एक ‘दब्बू’ किस्म की न्यायपालिका चाहती है भाजपा सरकार

punjabkesari.in Thursday, May 10, 2018 - 03:51 AM (IST)

लम्बे समय से जिस मनहूस सच्चाई की आशंका थी, वह अब आखिर खुलकर सामने आ गई है कि भाजपा एक दब्बू किस्म की न्यायपालिका चाहती है।न्यायमूर्ति के.एम. जोसफ की सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में नियुक्ति के विरुद्ध केन्द्रीय कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने एक के बाद जो एतराज उठाए हैं वे ओछे तथा त्रुटिपूर्ण हैं। 

इस समय उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में तैनात जस्टिस जोसफ ने उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू करने के केन्द्र सरकार के आदेश को रद्द कर दिया था। उनका नाम सुप्रीम कोर्ट के 5 वरिष्ठ जजों के कालेजियम द्वारा वकील इंदू मल्होत्रा सहित सर्वसम्मति से सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में अनुशंसित किया गया था लेकिन भाजपा सरकार जस्टिस जोसफ की सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में पदोन्नति को हजम नहीं कर पाई क्योंकि उन्होंने कांग्रेस सरकार को बहाल करने के अपने फैसले से सत्ताधीशों की नाराजगी मोल ली थी। 

जस्टिस जोसफ की सुप्रीम कोर्ट की नियुक्ति पर एतराज उठाकर रवि शंकर प्रसाद ने कई अनियमित और अनुचित बातें कीं। सर्वप्रथम तो उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ अपने पत्र व्यवहार को सार्वजनिक कर दिया। इसमें उन्होंने जस्टिस जोसफ की नियुक्ति के विरुद्ध उठाए एतराजों को कलमबद्ध किया था। मुख्य न्यायाधीश को कानून मंत्री द्वारा लिखा गया कोई पत्र एक विशेषाधिकार सम्पन्न पत्र व्यवहार होता है और इसको इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। स्मरण रहे कि राज्यसभा के सभापति के रूप में वेंकैया नायडू ने राज्यसभा के विपक्षी सांसदों द्वारा हस्ताक्षरित मर्यादा प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इसके लिए उन्होंने एक कारण यह बताया था कि ये सदस्य मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध अपने आरोप सम्वाददाता सम्मेलन में उजागर कर चुके थे। इस सार्वजनिक खुलासे को राज्यसभा के विपक्षी सांसदों का अशोभनीय व्यवहार माना गया था। फिर भी जब कानून मंत्री ने अनुचित व्यवहार किया तो भाजपा में हर किसी के होंठ सिले रहे। 

मुख्य न्यायाधीश को भेजे अपने पत्र में प्रसाद ने यह दलील दी थी कि अखिल भारतीय वरीयता सूची में जस्टिस जोसफ का 42वां स्थान था और उन्हें पदोन्नति देने का एक अर्थ यह होगा कि इसके फलस्वरूप सुप्रीम कोर्ट में केरल से संबंधित जजों की संख्या 2 हो जाएगी। गौरतलब है कि वर्तमान में हाईकोर्टों के 11 मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जोसफ से अधिक वरिष्ठ हैं। इन दलीलों के विरुद्ध पहला तर्क यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के संबंध में पदोन्नति हेतु राज्यों के लिए कोई ‘कोटा सिस्टम’ नहीं है। वर्तमान में दिल्ली सुप्रीम कोर्ट में 4 जज ऐसे हैं  जो बाम्बे हाईकोर्ट से आए हैं और 3 दिल्ली हाईकोर्ट से आए हैं। ऐसे में प्रसाद का यह एतराज बिल्कुल ही तर्कसंगत नहीं। दूसरा तर्क है सीनियोरिटी की रैंकिंग के बारे में। कालेजियम द्वारा जब सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति हेतु हाईकोर्ट के किसी जज की सिफारिश की जाती है तो सीनियोरिटी ही एकमात्र कसौटी नहीं होती। कालेजियम की सिफारिश में स्पष्ट कहा गया है: 

‘‘केरल हाईकोर्ट से संबंधित जस्टिस के.एम. जोसफ जोकि वर्तमान में उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हैं, हाईकोर्टों के अन्य वरिष्ठ जजों तथा मुख्य जजों की तुलना में हर लिहाज से अधिक उपयुक्त तथा काबिल हैं। जस्टिस के.एम. जोसफ के नाम की सिफारिश करते हुए कालेजियम ने अखिल भारतीय स्तर पर हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों तथा अन्य वरिष्ठ जजों की सीनियोरिटी के साथ-साथ उनकी मैरिट तथा बेदाग छवि व सिद्धांतप्रियता का भी संज्ञान लिया है।’’ 

