शिवसेना के विवाद पर दो पूर्व चुनाव आयुक्तों की क्या है राय?, जानें यहां

punjabkesari.in Friday, Feb 24, 2023 - 09:09 PM (IST)

नई दिल्लीः दो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों (सीईसी) ने शिवसेना के चुनाव चिह्न से संबंधित विवाद पर चुनाव आयोग द्वारा दिए गए फैसले का समर्थन किया है। उनका कहना है कि आयोग ने कई बार परखे गए सिद्धांत के आधार पर फैसला किया है, लेकिन संवैधानिक विशेषज्ञ मानते हैं कि फैसले में ‘‘खामी'' है क्योंकि निर्णय पर पहुंचने के लिए उद्धव ठाकरे गुट की संगठनात्मक इकाई की संख्या का आकलन नहीं किया गया।

चुनाव आयोग ने गत शुक्रवार को (महाराष्ट्र के मौजूदा मुख्यमंत्री) एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले गुट को वास्तविक शिवसेना माना और दिवंगत बाल ठाकरे द्वारा स्थापित अविभाजित शिवसेना का चुनाव चिह्न ‘धनुष-बाण' शिंदे गुट को आवंटित कर दिया। अप्रैल 2021 से मई 2022 तक मुख्य चुनाव आयुक्त रहे सुशील चंद्रा ने कहा कि ऐसे मामलों (पार्टी के भीतर चुनाव चिह्न का विवाद) में चुनाव आयोग ने हमेशा सादिक अली मामले में सुप्रीम कोर्ट के रुख का अनुपालन किया है। उन्होंने रेखांकित किया कि शीर्ष अदालत ने माना कि चुनाव आयोग ऐसे मामलों में फैसला लेने के लिए एकमात्र उचित प्राधिकार है।

चंद्रा ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कोई अंतरिम स्थगन नहीं दिया है जिसकी मांग उद्धव ठाकरे गुट की ओर से की गई थी। उल्लेखनीय है कि ठाकरे नेतृत्व वाले गुट को गत बुधवार को उस समय झटका लगा जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग द्वारा शिंदे गुट को असली शिवसेना मानने और ‘धनुष बाण' का चुनाव चिह्न आवंटित करने के फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। शीर्ष अदालत ने पार्टी की संपत्तियों और बैंक खातों को लेकर यथास्थिति बनाए रखने का अंतरिम आदेश देने से भी इनकार कर दिया। हालांकि, पीठ ने कहा कि वह ठाकरे की याचिका पर सुनवाई कर रही है लेकिन ‘‘वह इस समय स्थगन आदेश नहीं दे सकती क्योंकि वे (शिंदे गुट) चुनाव आयोग के समक्ष सफल हो चुके हैं।''

शीर्ष अदालत मंगलवार को चुनाव आयोग द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ ठाकरे गुट की याचिका पर सुनवाई को सहमत हो गई। जुलाई 2010 से जून 2012 तक मुख्य चुनाव आयुक्त रहे एस वाई कुरैशी ने भी कहा कि चुनाव आयोग का आदेश ‘‘उम्मीदों के अनुरूप'' है। उन्होंने कहा कि सांसदों और विधायकों (पार्टी के विधायक दल) की संख्या ‘‘हमेशा'' फैसला लेने में अहम होती है।

कुरैशी ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 1971 में दिए गए फैसले को याद किया जिसमें कहा गया था कि अंतर पार्टी विवाद संपत्ति विवाद नहीं है जहां पर परिवार लड़ते हैं और संपत्ति विभाजित की जाती है। उन्होंने कहा, ‘‘ इसमें विजेता सबकुछ ले जाता है... अगर एक गुट पार्टी है (या सामान्य भाषा में मूल पार्टी है), तो पार्टी में विभाजन का सवाल ही नहीं है।'' पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि चुनाव आयोग ने यह फैसला लेने में सात से आठ महीने का समय लिया है और अगर कुछ दिन इंतजार किया जाता तो सुप्रीम कोर्ट को फैसला करने का मौका मिल जाता।

कुरैशी ने कहा कि चुनाव आयोग द्वारा विधायकों के संख्याबल पर फैसला करना सही है लेकिन आगे बढ़कर उन विधायकों द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले मतदाताओं की संख्या का उल्लेख करना ‘‘अनावश्यक था''। उन्होंने कहा कि यह ‘‘अतार्किक'' होता क्योंकि मतदाताओं ने पाला नहीं बदला, लेकिन विधायकों ने ऐसा किया। उन्होंने कहा कि अंतत: मतदाताओं की निष्ठा का परीक्षण चुनाव है।

लेकिन संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव पी डी टी अचारी इससे अलग राय रखते हैं और मानते हैं कि चुनाव आयोग के फैसले में ‘‘खामी'' है क्योंकि उसने संगठनात्मक इकाई की संख्या पर विचार नहीं किया जो ठाकरे का समर्थन कर रहा है। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग द्वारा फैसला लिए जाने से पहले संगठन के साथ-साथ पार्टी के विधायक दल की ताकत पर गौर किया जाता रहा है और इस सिद्धांत को सुप्रीम कोर्ट ने सादिक अली मामले में स्वीकार किया था।

अचारी ने रेखांकित किया, ‘‘खासतौर पर इस मामले में चुनाव आयोग ने शिंदे गुट को असली पार्टी होने के फैसले पर पहुंचने के लिए पार्टी की केवल विधायी इकाई पर गौर किया।'' उन्होंने कहा कि उनके मुताबिक जो अर्हता तय की गई है और जिसे शीर्ष अदालत ने भी माना है उसके अनुसार चुनाव आयोग का फैसला ‘‘बहुत सही'' नहीं है। अचारी ने रेखांकित किया कि चुनाव आयोग ने संगठन पर गौर करने का कारण भी बताया है। उनके मुताबिक, आयोग ने कहा कि पार्टी का संविधान का कार्य करने का तरीका बहुत अधिक लोकतांत्रिक नहीं है और सभी शक्तियां ‘शीर्ष व्यक्ति' (ठाकरे) के हाथ में निहित हैं।

अचारी ने कहा, ‘‘चुनाव आयोग अपनी सीमा से परे नहीं जा सकता और आयोग यह फैसला नहीं कर सकता कि पार्टी को कौन सा ढांचा अपनाना चाहिए। उन्हें अपनी इच्छा से ढांचा चुनने की आजादी है।'' उन्होंने कहा, ‘‘चुनाव आयोग का यह संवैधानिक कार्य नहीं है कि तय करे कि अध्यक्ष को अधिक शक्तियां प्राप्त हैं या महासचिव को...और उसके आधार पर रुख तय करे...यह खामी फैसले में है। यह अपूर्ण है और तय करने के लिए पार्टी की विधायी इकाई पर ही सीमित रहने का फैसला अपूर्ण है...फैसले में खामी है।''


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Content Writer

Yaspal

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