अरुंधति रॉय से देश को खतरा क्यों?

punjabkesari.in Thursday, Jun 20, 2024 - 05:39 AM (IST)

गत दिनों दिल्ली के उप-राज्यपाल ने 2010 से संबंधित एक मामले में उपन्यासकार अरुंधति रॉय पर मुकद्दमा चलाने की अनुमति दी। सवाल उठा कि आखिर 14 साल बाद इसकी स्वीकृति क्यों? यह वाजिब भी है, क्योंकि यह काम पहले ही हो जाना चाहिए था। अरुंधति जिस ‘लैफ्ट-फासिस्ट-जिहादी-सैकुलर-लिबरल’ समूह से ताल्लुक रखती हैं, वह इस निर्णय को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर हमला बता रहा है। अंग्रेजी में एक मुहावरे का अर्थ है ‘आपकी स्वतंत्रता वहां खत्म होती है, जहां मेरी शुरू होती है’। यदि अरुंधति से सहानुभूति रखने वालों के कुतर्क को आधार बनाया जाए, तो नूपुर शर्मा की ‘अभिव्यक्ति’ की आजादी को क्यों कुचला गया? 

अरुंधति रॉय की कई पहचान है। सबसे अव्वल वह खालिस वामपंथी हैं, जिसका चिंतन राष्ट्र के तौर पर भारत के अस्तित्व पर सवाल उठाता है और अपने मानस पिता कार्ल माक्र्स की तरह हिंदू संस्कृति-परंपरा को जमींदोज करने में यकीन रखता है। यह जमात झूठ-अर्धसत्य का सहारा लेकर समाज में वैमनस्य फैलाने, भावनाएं भड़काने और असंतोष पैदा करने में माहिर है। इसके साथ अरुंधति एक उपन्यासकार भी हैं। उन्हें ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ उपन्यास के लिए वर्ष 1997 में प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार मिला था। इसी अनोखी पहचान के चलते अरुंधति, अपने पूर्वाग्रह और काल्पनिक दुनिया में रहने के कारण स्तंभकार और वक्ता के रूप में हकीकत से मीलों दूर रहती हैं। इसे मैंने स्वयं निजी तौर पर वर्ष 2002 के गोधरा कांड में महसूस किया है। तब जिहादियों की भीड़ ने गुजरात में गोधरा रेलवे स्टेशन के पास अयोध्या से आ रही ट्रेन के एक कोच को फूंककर 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया था। इसके बाद प्रदेश में दंगे भड़क उठे थे। 

उसी वर्ष 2 मई को अरुंधति की कोरी-कल्पना और असबीयत के घालमेल से भरा लंबा-चौड़ा आलेख, प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका ‘आऊटलुक’ में प्रकाशित हुआ। उन्होंने दावा किया कि दंगाइयों ने तत्कालीन कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की बेटी को निर्वस्त्र करके जीवित जला दिया। लच्छेदार शब्दों की धनी अरुंधति ने अपने लेख में जाफरी के घर का ऐसा उल्लेख किया था, जैसे मानो वे खुद वहां मौजूद थीं। पढऩे में वह मंजर जितना दिल-शिकन था, उतना ही असलियत से कोसों दूर। ये उनके कई झूठों में से एक था। यह सच है कि भीड़ ने जाफरी की हत्या कर दी थी, लेकिन उनकी बेटियों को न तो ‘नग्न’ किया गया और न ही ‘जिंदा जलाया’ गया था। 

