तीन चरण बाद खुला चुनावी माहौल

punjabkesari.in Thursday, May 09, 2024 - 05:29 AM (IST)

तीसरे चरण के चुनाव के बाद तीन बातें साफ हैं- एक, न कोई हवा है, न कोई लहर। दो, वोटर उत्साहहीन है, इसलिए कम संख्या में बाहर निकल रहा है। तीन, चुनाव राज्य दर राज्य होता जा रहा है। तीसरे चरण के लिए वोटिंग वाले दिन दो बातें हुईं- एक, हरियाणा में भाजपा की सरकार का तीन निर्दलीय विधायकों ने साथ छोड़ दिया और कांग्रेस का हाथ थाम लिया। दो, प्रधानमंत्री मोदी को कहना ही पड़ा कि 400 इसलिए चाहिएं, ताकि राम मंदिर बचाया जा सके, जहां उनके अनुसार कांग्रेस सत्ता में आने पर बाबरी ताला लगा देगी।

हरियाणा की घटना साफ संकेत दे रही है कि एन.डी.ए. और ‘इंडिया’ गठबंधन में टक्कर तीसरे चरण के बाद और ज्यादा गहरी हो गई है। मुंडेर के दोनों तरफ पैर रख कर बैठने वालों को अंदाजा होने लगा है कि कुछ भी हो सकता है (पहले कहा जाता था कि आएगा तो मोदी ही। अब कुछ लोग कहने लगे हैं कि वैसे तो आएगा मोदी ही लेकिन चलो देखते हैं क्या होता है)। राम मंदिर पर बाबरी ताला, यह कहकर मोदी फिर से राम की शरण में चले गए हैं। तीसरे चरण की वोटिंग से दो दिन पहले भी मोदी ने अयोध्या में माथा टेका था। दंडवत किया था और उसके दो दिन पहले राष्ट्रपति का वहां जाना हुआ था। इशारा साफ है, जो बता रहा है कि भाजपा बैक टू बेसिक पर आ गई है। अंत में तो राम को ही आना पड़ेगा। क्या राम आएंगे? 

आंकड़ों की बात की जाए तो भाजपा ने पिछली बार 224 सीटें 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करके जीती थीं। तीसरे चरण के साथ ही 284 सीटों पर वोटिंग हो चुकी है। भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में इन 284 सीटों में से 166 सीटें जीती थीं। यानी स्ट्राइक रेट 58 फीसदी रहा था। इन 166 सीटों में से 135 सीटों पर उसे 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिला था। इस हिसाब से देखा जाए तो पहले तीन चरणों में भाजपा को अगर नुकसान हुआ तो वह थोड़ा बहुत ही होगा। बहुत ज्यादा नुकसान की गुंजायश नजर नहीं आती। अलबत्ता भाजपा पहले तीन चरणों में आगे बढ़ती भी दिखाई नहीं दे रही है।

तमिलनाडु की 39 और केरल की 20 सीटें निपट चुकी हैं, जहां भाजपा को कुछ ज्यादा हासिल होते दिख नहीं रहा। उल्टे कर्नाटक में सत्ता खोने का उसे लोकसभा चुनाव में भी खामियाजा उठाना पड़ सकता है। सवाल उठता है कि भाजपा पहले तीन चरणों में कहीं बढ़ती हुई नहीं दिख रही है, तो क्या इसी में इंडिया गठबंधन को कोई उम्मीद दिखने लगी है? बची हुई 259 सीटों में से भाजपा ने पिछली बार 137 सीटों पर कब्जा किया था। इन 137 सीटों में वह 89 सीटें 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करके जीती थी। लेकिन यहां पहले तीन चरणों के मुकाबले स्ट्राइक रेट घटा है। बचे हुए चार चरणों में महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, यू.पी. की कुछ सीटों में चुनाव होना है। यह सभी राज्य सिं्वग स्टेट में शामिल हैं। यहीं आकर चुनाव दिलचस्प हो गया है। चूंकि कोई राष्ट्रीय लहर, कोई राष्ट्रीय मुद्दा, कोई राष्ट्रीय नरेटिव नहीं है, लिहाजा चुनाव स्थानीय जातीय समीकरणों, स्थानीय सोशल इंजीनियरिंग, क्षेत्रीय दलों के दबदबे, स्थानीय नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के बीच उलझ कर रह गया है।

