क्या मुसलमान हिन्दू बहुल समाज की संस्कृति का अंग नहीं

punjabkesari.in Tuesday, May 28, 2024 - 06:42 AM (IST)

वर्तमान लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा नेताओं ने अंध राष्ट्रवाद को एक महत्वपूर्ण मुद्दे के तौर पर उभारने के प्रयत्नों के अंतर्गत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सर्वोत्तम और सच्चा राष्ट्र भक्त होने का खिताब देते हुए पिछले 10 वर्षों के उनके 2 कार्यकालों को सबसे बेहतरीन समय बताया है। इस कहानी की पृष्ठभूमि में देश में जन्मे 20 करोड़ से अधिक मुसलमानों को देश द्रोही घोषित करने का बड़ा फरेबी मकसद छिपा हुआ है। फिर भी यह तसल्ली की बात है कि इस बार भारतीय मतदाताओं की एक बड़ी गिनती ने संघ परिवार की ओर से बुने गए तथाकथित राष्ट्रवाद के उक्त जाल में उलझने से किनारा करते हुए अपने मत का इस्तेमाल बड़े ही विवेक से किया है। 

भारत ही नहीं विश्व भर में जब कभी भी लोक विरोधी सरकारों का असली चेहरा आम लोगों में बेनकाब होता है तो सत्ताधारी अंध राष्ट्रवाद की आड़ में देश की सुरक्षा और मजबूत सैन्य शक्ति जैसे विषयों को तूल देकर लोक राय को प्रभावित करने के यत्न करते हैं। सच्चे राष्ट्रवाद का सवाल केवल संबंधित देश के भौगोलिक अस्तित्व के साथ ही नहीं बल्कि वहां के लोगों की मानसिकता के साथ भी बंधा हुआ है। मिसाल के तौर पर यदि भारत के 140 करोड़ लोगों के दिलों में सच्ची राष्ट्रवादी भावनाओं का संचार करना है तो यह लाजिमी है कि खूबसूरत जीवन जीने की उनकी आशाओं की पूर्ति करनी होगी। 

कम से कम नेताओं के हाव-भाव से इस मिशन को पूरा करने के लिए जरूरी गंभीरता और ईमानदारी तो अवश्य ही नजर आनी चाहिए। यदि ज्यादा कुछ न किया जा सके तो जनसाधारण की रोजी-रोटी, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और सामाजिक सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए विशेष ध्यान देना होगा क्योंकि किसी देश के समस्त लोगों का खुशहाल होना ही वहां की सुरक्षा और मजबूती की गारंटी बन सकता है।

यह सच्ची राष्ट्रवाद की भावना ही थी जिसने अंग्रेजों की गुलामी का जाल उतारने के लिए टुकड़ों में बंटे विभिन्न धर्मों, जातियों, समुदायों को एक धागे में पिरो दिया। इस सच्चे राष्ट्रवाद का उद्देश्य अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा हासिल करके स्वतंत्र भारत की स्थापना करना था। राष्ट्रवाद की इस भावना को कमजोर करने के लिए साम्राज्यवादी अंग्रेजी हुकूमत ने लोगों में धर्म-जाति आदि के नाम पर फूट डालने का हरसंभव यत्न किया। अपने इन्हीं प्रयत्नों के चलते साम्राज्यवादी ताकतों ने हिन्दू-मुसलमानों और सिखों में ऐसे-ऐसे संगठन खड़े कर दिए जो अंग्रेजी साम्राज्य की गुलामी के खात्मे  की तुलना में धर्म आधारित अलग देश की स्थापना को प्राथमिकता देते थे। 

आर.एस.एस. ने अंग्रेजी साम्राज्य की गुलामी से मुक्त होने के स्थान पर मुसलमानों से छुटकारा हासिल करके धर्म आधारित एक कट्टर हिन्दू राष्ट्र को कायम करने के अपने मकसद की घोषणा की। एक ओर कुछ ऐसे लोग हैं जो हर किस्म के धार्मिक, जात-पात तथा अन्य मतभेदों से ऊपर उठकर अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्रता हासिल करने के लिए लड़े जबकि दूसरी ओर धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले ऐसे संगठन हैं जो साम्राज्यवादी ताकतों का साथ देते हुए देश के साथ धोखा करते आए हैं। 

पहली किस्म के लोग सच्चे और दूसरी किस्म के लोग छद्म भेष में या फिर कहें तो फर्जी राष्ट्रवादियों की श्रेणी में आते हैं। आज समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वे शक्तियां जो अंग्रेजी साम्राज्य के साथ घुल-मिल गई थीं, आज भारतीय सत्ता पर विराजमान होने में सफल हो गई हैं। सच्चाई यह है कि ऐसे लोगों के भड़काऊ नारों और बयानों ने समाज को बांटने का काम किया है। क्या इस तथ्य से इंकार किया जा सकता है कि विदेशों से आकर भारत में बसे मुसलमानों ने इस देश की गंगा, यमुना तहजीब को अपनाकर अपना असली ठिकाना भारत की मिट्टी को बना लिया है। क्या ये सभी लोग हमारे हिन्दू बहुल समाज की संस्कृति का अंग नहीं हैं? 

ऐसे लोगों की धार्मिक मान्यताएं बेशक अलग हैं परन्तु हर कठिन समय में ये लोग देश के साथ खड़े होते हैं। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने वाले लोगों में मुसलमानों की हिस्सेदारी दूसरे धर्मों के लोगों से अधिक थी। 1947 में हुए बंटवारे के समय भी साम्प्रदायिक दंगों के बावजूद जम्मू-कश्मीर सहित भारत के ज्यादातर प्रांतों के मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने की जगह अपनी मातृभूमि भारत को  अपना कहा। पाकिस्तान के साथ हुए 3 युद्धों के दौरान क्या भारतीय सेना के मुसलमान अधिकारियों और जवानों ने सच्ची देशभक्ति का सबूत देते हुए भारत की ओर से की गई  सैन्य कार्रवाइयों में सच्चे दिल से अपनी जानें न्यौछावर नहीं कीं? ऐसे लोग जो साम्प्रदायिक सोच के आधार पर आतंकी या हिंसक कार्रवाइयों में शामिल होते हैं वे तो हर धर्म में मौजूद हैं। 

कुछ स्वार्थी तत्वों की ओर से जानबूझ कर स्थिति को बिगाडऩे के यत्न किए गए। मगर क्या ऐसे समय में भारतीय लोगों के बड़े हिस्से ने साम्प्रदायिक सद्भावना और शांति बनाए रखने के लिए अपना योगदान नहीं डाला। पंजाब में खालिस्तानी लहर के काले दौर के समय देश विरोधी साम्प्रदायिक और हिंसक तत्वों के खिलाफ डट कर लोहा लेने वाले बाकी लोगों के साथ कम्युनिस्ट कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे। 300 से ज्यादा श्रेष्ठ कम्युनिस्ट नेताओं और वर्करों ने शहादत का जाम पिया था। कोई भी राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन जो देशभक्ति या राष्ट्रवाद को साम्प्रदायिक नजरिए के साथ देखता है वह सही मायनों में राष्ट्रवादी कहलाने का हकदार नहीं है। स्पष्ट तौर पर यह कहना चाहिए कि लोक हितों के विपरीत कार्य करने वाला कोई भी दल या व्यक्ति राष्ट्रवादी हो ही नहीं सकता।-मंगत राम पासला


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