नैकां-पी.डी.पी. द्वारा चुनावों का बहिष्कार दुर्भाग्यपूर्ण

punjabkesari.in Wednesday, Sep 19, 2018 - 04:03 AM (IST)

नैशनल कांफ्रैंस (एन.सी.) वह राजनीतिक दल है जिसने कश्मीर घाटी में 90 के दशक में शुरू हुए आतंकवाद और अलगाववाद के दौर में अपने सबसे ज्यादा नेता एवं कार्यकत्र्ता कुर्बान किए हैं लेकिन घाटी में प्रभाव रखने वाली मुख्यधारा की एकमात्र पार्टी होने के कारण इसका नेतृत्व कई दशकों तक केन्द्र सरकार से अपनी सुविधा के अनुसार निर्णय करवाता रहा। इसके परिणामस्वरूप घाटी में आतंकवाद और अलगाववाद को बढ़ावा मिला। इसलिए कुछ राष्ट्रीय नेताओं ने लम्बे समय तक जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस की कमान संभालने वाले मुफ्ती मोहम्मद सईद से वर्ष 1998 में नैशनल कांफ्रैंस के विकल्प के तौर पर पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी (पी.डी.पी.) का गठन करवाया। यह प्रयोग इतना सफल रहा कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करके 2002 में पी.डी.पी. सत्ता में आ गई। 

हाल ही में इन दोनों पाॢटयों ने राज्य प्रशासन द्वारा घोषित किए गए पंचायत एवं शहरी स्थानीय निकाय चुनावों के बहिष्कार की घोषणा कर दी। इस प्रकार, पहले आतंकवादियों एवं अलगाववादियों की धुर-विरोधी नैशनल कांफ्रैंस और फिर नैकां के विकल्प के तौर पर गठित पी.डी.पी. नेतृत्व ने चुनाव बहिष्कार की घोषणा करके अलगाववाद की राह पर जो कदम बढ़ाया है, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इतना ही नहीं, इन दोनों पाॢटयों के प्रवक्ताओं ने तो राज्य प्रशासन पर ‘सत्ता का घमंड होने’ का आरोप जड़ते हुए ‘देखते हैं कैसे करवाते हैं चुनाव’ जैसी धमकियां तक देनी शुरू कर दी हैं जिससे लगता है कि ये दोनों पार्टियां चुनाव के दौरान आतंकवादियों और अलगाववादियों की तर्ज पर नकारात्मक भूमिका ही अदा करेंगी। 

इसके अलावा जम्मू, लद्दाख और कश्मीर इकाइयों के बीच दुविधा में फंसी कांग्रेस अभी तक अपना रुख स्पष्ट नहीं कर पाई है। ऐसे में, राज्य में जमीनी स्तर पर लोकतंत्र की अलख जगाने की पूरी जिम्मेदारी राज्यपाल सत्यपाल मलिक के कंधों पर आ गई है और यदि इस पहली परीक्षा में राज्यपाल सफल रहते हैं तो निकट भविष्य में रणनीतिक तौर पर इसके सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। पी.डी.पी. के गठन के उद्देश्य के मद्देनजर अपने जीवनकाल में मुफ्ती कभी नैशनल कांफ्रैंस नेतृत्व के साथ खड़े नजर नहीं आए, बल्कि हमेशा चट्टान की तरह उसके सामने डटे रहे लेकिन इसे पार्टी में थिंकटैंक का अभाव कहें अथवा नेतृत्व क्षमता का खालीपन कि मुफ्ती के निधन के बाद न केवल पी.डी.पी. और नैशनल कांफ्रैंस नेताओं में नजदीकियां बढ़ी हैं, बल्कि उनकी नीतियों में ज्यादा अंतर नहीं रह गया है। पंचायत एवं शहरी स्थानीय निकाय चुनावों के बहिष्कार की ही बात करें तो पहले नैशनल कांफ्रैंस अध्यक्ष डा. फारूक अब्दुल्ला ने इसकी घोषणा की, फिर पी.डी.पी. अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने भी नैशनल कांफ्रैंस द्वारा दिखाए मार्ग का अनुसरण किया। 

