क्या भारत-पाक के सर्द रिश्तों में ‘गर्माहट’आ रही है

punjabkesari.in Wednesday, Dec 09, 2015 - 12:28 AM (IST)

अचानक गर्मी का मौसम आया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और नवाज शरीफ के बीच बर्फ की तरह जमा हुआ रिश्ता, जिसमें बदलाव की कोई उम्मीद नहीं थी, 160 सैकेंड की संयोग से हुई मुलाकात से पिघला। पूरी तरह हुए इस बदलाव से यही संकेत मिलता है कि मतभेदों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता रहा है। अहम, जो शायद असली वजह है, पर काबू पाने की जरूरत है।

भारत अपने उस फैसले पर अड़ा हुआ था कि वह आतंकवाद, जो रूस के उफा में जारी संयुक्त बयान की मुख्य बात है, को छोड़कर किसी चीज पर बातचीत नहीं करेगा। पाकिस्तान को लगा कि बातचीत का कोई मतलब नहीं है अगर ‘‘कश्मीर का मुख्य मुद्दा’’ बातचीत के एजैंडे में सबसे ऊपर नहीं है। हुर्रियत नेताओं के साथ बैठक पर जोर के अलावा इसने बातचीत पर रोक लगा दी। इसी तरह के कारणों ने आगरा केबाद बातचीत बंद करा दी थी। केन्द्रीय मंत्री सुषमा स्वराज ने विरोध की आवाज उठा दी थी। जाहिर है कि विचारों की जो पपड़ी जम गई, उसे तोडऩा होगा क्योंकि दोनों देश दूर खड़े हैं। एक बार प्रधानमंत्रियों की मुलाकात हो गई तो टकराव का भाव खत्म हो गया और भारत व पाकिस्तान के बीच सार्थक बातचीत का रास्ता बन गया।
 
तय ढांचे में बातचीत पर जोर देने वाले यह नहीं समझते कि बातचीत की इच्छा शक्ति नहीं होने पर असंख्य कारण आ जाते हैं। एक बार इच्छा पैदा हो जाती है तो बाकी चीजें पीछे चली जाती हैं। प्रधानमंत्रियों ने अपने अहंकार को छोड़ दिया और सामान्य आदमी की तरह व्यवहार किया। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ यहां तक कह गए कि मामला आगे बढ़ेगा। इसका मतलब यह विचार कि जब तक कुछ शर्तें पूरी नहीं होती हैं, बातचीत नहीं होगी, में बदलाव आ गया है।
 
मैं उपमहाद्वीप की घटनाओं पर पिछले 4 दशकों से नजर रखता रहा हूं। मेरा विचार है कि अविश्वास हीसुलह न होने की मुख्य वजह है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्रीजवाहर लाल नेहरू ने महसूस किया था कि अविश्वास बीमारी का लक्षण है, बीमारी नहीं। बीमारी है भारत विरोधीभावना। पाकिस्तान यही बात कह सकता है। इसके बाद भी इस सच्चाई से हम भाग नहीं सकते कि जब तक दोनों देशों के बीच विश्वास पैदा नहीं होगा, किसी बातचीत का फल नहीं निकलेगा। यही वजह है कि कई समझौते सिर्फ कागज पर रह गए हैं।
 
ताशकंद या शिमला का समझौता हो, दोस्ती का पवित्र शब्द कभी सच नहीं हो पाया। दोनों एक-दूसरे पर अविश्वास करते हैं। आज तक, यह कहानी बदली नहीं है। व्यावहारिक तौर पर हम उसी स्थिति में हैं जो बंटवारे के समय थी जिन दिनों मुसलमानों के लिए अपने अलग राज्य के रूप में पाकिस्तान की स्थापना की गई।
 
वास्तव में, अविश्वास को भारत और पाकिस्तान के रूप में एक संस्थागत रूप दे दिया गया। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास किसी भी तरह कम नहीं हुआ। नतीजा यह हुआ कि हम दोनों देशों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुए अत्याचार की कहानियां बार-बार सुनते रहते हैं। बेशक, दोनों देशों के बीच बातचीत होगी, हालांकि भारत शायद शुरूआत करने से हिचके कि कहीं छिपीहुई दुश्मनी सामने न आ जाए। दोनों पक्षों को दुश्मनी के पुराने अध्यायों को बंद करना पड़ेगा और नई शुरूआत करनी होगी।
 