कालेजियम की स्पष्ट और दो टूक टिप्पणी के बाद क्या रवि शंकर प्रसाद के पास जस्टिस जोसफ की सीनियोरिटी पर सवाल उठाने या कोई अन्य ओछा एतराज प्रस्तुत करने के लिए कोई आधार रह जाता है? इसकी केवल एक ही व्याख्या की जा सकती है कि वह और उनकी सरकार केवल ऐसे जज चाहते हैं जो सत्तारूढ़ पार्टी को पसंद हों। यही वह रवैया है जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं ईमानदारी के लिए चुनौती बनता है तथा न्यायप्रणाली में सेंध लगाता है जबकि न्यायपालिका को राज्यसभा में मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग से कोई आंच नहीं आने वाली। यदि कालेजियम दोबारा जस्टिस जोसफ के नाम की पुुष्टि कर देता है और इसे फिर से केन्द्र सरकार के पास भेज देता है जैसे कि सम्भावना है, तो रवि शंकर प्रसाद और उनके बॉस को यह अनुशंसा स्वीकार करनी ही पड़ेगी। इससे दोनों की किरकरी होगी। हालांकि इसे बहुत आसानी से टाला जा सकता था। 

उल्लेखनीय बात यह है कि भारत के कई सेवानिवृत्त मुख्य जजों एवं अन्य वरिष्ठ जजों ने जस्टिस जोसफ की सुप्रीम कोर्ट के लिए पदोन्नति रोकने के केन्द्र के प्रयासों की आलोचना की है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण का कहना है: ‘‘केन्द्र की चाल एक सार्वजनिक स्कैंडल बन गई है, खास तौर पर इसलिए कि मीडिया ने मैडीकल कालेज घोटाले, जस्टिस लोया मामले एवं मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध 4 जजों की प्रैस कांफ्रैंस को खूब जोर-शोर से उछाला है।’’ भूषण ने सवाल उठाया है: ‘‘क्या हम पूरी सुप्रीम कोर्ट के आंतरिक रूप में हो रहे क्षरण के मूकदर्शक बने रहें?’’ उनका तो मानना है कि न्यायपालिका पहले ही बदनाम हो रही है। जब सत्ता पर काबिज पार्टी, जिसके पास प्रचुर बहुमत हो, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और गरिमा में अपने संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्यों या न्यायपालिका के सदस्यों के साथ निजी रंजिश के चलते सेंध लगाती है तो इससे सम्पूर्ण न्यायप्रणाली के ढांचे को आघात पहुंचता है। 

यदि कालांतर में भाजपा सरकार जस्टिस जोसफ की नियुक्ति को अड़ंगा लगाने में सफल हो जाती है तो जनता की नजरों में केवल इसकी अपनी विश्वनीयता का ही नुक्सान होगा। न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग केवल इसलिए किया गया था कि कार्यपालिका इसके कामकाज में अकारण हस्तक्षेप न कर सके। संविधान की धारा 50 में कहा गया है : ‘‘कार्यपालिका से न्यायपालिका की अलहदगी: सत्तातंत्र की सार्वजनिक सेवाओं में सत्ता व्यवस्था को कार्यपालिका को न्यायपालिका से अलग रखने के लिए कदम उठाने होंगे।’ संविधान ने सत्तातंत्र के तीन अंगों का सृजन किया है-विधानपालिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका। इन तीनों के क्षेत्राधिकारों को भी प्रभावित किया गया है।

यह उम्मीद की गई है कि तीनों संस्थान लयबद्ध ढंग से काम करेंगे और एक-दूसरे के प्राधिकार के क्षेत्र का सम्मान करेंगे। यदि कोई विवाद पैदा होता है तो सभी पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बाध्यकारी होगा। संविधान के निर्माताओं ने ऐसी किसी सम्भावना की परिकल्पना ही नहीं की थी जब भविष्य की सरकारें न्यायपालिका को कार्यपालिका का दुमछल्ला बनाने के प्रयास करेंगी। आज के भारत में कार्यपालिका की मनमानियों के विरुद्ध न्याय और राहत हासिल करने तथा संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए अदालत ही किसी नागरिक की अंतिम शरणगाह है। ऐसे में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को गच्चा देने का कोई भी प्रयास गणतंत्र के सम्पूर्ण लोकतांत्रिक ढांचे को पटखनी देने के तुल्य होगा और इस प्रकार के किसी भी प्रयास के विरुद्ध दृढ़ता से लड़ते हुए इसे पराजित करना होगा।-बरुण दास गुप्त


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Pardeep

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