अफगानिस्तान में बढ़ रही तालिबानी हिंसा और भारत के लिए बढ़ता खतरा

punjabkesari.in Sunday, Jul 05, 2015 - 10:08 PM (IST)

काबुल में आतंकी हमले लगातार बढ़ रहे हैं। गत वर्ष नाटो सेनाओं के अफगानिस्तान छोडऩे से पहले तक लड़ाई देश के बाहरी इलाकों तक ही सीमित थी लेकिन अब यह देश की राजधानी काबुल तक पहुंच चुकी है।

रमकाान का पवित्र महीना शुरू होने के बाद से काबुल में हुए दूसरे बड़े हमले में 30 जून को 17 लोग जख्मी हुए। इस हमले में अफगानिस्तान में बची-खुची नाटो सेनाओं, सैन्य वाहनों तथा आम लोगों को क्षति पहुंचाने वाला धमाका अमेरिकी दूतावास तथा देश के सर्वोच्च न्यायालय के निकट स्थित एक व्यस्त शॉपिंग एरिया में हुआ। 
 
गत सप्ताह आतंकवादियों ने  संसद पर उस समय हमला किया था जब कानून निर्माता नए रक्षा मंत्री पर वोट करने जा रहे थे। तालिबान ने पवित्र मुस्लिम महीने रमजान के दौरान युद्धविराम के आग्रह को भी ठुकरा दिया था जबकि इस महीने में तो किसी को गाली देना भी इस्लाम विरोधी कार्य माना जाता है। 
 
ऐसे में इस पर भी किसी को आश्चर्य नहीं हुआ कि करीब एक महीने पहले तक अफगानी सरकार तथा तालिबान के बीच कतर में शांति के प्रयासों के अंतर्गत हुई वार्ता के बावजूद उन्होंने आतंकी हमले करने जारी रखे हैं। 
 
अफगानी सेना के एक कर्नल ए.एच. मदजई का कहना है, ‘‘यदि तालिबानी केवल ए.के.-47 से गोलियां बरसा रहे होते तो हम इतने चिंतित नहीं होते लेकिन हमें पता है कि अब उनके पास एम-16 हैं।’’ 
 
उल्लेखनीय है कि दशकों से एम-16 अमेरिकी सेना की पसंदीदा ऑटोमैटिक राइफल रही है। इसकी रेंज मशहूर रूसी राइफल ए.के.-47 से भी दोगुना है। तालिबानियों तक इस अमेरिकी हथियार के पहुंचने के केवल कुछेक तरीके ही हो सकते हैं। कई बार आतंकवादी इन्हें अफगानी पुलिस या सिपाहियों से हथियाते हैं परन्तु अमेरिकी और अफगानी अधिकारियों का दावा है कि आमतौर पर वे उन्हें भ्रष्ट अफगानी पुलिस या सिपाहियों से खरीदते हैं। अफगान अधिकारियों के अनुसार कुछ नाकों पर तैनात सिपाहियों के पूरे के पूरे समूहों ने अपने हथियार तथा गोला-बारूद आतंकियों को बेच दिए।
 
तालिबान कमांडरों ने भी स्वीकार किया है कि अमेरिकी हथियारों का काला बाजार खूब फल-फूल रहा है। 1980 के दशक में सोवियत कब्जे के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ था जब अफगानी सिपाहियों ने रूस द्वारा उन्हें दिए जाने वाले हथियारों को मुजाहिद्दीनों को पैसे तथा राजनीतिक संरक्षण के बदले में सौंप दिया था।
 
परन्तु इस बार कहानी थोड़ी अलग है क्योंकि अफगानिस्तान से अमेरिकी सिपाहियों के जाने से पहले अमेरिकी ऑडिट में भी यह खुलासा हुआ था कि पैंटागन के पास उन 4,65,000 हल्के हथियारों की कोई सूचना नहीं है जो उन्होंने अफगानी सुरक्षा बलों तक पहुंचाए थे। रिपोर्ट पहले 2011 में आई थी परन्तु कुछ मामलों में अफगानियों ने स्वयं जरूरत से ज्यादा हथियार मंगवाए जिनकी उन्हें जरूरत ही नहीं थी और फिर इन्हें तालिबानियों को बेच दिया गया। 
 
एक एम-16 काला बाजार में करीब 5 हजार डालर में बिकती है। हर महीने लगभग 65 डालर वेतन पाने वाले सैनिक या पुलिस कर्मी के लिए यह एक बहुत बड़ी रकम है। 
 
अफगान अधिकारियों के अनुसार हाल ही में उन्होंने कई सैनिकों पर 1500 डालर का जुर्माना तथा कइयों का कोर्ट मार्शल किया है। ये वे सैनिक हैं जिनका कहना था कि उनके हथियार गुम हो गए। ऐेसे में अफगान पुलिस कर्मियों ने तो अमेरिकी हथियारों को तालिबानियों को ‘किराए’ पर देने का तरीका भी तलाश लिया है।
 
एक अफगानी अधिकारी स्वीकार करता है कि इस बात के सबूत मिले हैं कि रात के समय तालिबानियों द्वारा प्रशिक्षित गधों को खुला छोड़ दिया जाता है जो खुद नाकों की ओर चले जाते हैं। वहां तैनात पुलिस वाले उन पर अपने हथियार लाद कर वापस तालिबानियों के पास भेज देते हैं। तालिबानी उन हथियारों से अपराध करने के बाद सुबह उन्हें इसी तरीके से नाकों पर पुलिस वालों को लौटा देते हैं।
 
हो सकता है कि ऐसी कुछ कहानियां सच्ची न भी हों लेकिन फिर भी यह तथ्य बरकरार है कि उत्तम गुणवत्ता वाले हथियारों का बड़ा जखीरा तालिबान के हाथों में पहुंच चुका है। अमेरिकी सेना की लापरवाही अब कई अफगानियों और भारतीयों की जान लेने का सबब बन सकती है क्योंकि काबुल पर कब्जा करने के बाद तालिबान की योजना कश्मीर में भारतीय सीमा की ओर बढऩे या फिर इस इलाके में पाक प्रशिक्षित आतंकियों को ये हथियार सौंप देने की है।
 

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