कार्तिक मास: शास्त्रों से जानें, क्यों निकाली जाती हैं प्रभात फेरियां
punjabkesari.in Monday, Oct 14, 2019 - 07:49 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
प्रभात का अर्थ है सुबह का समय अर्थात सुबह 4 बजे के उपरांत जो वक्त होता है, वह प्रभात का है। फेरी का अर्थ है आस पास घूमना। धार्मिक रूप से इसे कीर्तन से जोड़ा जाता है। जिसे मन की शांति के लिए किया जाता है। पापकुंशा एकादशी से कार्तिक माह का आरंभ हो गया है। इस महीने में तारों की छांव में प्रभात फेरियां निकलती हैं। हमारे धर्म ग्रंथों में हरिनाम कीर्तन की बड़ी भारी महिमा बताई गई है। कीर्तन जोर-जोर से होता है और इसमें संख्या का कोई हिसाब नहीं रखा जाता। यही जप और कीर्तन में भेद है, जप जितना गुप्त होता है उतना ही उसका अधिक महत्व है, जबकि कीर्तन जितना ही गगन भेदी स्वर में होता है उतना ही उसका महत्व बढ़ता है। कीर्तन के साथ संगीत का संबंध है। कीर्तन में पहले-पहले स्वरों की एकतानता करनी पड़ती है। कीर्तन के कई प्रकार हैं-
अकेले ही भगवान के किसी नाम को आर्तभाव से पुकार उठना, जैसे द्रौपदी, गजराज आदि ने पुकारा था।
अकेले ही भगवान के गुणनाम, कर्मनाम, जन्मनाम और संबंध-नामों का विस्तारपूर्वक या संक्षेप में जोर-जोर से उच्चारण करना।
भगवान के किसी चरित्र या भक्त चरित्र के किसी कथा भाग का गान करना और बीच-बीच में नाम-कीर्तन करना।
कुछ लोगों का एक साथ मिलकर प्रेम से भगवन्नाम गान करना।
अधिक लोगों का एक साथ मिलकर एक स्वर से नाम-कीर्तन करना। इसके सिवा और भी अनेक भेद हैं। जब मनुष्य किसी दुख से घबराकर जगत के सहायकों से निराश होकर भगवान से आश्रय-याचना करता हुआ जोर से उनका नाम लेकर पुकारता है तब भगवान उसी समय भक्त की इच्छा के अनुकूल स्वरूप धारण करके उसे दर्शन देते हैं और उसका दुख दूर करते हैं।
भगवान के रामावतार और कृष्णावतार में असुरों के द्वारा पीड़ित सुर-मुनियों ने मिलकर पहले आर्त स्वर से कीर्तन ही किया था। जिस समय देवी द्रौपदी कौरवों के दरबार में केश पकड़कर लाई जाती है, दुर्योधन उसके वस्त्रहरण के लिए अमित बलशाली दुशासन को आज्ञा देता है, उस समय द्रौपदी को यह कल्पना ही नहीं होती कि इस बड़े-बूढ़े, धर्मज्ञ, विद्वान और वीरों की सभा में ऐसा अन्याय होगा परन्तु जब दुशासन सचमुच वस्त्र खींचने लगता है तब द्रौपदी घबराकर राजा धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य आदि तथा अपने वीर पांच पतियों की सहायता चाहती है।
जब ऐसी दशा में भी भिन्न-भिन्न कारणों से कोई भी उस समय द्रौपदी को छुड़ाने के लिए तैयार नहीं होता, तब वह सबसे निराश हो जाती है। सबसे निराश होने के बाद ही भगवान की अनन्य स्मृति करती है। दुशासन बड़े जोर से साड़ी खींचता है। एक झटका और लगते ही द्रौपदी की लज्जा जा सकती है। द्रौपदी की उस समय की दीन अवस्था हम लोगों की कल्पना में भी पूरी नहीं आ सकती। महलों के अंदर रहने वाली एक राजरानी, पृथ्वी के सबसे बड़े-पांच वीरों द्वारा रक्षिता कुलरमणी बड़े बूढ़े तथा वीर पतियों के सामने निर्वस्त्र की जाती हो, उस समय उसको कितनी मर्म-वेदना होती है इस बात को वही जानती है।
अंतत: द्रौपदी ने निराश होकर भगवान का स्मरण किया और वह व्याकुल होकर पुकार उठी-‘‘हे द्वारकावासी गोविंद! हे गोपीजनप्रिय कृष्ण! क्या मुझ कौरवों से घिरी हुई को तू नहीं जानता? हे नाथ, रमानाथ, ब्रजनाथ, दुखनाशक जनार्दन! मुझ कौरव रूपी समुद्र में डूबी हुई का उद्धार कर! हे विश्वात्मा! विश्वभावन कृष्ण! हे महायोगी कृष्ण! कौरवों के बीच में हताश होकर तेरे शरण आने वाली मुझको तू बचा!’’
