बिलों को लेकर राजग को छोड़ा है। भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में मात्र पी.डी.पी. को दरकिनार किया था। भाजपा-पी.डी.पी. गठबंधन के बारे में पार्टी के प्रमुख मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा था, ‘‘एक ऐसा गठबंधन जो उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रुव के बीच।’’ 

शिअद प्रमुख सुखबीर बादल ने कहा, ‘‘राजग कहां है?’’
भाजपा के साथ सहयोगी पार्टियां इस दावे को लेकर नाखुश हैं कि प्रमुख मुद्दों के बारे में सूचित किए बिना उनसे विचार-विमर्श ही नहीं किया जाता। शिअद प्रमुख सुखबीर बादल ने कहा, ‘‘राजग कहां है?’’ वाजपेयी के समय की तुलना में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में रिश्ते बदल चुके हैं। वाजपेयी के समय सहयोगियों में से एक राजग का कन्वीनर होता था जबकि वाजपेयी या उसके बाद अडवानी गठबंधन के चेयरमैन थे। महत्वपूर्ण मुद्दों पर राजग की बैठकें होती थीं। 

हालांकि पी.एम. मोदी ने सहयोगियों के प्रतिनिधियों को शामिल किया है। बावजूद इसके कि भाजपा के पास 2014 और 2019 में बहुमत था, यहां पर कोई भी औपचारिक राजग ढांचा नहीं है मगर भाजपा को विधेयकों को आगे बढ़ाने के लिए राज्यसभा में सहयोगियों की जरूरत है जहां पर यह बहुमत में है। मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने विपक्ष को बांटने की कला को सीख लिया है। सरकार ने हाल ही के दो कृषि बिलों तथा इससे पूर्व नागरिकता संशोधन विधेयक जैसे विवादास्पद बिलों को आगे बढ़ाया था। पंजाब विधानसभा चुनाव 2022 में होने हैं तथा लोकसभा चुनाव 2024 में होने हैं। उस समय किसके साथ क्या होगा, यह कौन जानता है? हालांकि अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, आगामी चुनावों में अकेले ही चुनाव लड़ कर भाजपा अपनी कार्यकुशलता को और सुधारना चाहती है। 

भाजपा अब सबसे अमीर पार्टी बन गई है
भाजपा को लेकर सहयोगियों का बुड़बुड़ाना इस कारण भी है कि महाराष्ट्र तथा पंजाब में जूनियर पार्टनर होने के बावजूद भाजपा ने पिछले 6 वर्षों के दौरान अपने आधार को विस्तृत किया है तथा सहयोगियों को पीछे धकेला है। उनका यह भी कहना है कि भाजपा अब सबसे अमीर पार्टी बन गई है। इसके बावजूद कि भाजपा अपने सहयोगियों की ङ्क्षचता करे, इसने आक्रामक रुख अपनाते हुए अन्य राज्यों में सत्ता में आने की महत्वाकांक्षा दिखाई जहां पर पार्टी सत्ता में नहीं है। 

अपने सहयोगियों के मतों को भी निगल जाना चाहती है भाजपा 
पार्टी का मुख्य उद्देश्य हिन्दू मतदाताओं को और मजबूत करने का है। इसके लिए वह अपने सहयोगियों के मतों को भी निगल जाना चाहती है। बड़े राज्यों में इसकी प्रमुख उपस्थिति है तथा अब अपने विस्तार के लिए इसकी निगाह दक्षिण तथा पूर्वोत्तर पर टिकी हुई है। त्रिपुरा में इसने लैफ्ट को बदला है तथा पश्चिम बंगाल में यह कांग्रेस से आगे है। इसके अलावा ओडिशा भाजपा के लिए मुख्य चुनौती है। 

17वीं लोकसभा में राजग के पास कुल 335 सदस्य हैं जिसमें से अकेली भाजपा के 303 सदस्य हैं। 334 सीटों में इसे सहयोगियों की जरूरत ही नहीं। 2014 में जब भाजपा सत्ता में आई इसके पास उस समय राज्यसभा में 23 सीटें थीं मगर आज इसके पास 87 सीटें हैं। विपक्ष को बांट कर भाजपा ने जम्मू-कश्मीर के विभाजन तथा सी.ए.ए. जैसे विवादास्पद बिलों को आगे बढ़ाया था। इसी तरह से 3 कृषि बिलों को भी पास करवाया गया। 

मोदी सरकार ऐसा सहयोग चाहती है जिसमें भाजपा को फायदा ही फायदा मिले। महाराष्ट्र में यह शिवसेना से आगे निकल चुकी है तथा अन्य राज्यों में इसने अपनी चुनावी संभावनाओं को बढ़ाया है। भाजपा अपना आधार बढ़ाना चाहती है तथा अब समय अकेले चलने का है। भाजपा का उच्च नेतृत्व पार्टी का सशक्त चुनावी आधार चाहता है। राजनीति में कोई भी स्थायी दोस्त नहीं, न ही स्थायी दुश्मन है। इसके साथ नए सहयोगी दल भी जुड़ेंगे और पुराने इससे टूटेंगे। यदि हम गठबंधन की राजनीति को देखें जिसे प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और भाजपा ने अपनाया था, अब अच्छे आकार में नहीं।-कल्याणी शंकर
  


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