लेकिन यह कठिन लगता है। फिर भी, अगर पाकिस्तान बनने के बाद कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना के कहे गए शब्दों का पाकिस्तान पालन करता तो चीजें आसान हो जातीं। उन्होंने कहा था कि आप पाकिस्तानी है या भारतीय हैं, अब आप मुसलमान या हिन्दू नहीं रह गए हैं, सिर्फ धार्मिक या दूसरे अर्थों को छोड़ कर।
 
पाकिस्तान जिन्ना की इच्छाओं से बहुत दूर है। वह एक विशुद्ध इस्लामिक राज्य बन गया है जिसमें धार्मिक तत्वों की बात चलती है। हिन्दू, सिर्फ 2 प्रतिशत हैं, बहुत सारे भारत पलायन कर गए और बाकी जीवन चलाने के लिए धर्म बदलने को मान गए। जब बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया तो पाकिस्तान में कई मंदिर और गुरुद्वारे तोड़ डाले गए।
 
इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखने पर कश्मीर पर विवाद समझ में आता है। पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की यह बात सही है कि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा रहेगा और भारत के शासन में रहने वाला क्षेत्र नई दिल्ली के पास रहेगा। लेकिन उनके भाषण का यह हिस्सा कि पाकिस्तान और भारत दोनों कश्मीर को खाली करें, न तो व्यावहारिक है और न ही वास्तविक।
 
अच्छा या बुरा, युद्ध विराम नियंत्रण रेखा में तबदील होकर एक रेखा बन गया जिसकी मान्यता अंतर्राष्ट्रीय सीमा जैसी हो गई है। पहले के अनुभवों से यही जान पड़ता है कि इस लाइन को बदलने की कोई एकतरफा कोशिश का नतीजा दुश्मनी के रूप में सामने आता है। कश्मीरियों के प्रति यह अन्याय है किवे विभाजित रहें लेकिन उनकी भावना कितनी भी मजबूत क्यों न हो, वे दोनों हिस्सों को जोडऩे के लिए संघर्षनहींकर रहे हैं। युद्ध विराम की रेखा से वे संतुष्ट मालूम देते हैं।
 
लैफ्टिनैंट जनरल कुलवंत सिंह, जिन्होंने उस समय उस आप्रेशन का नेतृत्व किया था, से यह पूछा गया था कि युद्ध करीब-करीब भारत के पक्ष में था, फिर भी वह एक जगह जाकर क्यों रुक गए। उन्होंने कहा कि सरकार ने उन्हें और आगे बढऩे से मना कर दिया था। नेहरू ने इस बारे में बताया था कि वह कश्मीर के पंजाबी भाषी क्षेत्र को कब्जे में लेना नहीं चाहतेथे।
 
फारूक अब्दुल्ला को समझना चाहिए कि कश्मीरी भाषी इलाका भारत के साथ है। घाटी से आगे पंजाबी बोलने वाले मुसलमान हैं जो कश्मीरियत की भावना नहीं रखते। सच है कि पूरा कश्मीर श्रीनगर के अधीन रहना चाहिए। लेकिन राज्य के भारत मेंं विलय के बाद सामने आई घटनाओं ने राज्य को पूरी तरह विभाजित कर दिया है।
 
अभी जो व्यवस्था है उसे पलटना भारत और पाकिस्तान, दोनों के लिए महंगा पड़ेगा। उन्हें 2 युद्धों  का अनुभव है। यह कश्मीरियों के लिए न्यायोचित नहीं है, लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच की स्थिति को समझते हुए उन्हें इस हकीकत के साथ रहना है। दोनों के बीच एक और युद्ध परमाण्विक युद्ध होगा जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है क्योंकि यह विंध्य पर्वत के विशाल उत्तरी क्षेत्र में सब कुछ नष्ट कर देगा।
 
मेज पर आमने-सामने बैठ कर अपनी समस्याओं को सुलझाने के अलावा भारत और पाकिस्तान के सामने कोई रास्ता नहीं है। स्थिति के सामान्य होने से ही इस क्षेत्र में समृद्धि आ सकती है। यूरोप का उदाहरण हमारे सामने है। उन्होंने सैंकड़ों साल आपस में युद्ध किया और आज एक आर्थिक संघ है जो बीमार हो गए ग्रीस को भी फिर से खड़ा होने में मदद कर रहा है। भारत और पाकिस्तान इस उदाहरण को देखें और सीखें। 

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