क्या आतंकियों की ‘काफिर-कुफ्र’ की लड़ाई ऐसे ही जारी रहेगी

punjabkesari.in Thursday, Jun 13, 2024 - 05:42 AM (IST)

एक महीने में यह कॉलम फिर से कश्मीर की ओर लौट रहा है। गत रविवार  (9 जून) को जम्मू-कश्मीर के रियासी में जिहादियों ने हिन्दू तीर्थयात्रियों की बस पर हमला कर दिया। बस में ड्राइवर-कंडक्टर सहित 45 लोग सवार थे। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि आतंकियों की मंशा अधिकांश यात्रियों को एक-एक करके गोलियों से उड़ाने और कुछ को अगवा करने की रही हो, जैसे इसराईल में 7 अक्तूबर 2023 को हमास ने वीभत्स आतंकी हमले में किया था। यदि ड्राइवर को गोली लगने के बाद अनियंत्रित बस 50 मीटर गहरी खाई में नहीं गिरती तो स्थिति और भी अधिक भयावह हो सकती थी। फिर भी इस हमले में दो वर्षीय बच्चे सहित 10 श्रद्धालुओं की मौत हो गई। कई घायल अस्पतालों में जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे हैं।

शिवखोड़ी मंदिर से कटरा स्थित माता वैष्णो देवी मंदिर जा रही बस पर हमला उस वक्त किया गया, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली में अपने तीसरे कार्यकाल की शपथ लेने वाले थे। स्पष्ट है कि जिहादियों की इस कायराना हरकत का उद्देश्य सिर्फ  निहत्थे हिन्दुओं पर हमला ही करना नहीं था बल्कि वे उस सकारात्मक परिवर्तन को भी चुनौती देना चाहते थे, जो शेष भारत धारा 370, 35ए के संवैधानिक क्षरण के बाद जम्मू-कश्मीर में महसूस कर रहा है। हालिया आतंकी हमले के संदर्भ में तीन बातें गौर करने लायक हैं। पहली-पाकिस्तान और उसके समॢथत आतंकवादियों की काफिर-कुफ्र की लड़ाई ऐसे ही जारी रहेगी। दूसरी-भारत-विरोधी शक्तियां जम्मू-कश्मीर में आमूल-चूल विकास, परिवर्तन के साथ लोकतंत्र की बहाली से बौखलाई हुई हैं।

अगस्त 2019 के बाद इस क्षेत्र में आतंकवादी, अलगाववादी और पत्थरबाजी की घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आई है। यह इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि नफरत की फसल को पाकिस्तान से मजहबी खाद-पानी नहीं मिल रहा है। तीसरी-जिहादियों के लिए प्रत्येक हिन्दू काफिर है, चाहे वह दलित हो, सवर्ण हो, पिछड़ा हो या आदिवासी। इसलिए जब सेना की वर्दी में आए आतंकवादियों ने रियासी में हिन्दू तीर्थयात्रियों से भरी बस पर धड़ाधड़ गोलियां बरसाईं, तब वे किसी भी श्रद्धालु की जातिगत पहचान या फिर उनकी माली हालत के बारे में नहीं जानना चाहते थे।

रियासी में जिहादी हमले के समय मैं परिवार के साथ कश्मीर में था। यहां हुई प्रगति, अन्य विकास कार्य और वादी में तुलनात्मक अमन तारीफ के काबिल है। श्रीनगर की रौनक देखते ही बनती है। बाजार गुलजार हैं। जिहादी उपक्रम के बाद वर्षों पहले घाटी छोड़कर गए कश्मीरी पंडित काफी बड़ी संख्या में वापस लौट चुके हैं। तीन दशक से अधिक के लम्बे फासले के बाद नए-पुराने सिनेमाघर भी संचालित हो रहे हैं। मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि इस परिवर्तन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ इस केन्द्र शासित प्रदेश के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने भी बहुत उपयोगी और महत्ती भूमिका निभाई है। इस बदलाव से देश का स्वघोषित सैकुलर वर्ग हक्का-बक्का है।

रियासी आतंकवादी घटना पर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है, यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि आतंकी हमला हुआ है। इस बंदूक को खामोश करने के लिए एक बातचीत का माहौल बनाना होगा और इसके लिए दोनों देशों को भूमिका निभानी होगी। क्या उमर को सच में लगता है कि पाकिस्तान से बात करके कश्मीर में आतंकवाद का खात्मा हो सकता है, क्या यह सच नहीं कि वर्ष 1963 से लेकर 2021 तक भारत सरकार द्वारा कश्मीर पर घाटी के अलगाववादियों के साथ राजनीतिक पक्षकारों से पांच बार वार्ता हो चुकी है। क्या किसी भी सरकार का उन लोगों से बात करना मुनासिब है, जो सिर्फ गोली की भाषा बोलते हैं और समझते हैं। 

25 जनवरी 1990 को भारतीय वायुसेना के चार जवानों की सरेआम हत्या करने वाले यासीन मलिक को वर्ष 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वार्ता के लिए दिल्ली बुलाया था। क्या इससे कश्मीर की तत्कालीन संकटमयी स्थिति में कोई सुधार आया। जिस कश्मीर में वर्ष 2019 से पहले भारतीय सेना के जवान भी स्वयं को सुरक्षित नहीं मानते थे, वहां आज साधारण नागरिक महफूज महसूस करते हैं। यह बदलाव किसी वार्ता के कारण नहीं बल्कि ‘गोली का जवाब गोली से देने’ की नीति का नतीजा है।

सच तो यह है कि उमर अब्दुल्ला को घाटी में अमन-चैन से कोई सरोकार नहीं है। वे अप्रत्यक्ष रूप से उस विभाजनकारी और संकीर्ण राजनीति को न्यायोचित ठहराने का प्रयास कर रहे हैं, जिसकी शुरूआत उनके घोर सांप्रदायिक दादा शेख अब्दुल्ला ने 1931 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से वापस घाटी लौटकर की थी। कालांतर में उसी राजनीतिक दृष्टिकोण को उनके पुत्र फारुक अब्दुल्ला और अन्य मानसबंधुओं  उमर, मुफ्ती परिवार सहित ने आगे बढ़ाया है।

यूं तो कश्मीर 14वीं शताब्दी से जिहादी दंश झेल रहा है परंतु बात यदि स्वतंत्रता के बाद की करें तो घाटी के निर्णायक इस्लामीकरण की शुरूआत 1948 में हुई थी। तब पंडित नेहरू अपनी व्यक्तिगत खुन्नस के कारण जम्मू-कश्मीर के सैकुलर महाराजा हरिसिंह को कश्मीर से अपदस्थ कर मुम्बई में रहने को मजबूर कर चुके थे, जहां 1961 में उन्होंने अंतिम सांस ली। कश्मीर में आतंकवादी हमलों का एक लंबा इतिहास है। बेशक रियासी, कठुआ और डोडा में जिहादी हमला अंतिम नहीं होगा। इस्लामी कट्टरवाद के खिलाफ  भारत को यह सांस्कृतिक युद्ध हर हाल में जीतना होगा। यह काम केवल सेना-पुलिस नहीं कर सकती, इसमें सबका सहयोग चाहिए। -बलबीर पुंज


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