समाज के मूल दर्द ‘सामाजिक उत्पीड़न’ के मुद्दे को मायावती अलविदा कह गई

punjabkesari.in Monday, Jun 17, 2024 - 05:41 AM (IST)

इस बार का लोकसभा चुनाव बहुत ही अनोखी और जटिल स्थिति में सामने आया है। मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने के लिए सत्तारूढ़ गठबंधन की मुख्य भागीदार भाजपा ने भारी प्रचार के माध्यम से लोगों को यह समझाने का हरसंभव प्रयास किया है कि पिछली लोकसभा में पार्टी की 303 सीटों के मुकाबले इस बार वह कम से कम 370 सीटें जीतेगी और एन.डी.ए. गठबंधन 400 सीटों का आंकड़ा पार करेगा। भले ही भाजपा ने चुनाव अभियान को साम्प्रदायिक मुद्दों के इर्द-गिर्द केंद्रित करने की पूरी कोशिश की लेकिन यह ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं की महानता ही कही जाएगी जिन्होंने संघ की विचारधारा का खंडन करते हुए महंगाई, बेरोजगारी, अग्रिपथ योजना जैसे बुनियादी मुद्दे उठाए। 

कृषि संकट लोगों के सामने पेश किया गया। आजाद भारत के सबसे बड़े राजनीतिक घोटाले इलैक्शन बांड स्कीम पर सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं रह गई कि भाजपा के पास पैसे की कोई कमी नहीं है। इस योजना को न सिर्फ सुप्रीमकोर्ट ने अपने फैसले से रद्द कर दिया बल्कि सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद भारतीय स्टेट बैंक को यह खुलासा करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि कौन-सी कंपनियां, कार्पोरेट घराने इन चुनावी बांड के जरिए कितना काला धन कमा रहे हैं। दूसरी ओर गैर-भाजपा विपक्षी दलों ने मोदी शाह सरकार और संघ-भाजपा की साम्प्रदायिक-फासीवादी विचारधारा के भीतर एक धर्म आधारित गैर-जन राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने की असंभव योजना पर विचार किया और एकजुट हुए। भाजपा के नेतृत्व वाले एन.डी.ए. गठबंधन को चुनाव में हराने का संकल्प लिया गया। 

यह कोई आसान काम नहीं था। विपक्षी दलों द्वारा अपने पिछले कार्यकाल के दौरान अपनाई गई जन  समर्थक आॢथक नीतियों का अभाव, आपसी प्रतिद्वंद्विता और सत्ता की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकलने की महत्वाकांक्षा आदि ऐसी एकता स्थापित करने की राह में बड़ी कठिनाइयां थीं। इसके साथ ही सत्ताधारी गुट के सारे हथियार ‘साम-दंड-भेद’ का इस्तेमाल करते हुए विपक्षी दलों के नेताओं को जेल भेजने का डर दिखाकर उनका पाला बदला जा रहा था और सरकारी पद भी उपहार में दिए जा रहे थे। विपक्षी दलों, विशेषकर बड़ी पार्टी कांग्रेस के बैंक खातों को फ्रीज करने का सरकार का कदम दिखाता है कि संघ के इशारे पर भाजपा अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए किस हद तक जा सकती है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिन्होंने गैर-भाजपा विपक्षी दलों को एकजुट करने का बीड़ा उठाया, उन्हें पार्टी गठबंधन को मजबूत करने के बजाय अवसरवादी राजनीति और दल-बदल के माध्यम से सत्ता से चिपके रहने की आदत है और जल्द ही वह भाजपा गठबंधन के दायरे में आ गए। 

दूसरी ओर बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी समाज के मूल दर्द ‘सामाजिक उत्पीडऩ’ के मुद्दे को अलविदा कह कर मनुवादी विचारधारा की सबसे बड़ी अनुयायी भाजपा के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से गठबंधन करने का खेल जारी रखा। यह सोचने की बात है कि दलित और पिछड़े समाज के उन लाखों मिशनरी कार्यकत्र्ताओं की मानसिक व्यथा आज क्या होगी जिन्होंने बाबू कांशीराम के नेतृत्व में, बाबा साहेब डा. अम्बेदकर के नक्शे कदम पर चलते हुए भूखे पेट पैदल या साइकिलों के द्वारा घर-घर जाकर बहुजन समाज को स्वाभिमानी जीवन जीने के लिए जागरूक किया। 

बसपा के वर्तमान नेतृत्व की उक्त आत्मघाती रणनीति के कारण ही वह अपने सपनों को पूरा करने वाली पार्टी होने का भ्रम पैदा कर मालामाल हो गई है। अपने 10 वर्षों के कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को निरस्त करने, अयोध्या में श्री राम मंदिर के निर्माण और समान नागरिक संहिता (यू.सी.सी.) जैसे मुद्दों का इस्तेमाल धार्मिक विभाजन और समग्रता को तेज करने के लिए किया। देश का माहौल साम्प्रदायिक था, जो देश विरोधी कृत्य हरसंभव तरीके से किया गया था। वह अब पूरी तरह उजागर हो चुका है। इस कार्य के लिए संघ-भाजपा, आई.टी. सैल और प्रिंट मीडिया का एक हिस्सा यहां तक कि सोशल मीडिया के वैश्विक मालिकों को भी खरीद लिया गया है। 

उल्लेखनीय बात यह रही कि भारत के चुनाव आयोग जिस पर शांतिपूर्ण, पारदर्शी और निष्पक्ष चुनाव करवाने की प्रमुख जिम्मेदारी है, ने सत्तारूढ़ गुट द्वारा चुनाव संहिता के उल्लंघन पर कोई ध्यान नहीं दिया। विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा की गई शिकायतों को उचित ढंग से सुनने और आवश्यक कार्रवाई करने के तमाम प्रयासों के बावजूद चुनाव आयोग की चुप्पी भारतीय चुनाव प्रणाली में इतना गंभीर दोष है कि इससे जनता की राजनीतिक व्यवस्था का अस्तित्व ही खत्म हो गया। हालांकि भारतीय मतदाताओं द्वारा अपने विवेक का उपयोग करके दिए गए महान जनादेश की भी सराहना की जानी चाहिए। 

चुनाव नतीजों के बाद दिल्ली में भाजपा मुख्यालय पर हुई रैली में नरेन्द्र मोदी के भाषण के दौरान और सोशल मीडिया के माध्यम से संघ समर्थकों ने भाजपा को वोट न देने वाले ङ्क्षहदू वोटरों के खिलाफ बेहद गंभीर अपशब्द कहे। वह उसी तानाशाही मानसिकता का प्रतीक है,जिसका शिकार साम्प्रदायिक और फासीवादियों के हाथ में सत्ता जाने पर पूरे समाज को होना पड़ता है।-मंगत राम पासला


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