न्याय की दौड़ में उत्तर भारत क्यों है पीछे, जानिए इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 क्या कहती है?
punjabkesari.in Friday, May 02, 2025 - 01:45 PM (IST)

नेशनल डेस्क: देश में न्याय व्यवस्था कैसी है? क्या सभी नागरिकों को समान रूप से न्याय मिल रहा है? इन सवालों का जवाब देती है इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025। यह रिपोर्ट साफ़ तौर पर दिखाती है कि भारत के दक्षिणी राज्य जहां न्याय व्यवस्था को बेहतर बनाने में आगे हैं वहीं उत्तर भारतीय राज्य पिछड़ते नजर आ रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, सुधार तो हुए हैं लेकिन ये सुधार क्षेत्रीय असमानता के साथ हुए हैं।
रिपोर्ट क्या कहती है?
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (आईजेआर) को टाटा ट्रस्ट और कई अन्य संगठनों ने मिलकर तैयार किया है। इसका मकसद है कि नीति निर्माता इन आंकड़ों के आधार पर न्याय व्यवस्था में सुधार करें। रिपोर्ट में पुलिस, जेल, कानूनी सहायता, न्यायपालिका और मानवाधिकार जैसे पांच प्रमुख स्तंभों के प्रदर्शन का मूल्यांकन किया गया है।
दक्षिण बनाम उत्तर: असमानता क्यों?
आईजेआर में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारतीय राज्य शीर्ष पांच में हैं। वहीं उत्तर भारत के राज्यों का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और राजस्थान जैसे राज्य रिपोर्ट में निचले पायदान पर हैं। रेणु मिश्रा, जो लखनऊ स्थित एएएलआई की निदेशक हैं, मानती हैं कि "उत्तर भारत के सामाजिक ढांचे में ग़लत करने पर दंड देने की प्रवृत्ति नहीं है। वहीं दक्षिण भारत ने जवाबदेही को गंभीरता से लिया है।" पूर्व डीजीपी आर श्रीकुमार कहते हैं कि "दक्षिणी राज्यों में पुलिस आधुनिकीकरण और न्याय प्रणाली के डिजिटलीकरण पर फोकस किया गया है, जिससे व्यवस्था में पारदर्शिता आई है।"
महिलाओं की भागीदारी और पुलिस में लापरवाही
रिपोर्ट बताती है कि पुलिस बल में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 11.8% है, जबकि इसे 33% तक ले जाने का लक्ष्य है। इसके अलावा, 2007 से 2022 तक महिलाओं की भागीदारी 3.3% से बढ़कर 11.8% हुई है — यानी इसमें सुधार बहुत धीमा है।nरेणु मिश्रा के अनुसार, "महिलाओं की शिकायतें अक्सर नजरअंदाज कर दी जाती हैं। घरेलू हिंसा के मामलों को दर्ज ही नहीं किया जाता क्योंकि पुलिस उन्हें गंभीरता से नहीं लेती।" पूर्व आईपीएस किरण बेदी का मानना है कि “महिला नेतृत्व से बदलाव संभव है, कोटा भरने से नहीं”। जबकि जस्टिस अंजना प्रकाश कहती हैं कि "महिलाएं अपने काम में निपुण हैं, भले वे किसी भी पद पर हों।"
न्यायालयों की स्थिति और जजों की भारी कमी
देश की आबादी 140 करोड़ है लेकिन न्यायपालिका में सिर्फ 21,285 जज हैं। जबकि विधि आयोग के अनुसार हर 10 लाख लोगों पर 50 जज होने चाहिए। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में एक जज पर 15,000 से अधिक मुकदमे हैं। जबकि राष्ट्रीय औसत 2,200 मामले प्रति जज है। पश्चिम बंगाल में एक जज के जिम्मे 1,14,334 लोग हैं, जो चिंताजनक स्थिति है।
जेलों की स्थिति और विचाराधीन कैदी
देश की अधिकतर जेलों में क्षमता से अधिक कैदी हैं। इनमें से 76% कैदी विचाराधीन हैं यानी जिनका मुकदमा अब तक खत्म नहीं हुआ है। उदाहरण के तौर पर, तिहाड़ जेल, मुरादाबाद, ज्ञानपुर जेल और कोंडी उप जेल में 400% से अधिक कैदी हैं, जबकि इतनी क्षमता नहीं है।
राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका
पूर्व आईपीएस श्रीकुमार के अनुसार, "न्याय व्यवस्था कैसी होगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि राजनीतिक नेतृत्व कितना दूरदर्शी और सक्रिय है। अगर नेतृत्व सुधारों में रुचि न ले तो व्यवस्था ठप हो जाती है।" सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस गोपाल गौड़ा कहते हैं कि "अदालतें कार्यपालिका को जवाबदेह बना सकती हैं, लेकिन उसके लिए उन्हें जनहित के प्रति सजग होना होगा।"
क्या समाधान संभव है?
पूर्व हाईकोर्ट जज अंजना प्रकाश का मानना है कि "हमें अपने नज़रिए में बदलाव लाने की ज़रूरत है। अब भी हम समान न्याय की अवधारणा से दूर हैं। वहीं श्रीकुमार कहते हैं कि डिजिटल तकनीक, जैसे क्लाउड कंप्यूटिंग, मोबाइल ऐप, ब्लॉकचेन, एआई और एमएल टूल्स की मदद से 2-3 साल में बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि 1973 बैच के आईपीएस अधिकारियों ने यह सुझाव दिया था कि रिटायर्ड अधिकारी पुलिस जांच में सुधार के लिए सक्रिय भूमिका निभाएं।