दिलचस्प पहलू यह है कि जिस अनुच्छेद 35-ए की आड़ लेकर नैशनल कांफ्रैंस और पी.डी.पी. ने चुनावों का बहिष्कार किया है, उस पर केन्द्र सरकार के वर्तमान रवैये के बावजूद इन दोनों पाॢटयों ने पिछले महीने कारगिल में हुए लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद के चुनावों में बढ़-चढ़कर भाग लिया था और 10 सीटों के साथ नैशनल कांफ्रैंस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। वैसे भी 35-ए का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है तो मुख्यधारा के दल होने के नाते नैशनल कांफ्रैंस और पी.डी.पी. को देश की न्यायपालिका में विश्वास रखना चाहिए। लम्बे अंतराल के बाद पंचायत एवं शहरी स्थानीय निकायों के चुनावों की घोषणा होने के चलते जम्मू-कश्मीर, विशेषकर जम्मू संभाग में उत्सव का वातावरण है। विडम्बना देखिए कि इन चुनावों का बहिष्कार करने वाली नैशनल कांफ्रैंस नेतृत्व स्वायत्तता और पी.डी.पी. सैल्फ रूल के माध्यम से जम्मू-कश्मीर सरकार को अतिरिक्त अधिकार दिए जाने की वकालत करती तो नहीं थकती, लेकिन ये दोनों पार्टियां लोकतंत्र की प्राथमिक इकाई पंचायतीराज संस्थाओं और शहरी निकायों को मजबूती प्रदान करके इन शक्तियों को बांटना नहीं चाहतीं। 

नैशनल कांफ्रैंस ने तो अतिरिक्त स्वायत्तता के लिए बाकायदा राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके मंजूरी के लिए केन्द्र सरकार को भेज भी दिया था लेकिन अपने गठबंधन सहयोगी की नाराजगी की परवाह न करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए इस प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में फैंक दिया। अब ऐसी ही इच्छाशक्ति केन्द्र सरकार और राज्यपाल को दिखाने की जरूरत है। कश्मीर आधारित दोनों बड़ी पार्टियां शक्तियों का विकेन्द्रीयकरण करने की बजाय तमाम शक्तियां राज्य स्तर पर ही केन्द्रित करके रखना चाहती हैं। इसके विपरीत दोनों राष्ट्रीय पार्टियां भाजपा और कांग्रेस जमीनी स्तर पर शक्तियों के विकेन्द्रीयकरण  की पक्षधर नहीं हैं लेकिन ये दोनों पाॢटयां सत्ता में सहयोगी दल के रूप में ‘बेचारगी’ की हालत में ‘याचना’ करने से ज्यादा कुछ खास नहीं कर पाईं और उनकी याचना नजरंदाज कर दी जाती रही। यही कारण है कि पंचायतीराज संस्थाओं और शहरी स्थानीय निकायों का कार्यकाल समाप्त होने के लम्बे समय बाद भी नैशनल कांफ्रैंस और पी.डी.पी. ने इन संस्थाओं के चुनाव करवाने को प्राथमिकता नहीं दी। 

वर्ष 2011 में उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में जब नैकां-कांग्रेस गठबंधन सरकार ने पंचायत चुनाव करवाए तो लोगों ने खुले मन से इन चुनावों में भाग लेकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत किया लेकिन लोगों के बेहतरीन रिस्पांस के बावजूद उमर सरकार ने भी खंड विकास समितियों, जिला विकास बोर्डों और शहरी स्थानीय निकायों के चुनाव करवाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके चलते पंचायती राज संस्थाओं और शहरी निकायों के माध्यम से लगने वाली केन्द्रीय राशि विकास कार्यों पर खर्च नहीं हो पाई। इसके बाद पहले मुफ्ती मोहम्मद सईद और फिर महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व में राज्य में रही पी.डी.पी.-भाजपा सरकार ने भी केवल घोषणाएं ही कीं, जबकि वास्तविकता में चुनाव करवाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया। 

बहरहाल, जम्मू-कश्मीर ने कई दशकों के अंतराल के बाद राज्यपाल के रूप में एक राजनेता को देखा है और राज्य में राज्यपाल शासन लागू होने के कारण राज्यपाल सत्यपाल मलिक पर दोहरी जिम्मेदारी है। यदि राज्यपाल मलिक तमाम बाधाओं से विचलित हुए बिना चुनाव करवाने में कामयाब हो जाते हैं तो राज्य के हालात को सकारात्मक दिशा देने में यह उनकी बड़ी रणनीतिक सफलता होगी। इससे न केवल राज्यवासियों का लोकतंत्र एवं उनके नेतृत्व में विश्वास बढ़ेगा, बल्कि राष्ट्रविरोधी ताकतों के हौसले भी पस्त होंगे।-बलराम सैनी


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Pardeep

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