भाजपा राम मंदिर, भारत निर्माण, मोदी की गारंटी के त्रिकोण का सहारा ले रही है। कहीं कुछ चल रहा है, कहीं कुछ। यही वजह है कि प्रधानमंत्री प्रयोग पर प्रयोग कर रहे हैं। कभी पाकिस्तान ले आते हैं तो कभी बाबरी ताला, कभी मंगलसूत्र छीन लेने की बात करते हैं, तो कभी उनकी नजर में शहजादा सुल्तानों, बादशाहों, निजामों का मददगार हो जाता है। मकसद यही है कि पूरा चुनाव हिंदू-मुस्लिम किया जाए, ताकि कोर वोटर उत्साह से वोट देने आए और फ्लोटिंग वोटर को साथ लेता आए। अफसोस, बड़े पैमाने पर ऐसा होता दिख नहीं रहा। बिहार में नीतीश कुमार को वापस लाना और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ-साथ एन.सी.पी. को तोडऩा भी फलदायक साबित नहीं हो रहा। ऐसे में हिंदुत्व की बात करना सियासी मजबूरी भी है और जरूरी भी। कुल मिलाकर मोदी को विपक्ष की किसी एक भारी चूक का इंतजार है।

लालू प्रसाद यादव ने मुस्लिमों को आरक्षण देने की बात कर मौका दिया है लेकिन यहां दो पेच हैं। एक, लालू ने मंडल कमीशन की बात कर स्थिति सुधारी है। दो, आन्ध्र प्रदेश में एन.डी.ए. गठबंधन में शामिल टी.डी.पी. ने अपने घोषणा पत्र में चार फीसदी आरक्षण मुसलमानों को देने की बात कही है। हैरत की बात है कि 2014 में भ्रष्टाचार और 2019 में राष्ट्रवाद को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने वाली भाजपा एक अदद राष्ट्रीय मुद्दे के लिए तरस रही है। उधर ‘इंडिया’ खेमा महंगाई, बेरोजगारी, अग्निवीर, चार सौ पार को आरक्षण के खात्मे से जोडऩा, जातीय जनगणना जैसे मुद्दों को उठा रहा है। यहां भी इकसार कोई मुद्दा काम नहीं कर रहा। चार सौ पार के नारे को संविधान में बदलाव से जोडऩे का नरेटिव उत्तर भारत में काम करता दिखता है लेकिन आरक्षण खत्म करने की आशंका से अगर दलित आदिवासी वोटर प्रभावित होता है तो वहीं सवर्ण जाति के साथ-साथ ओ.बी.सी. वर्ग का एक हिस्सा भाजपा से आशा भरी नजर से देखने भी लगता है।

इसके अलावा बिहार, महाराष्ट्र, दिल्ली, झारखंड, तमिलनाडु में गठबंधन का फायदा होता भी दिख रहा है। सबसे बड़ी बात है कि अब तक इंडिया गठबंधन के नेता प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा हमला करने से बचे हैं। मोदी के सच्चे-झूठे आरोपों का जवाब प्रियंका गांधी ने सधी हुई भाषा में भावनात्मक रूप से दिया है। कांग्रेस समेत ‘इंडिया’ के दूसरे दलों के घोषणा पत्र सामाजिक सुरक्षा पर जोर देते हैं। भाजपा का संकल्प पत्र भी ऐसा ही कुछ कहता है लेकिन भाजपा ने उसका उल्लेख तक करना बंद कर दिया। कांग्रेस ने अपने हिस्से की 101 सीटें साथी दलों में बांट दी हैं। वह सिर्फ 328 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। शरद पवार कह रहे हैं कि आने वाले समय में कई क्षेत्रीय दल कांग्रेस की तरफ झुकेंगे और कुछ का विलय भी संभव है। 
कुल मिलाकर ‘इंडिया’ इस चुनावी रणनीति के कारण ही पहले तीन चरणों के बाद वह टक्कर में आता दिख रहा है। आमतौर पर लोग भी कहने लगे हैं कि मुकाबला उस तरह एकतरफा नहीं है, जैसा कि दो महीने पहले बताया जा रहा था। अगर आने वाले दिनों में अरविंद केजरीवाल को अंतरिम जमानत मिलती है और वह पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में चुनाव प्रचार करते नजर आते हैं, तो इससे किस धड़े को तकलीफ होगी, बताने की आवश्यकता नहीं।  यह बात तय है कि जब-जब चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं होता, तब-तब क्षेत्रीय दल स्थानीय मुद्दों के दम पर हावी हो जाते हैं।

ऐसे में विपक्ष रेस में आ जाता है और टक्कर देता हुआ भी दिखाई देने लगता है। लेकिन यह भी साफ है कि कड़ा मुकाबला या कड़ी टक्कर इंडिया की जीत की गारंटी नहीं है। लेकिन फ्लोटिंग वोटर और पहली बार के वोटर को जरूर आकॢषत करती है। महंगाई है लेकिन रोष इतना नहीं है कि तख्ते हिल जाएं। बेरोजगारी है लेकिन राज्य सरकारों को भी दोषी ठहराया जा रहा है। यही बात भ्रष्टाचार के लिए भी कही जा रही है। तो क्या गुस्से, आक्रोश, नाराजगी का पैमाना खतरे के निशान को पार नहीं कर पा रहा है, इसलिए मोदी की नाव चुनाव की वैतरणी पार कर जाएगी? या मोदी के तरकश में कोई तीर बचा है जो अगले चार चरणों में दिखाई देगा? -विजय विद्रोही


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