सिस्टम सुधारे बिना सख्त कानून ‘बेअसर’
punjabkesari.in Saturday, Apr 28, 2018 - 02:11 AM (IST)
नेशनल डेस्कः यह एक तथ्य तो है ही, हकीकत भी है कि कानून को चाहे जितना सख्त बना दीजिए, जब तक उस पर अमल कराने के लिए जिम्मेदार संस्थाएं और व्यक्ति सक्षम नहीं होंगे तब तक 20 साल, उम्रकैद और फांसी जैसी सजाओं पर ठोस कार्रवाई होना नामुमकिन है। केवल अपनी मर्जी या जनता के आक्रोश को ठंडा करने के चक्कर में पता नहीं कितने कानून हमारी किताबों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
इस वास्तविकता को देखते हुए न केवल न्यायिक प्रक्रिया को सरल, दोष रहित बनाना होगा, पीड़ित के हित को सर्वोपरि रखना होगा, बल्कि उसके लिए धन की पूॢत सहित वे सभी उपाय करने होंगे जो न्याय की आशा लगाए व्यक्तियों में विश्वास पैदा कर सकें। इसलिए जरूरी हो जाता है कि सरकार पोक्सो कानून में जो कमियां हैं उन्हें दूर करने के लिए ठोस कदम उठाए और जब संसद में इसे रखा जाए तो वे सब प्रावधान हों जो न्याय पाने के लिए अनिवार्य हैं।
उदाहरण के लिए पोक्सो कानून में प्रावधान है कि उसके अन्तर्गत मामलों का निपटारा करने के लिए विशेष अदालतों का गठन होगा, विशेष प्रासीक्यूटर होंगे और ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि आरोपी को सजा देने और पीड़ित को राहत मिलने में कम से कम समय लगे।
लीपापोती न हो : हमने क्या किया, इस पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि जो किया है वह केवल लीपापोती है। विशेष अदालतों को विशेष रूप से गठित करने की बजाय हमने सैशन अदालतों को ही विशेष अदालत का दर्जा दे दिया। अब इनमें वकील से लेकर जज तक वही लोग हैं जो आतंकी, नारकोटिक्स, तस्करी, मिलावटखोरी जैसे मामलों की सुनवाई करते हैं। उनकी कार्यप्रणाली और मानसिक स्थिति बच्चों के साथ हुए यौन उत्पीडऩ और बलात्कार जैसे मामलों में भी वही रहती है जो दूसरे मामलों में होती है। पुलिस का रवैया भी दोनों अवस्थाओं में एक जैसा ही रहता है।
ज्यादातर मामलों में होते हैं निकटतम संबंधी
हमारी न्याय व्यवस्था की जिम्मेदारी ओढऩे वाले यह भूल जाते हैं कि पीड़ित बच्चे जहां एक ओर बहुत कोमल स्वभाव के होते हैं, वहीं ज्यादातर मामलों में उनके साथ यह घिनौनी हरकत करने वाले या तो उनके हमउम्र अथवा कुछ साल बड़े होते हैं या फिर ज्यादातर मामलों में परिवार के परिचित, मित्र, संबंधी होते हैं जिनके प्रति बच्चों के मन में वह भावना नहीं होती जो किसी अपराधी के प्रति होती है और वे उनके खिलाफ बोलने में संकोच करते हैं। बच्चे की सोच तब क्या होती होगी जब परिवार के लोग ही अपनी झूठी इज्जत को बचाने के लिए उस बच्चे पर दबाव डालने लगते हैं कि वह कुछ न कहे। जो आरोपी है उसे उस मन:स्थिति का लाभ मिल जाता है और वह बरी हो जाता है।
इसके विपरीत यदि अपराधी कोई बदमाश, अपहरणकत्र्ता या गुंडा होता है तो अदालत में उसकी मौजूदगी में बालिका सच कहना तो दूर, बोलने में भी हिचकिचाती है। वकील बच्चों से आरोपी के सामने ही तरह-तरह के सवाल पूछते हैं और जब बच्चा चुप रहता है तो उसे उसकी सहमति समझकर अक्सर आरोपी को जमानत मिल जाती है और वह वकीलों के दावपेंच की बदौलत बरी भी हो जाता है।
जिन मामलों में पीड़ित बच्चे के माता-पिता सम्पन्न और रसूखदार होते हैं तो वे न्याय पाने के लिए सब कुछ करते हैं लेकिन अफसोस यह है कि अधिकतर मामलों में पीड़ित बच्चे गरीब घरों के होते हैं। अदालत से न्याय दिला पाना न तो उनकी औकात में होता है और न ही वह उनकी प्राथमिकता होती है।