उसी समय एक अंग्रेजी समाचारपत्र ‘एशियन एज’ में जाफरी के बेटे तनवीर का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था। इसमें तनवीर ने बताया कि दंगे के समय उसकी बहन अमरीका में थी। मैंने ‘आऊटलुक’ के तत्कालीन प्रधान संपादक (दिवंगत) विनोद मेहता से संपर्क किया। वे स्वयं को ‘लैफ्ट-लिबरल’ कहते थे, जो दो शब्दों को मिलकर बना है और एक-दूसरे का विरोधाभासी है। ऐसा इसलिए क्योंकि किसी भी ‘लैफ्ट’ की तासीर ‘लिबरल’ नहीं हो सकती। परंतु विनोदजी अपवाद थे। वे ‘लैफ्ट’ और ‘लिबरल’ दोनों थे। उन्होंने अरुंधति के झूठ को ध्वस्त करता हुआ मेरा आलेख, 27 मई 2002 को ‘आऊटलुक’ में प्रकाशित किया। अपनी बेईमानी का भंडाफोड़ होने पर अरुंधति माफी मांगने को मजबूर हो गईं। सर्वोच्च न्यायालय से फटकार खाने के बाद भी उनका कुनबा गुजरात दंगे को अपने एजैंडे के लिए सुलगाए रखने का प्रयास करता है। 

अभी जिस मामले में अरुंधति पर दिल्ली के उप-राज्यपाल ने मुकद्दमा चलाने की इजाजत दी है, वह 21 अक्तूबर 2010 से जुड़ा है। तब दिल्ली के एक सम्मेलन में अरुंधति ने कहा था, ‘‘कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं था और सशस्त्र बलों ने जबरन उस पर कब्जा किया है।’’ यही नहीं, अरुंधति अक्सर कश्मीर को भारत से अलग करने की बात भी करती रही हैं। वास्तव में, अरुंधति का उपरोक्त विषवमन, भारत और कश्मीर के इतिहास का मजाक उड़ाने जैसा है।

कश्यप ऋषि की तपोभूमि कश्मीर सदियों तक शैव-शाक्त और बौद्ध दर्शन का प्रमुख केंद्र रहा था। संस्कृत ग्रंथ राजतरंगिणी (1148-50 ई.) में कश्मीर के हजारों वर्षों की क्रमबद्ध तारीख अंकित है। 14वीं शताब्दी में अंतिम हिंदू शासिका कोटारानी के आत्म-बलिदान के बाद ‘कश्मीर सल्तनत’ के तहत कश्मीर में भयावह इस्लामीकरण का दौर शुरू हुआ। इससे ग्रस्त कश्मीरी पंडितों की रक्षा में जब गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने अभियान चलाया, तब दिल्ली में क्रूर औरंगजेब के निर्देश पर गुरु साहिबजी का शीश जिहादियों ने धड़ से अलग कर दिया। दिल्ली स्थित गुरुद्वारा सीसगंज साहिब उसी बलिदान का प्रतीक है। सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह, जिनकी जीवनशैली सनातन संस्कृति से प्रेरित थी, ने वर्ष 1818-19 में कश्मीर को इस्लामी चंगुल से छुड़ाया। 

अब अक्तूबर 1947 में जिस ‘इंस्ट्रूमैंट ऑफ एक्सैशन’ पर महाराजा हरिसिंह ने हस्ताक्षर किए थे, उसका प्रारूप (फुल स्टॉप, कौमा, एक-एक शब्द सहित) हू-ब-हू वही था, जिस पर अन्य 560 से अधिक रियासतों ने भी भारत में विलय के दौरान हस्ताक्षर किए थे या उसकी प्रक्रिया में थे। परंतु महाराजा हरिसिंह की देशभक्ति से चिढ़े कुटिल अंग्रेजों ने लॉर्ड माऊंटबेटन के माध्यम से इस विलय को जबरन ‘विवादित’ बना दिया। रही-सही कसर, पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ मिलकर मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाकर, जनमत संग्रह का समर्थन और पाकिस्तान के खिलाफ विजयी भारतीय सेना को बिना समस्त कश्मीर को मुक्त कराए युद्धविराम की घोषणा करके पूरी कर दी। इसी घटनाक्रम को आधार बनाकर माक्र्स-मैकॉले कुनबा कश्मीर पर भ्रम फैलाता है। इसलिए अरुंधति रॉय मात्र कोई उपन्यासकार न होकर, एक आला अर्बन-नक्सल हैं, जिनकी अलगाववादियों से सांठ-गांठ है।-बलबीर पुंज 
    


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