जांच का तरीका : पुलिस के लोग पूरी तरह कर्मठ, मुस्तैद और अपने कत्र्तव्य के प्रति समर्पण भाव रखने के बावजूद इस तरह की जांच-पड़ताल के लिए उचित प्रशिक्षण के अभाव में अक्सर ऐसी गलतियां अनजाने में कर जाते हैं जिससे मामला संदेहास्पद बन जाता है और आरोपी छूट जाता है।
बहुचर्चित आरुषि-हेमराज हत्याकांड में पुलिस के अप्रशिक्षित होने के कारण वे सभी सबूत मिट गए जो अपराधी तक पहुंचने में निर्णायक भूमिका अदा कर सकते थे। इसके कारण अभी तक सही अपराधी तक पहुंच नहीं पाए और इस दौरान उनके माता-पिता ने अपराधी की हैसियत से अनेक वर्ष जेल में गंवा दिए और उन्हें बाद में अपराधी न मानते हुए बरी भी कर दिया गया।
पोक्सो कानून में साफ कहा गया है कि बाल यौन अपराधों के लिए जांचकर्ता एजेंसियों को सक्षम बनाने के लिए उचित मार्गदर्शन और प्रशिक्षण का इंतजाम अनिवार्य है। दुख की बात है कि निर्भया कोष के नाम पर रखी गई विशाल राशि का इस मद में कतई इस्तेमाल नहीं हुआ। अब जब पुलिस या जांचकत्र्ता एजैंसी ही इतनी काबिल नहीं होगी कि सबूत जुटाने में लापरवाही न हो तो फिर उसके नतीजे तो आरोपी के लिए फायदेमंद ही होंगे।
घटनास्थल पर लोगों की भीड़ सबूत मिटाने की करती है कोशिश
सामान्य पुलिस का काम केवल इतना होना चाहिए कि वारदात की जगह पर कोई भी किसी तरह की छेड़छाड़ न कर सके। इसके बाद पुलिस का कर्तव्य है कि डाक्टर, फोटोग्राफर और फोरैंसिक एक्सपर्ट को बुलाने की व्यवस्था करे और उनके आने पर स्थल को उनके हवाले कर दे। अभी तक यह होता आया है कि जब तक विशेषज्ञ वहां पहुंचते हैं, घटनास्थल पर बहुत कुछ बदल जाता है। सबसे ज्यादा लोगों की भीड़ सबूत नष्ट करने का काम करती है।
पीड़िता के वस्त्र बदल दिए जाते हैं, उसके यौनांग तथा दूसरे अंगों की सफाई कर दी जाती है और आरोपी को भी इस बात की मोहलत मिल जाती है कि वह अपने बच निकलने का कोई रास्ता सोच सके।
पीड़ित का भविष्य : जरा सोचिए दुष्कर्म के बाद पीड़िता को भी उन बाल सुधार गृहों में भेजा जाता है जहां दूसरे बाल अपराधी होते हैं। चाइल्ड हैल्पलाइन और चाइल्ड वैल्फेयर कमेटी के पास इतने संसाधन ही नहीं होते कि वे बलात्कार पीड़ित के शारीरिक उपचार के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक ढंग से उसकी मनस्थिति को समझकर चिकित्सा का प्रबंध करें।
यही कारण है कि पीड़िता दुष्कर्म के बाद स्वयं से घृणा करने लगती है, वह अपने को ही अपराधी मानने लगती है और आत्महत्या करने तक का कदम उठा लेती है। उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद हो जाती है। मां-बाप भी उसे बोझ समझने लगते हैं, मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करते हैं और जल्द से जल्द उसकी शादी कर देने की बात सोचने लगते हैं।
लोगों को हीनभावना से बाहर आना होगा
ऐसे मामलों में होना तो यह चाहिए कि सरकार प्रतिष्ठित तथा गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर रिहैब्लिटेशन सैंटर बनाए, जहां पीड़ित बच्चियां जीवन को सकारात्मक ढंग से लें और अपने आप को अपराधबोध, ट्रोमा और हीनभावना से बाहर निकाल सकें। इस प्रकार के सैंटरों में बाल चिकित्सकों, संवेदनशील पुलिसकर्मियों और बाल मनोविज्ञान समझने वाले विशेषज्ञों की स्थायी नियुक्ति का प्रबंध हो। इसमें पीड़िता के मन से दुखद स्मृति को निकाल पाना संभव हो पाएगा और वह जीवन को पहले की तरह बल्कि अधिक ऊर्जा से जीने को प्राथमिकता बना लेगी। - पूरन चंद सरीन