व्याकुलतापूर्ण नाम-कीर्तन का फल तत्काल होता है। जब सब की आशा छोड़कर केवल मात्र परमात्मा पर भरोसा करके उन्हें एक मन से कोई पुकारता है तब वे करुणा सिंधु भगवान एक क्षण भी निश्चित और स्थिर नहीं रह सकते। उन्हें भक्त के काम के लिए दौडऩा ही पड़ता है। नाम की पुकार होते ही वस्त्रावतार हो गया! वस्त्र का ढेर लग गया। दस हजार हाथियों का बल रखने वाली दुशासन की भुजाएं फटने लगीं। दुशासन थक कर मुंह नीचा करके बैठ गया, द्रौपदी की लाज और उसका मान रह गया। भगवन्नाम कीर्तन का फल प्रत्यक्ष हो गया!
इसी प्रकार गजराज की कथा प्रसिद्ध है। वहां भी इसी तरह की व्याकुलतापूर्ण नाम की पुकार थी। यदि आज भी कोई वैसे ही सच्चे मन से व्याकुल होकर पुकारे तो यह निश्चय है कि उसके लोक-परलोक दोनों की सिद्धि निश्चित ही हो सकती है। इस बात का कई लोगों को कई तरह का प्रत्यक्ष अनुभव है। अतएव सुबह में, शाम में, रात में सोते समय हमेशा भगवन्नाम का कीर्तन अवश्य करना चाहिए। जहां तक हो सके कीर्तन निष्काम एवं केवल प्रेम भाव से ही करना उचित है।
यह तो व्यक्तिगत नाम-कीर्तन की बात हुई। इसके बाद समुदाय में नाम-कीर्तन का तरीका बतलाया जाता है। महाराष्ट्र और गुजरात में कीर्तनकारों के अलग समुदाय हैं जो हरिदास कहलाते हैं। ये लोग समय-समय पर मंदिरों, धर्मसभाओं और उत्सवों के अवसर पर बुलाए जाते हैं, इनका कीर्तन बड़ा सुंदर होता है। भगवान की किसी लीला-कथा को या भक्तों के किसी चरित्र को लेकर ये लोग कीर्तन करते हैं। आरंभ में किसी भक्त का कोई एक श्लोक या पद गाते हैं और उसी पर उनका सारा कीर्तन चलता है, अंत में उसी श्लोक या पद के साथ कीर्तन समाप्त किया जाता है। आरंभ में, अंत में और बीच-बीच में हरि-नाम की धुन लगाई जाती है, जिसमें श्रोतागण भी साथ देते हैं। ये लोग गाना-बजाना भी जानते हैं और कम से कम हारमोनियम तथा तबलों के साथ इनका कीर्तन होता है। बीच-बीच में सुंदर पद भी गाते हैं।
इसके बाद वह कीर्तन आता है, जो सर्वश्रेष्ठ है जिसका इस युग में विशेष प्रचार महाप्रभु श्री गौरांगदेव जी की कृपा से हुआ। इसमें बहुत से लोग एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। एक आदमी एक बार पहले बोलता है, उसके पीछे-पीछे सब बोलते हैं, पर आगे चलकर सभी एक साथ बोलने लगते हैं। किसी एक नाम की धुन को सब एक स्वर में बोलते हैं। ढोल, करताल, झांझ और तालियां बजाते हुए गला खोलकर लज्जा छोड़कर बोलते हैं। जब धुन जम जाती है तब स्वर का ध्यान आप ही छूट जाता है। कीर्तन करने वाला दल धुन में मस्त हो जाता है, फिर कीर्तन की मस्ती में नृत्य आरंभ होता है। रग-रग नाचने लगती है, आंखों से अश्रुओं की धारा बहने लगती है, शरीर-ज्ञान नष्ट हो जाता है। नवद्वीप, वृंदावन, अयोध्या और पण्ढरपुर में ऐसे कीर्तन बहुत हुआ करते हैं। यह कीर्तन किसी एक स्थान में भी होता है और घूमते हुए भी होता है। इस प्रकार के कीर्तन में प्रेम का सागर उमड़ता है जो जगत भर को पावन कर देता है। इस कीर्तन में सभी शामिल हो सकते हैं। जिसको प्रेम उपजा, वही सम्मिलित हो गया, कोई रुकावट नहीं। वही बड़ा है, वही श्रेष्ठ है जो प्रेम से नाम-कीर्तन में मतवाला होकर स्वयं पावन होता है और दूसरों को पावन करता है।
इस कीर्तन से एक बड़ा लाभ और होता है। हरिनाम की तुमुल ध्वनि पापी, पतित, पशु, पक्षी तक के कानों में जाकर सबको पवित्र और पापमुक्त करती है। जिसके वश्रणरंध्र से भगवन्नाम उसके हृदय में चला जाता है उसी के पाप-मल को वह धो डालता है। जिस हरिनाम-कीर्तन का ऐसा प्रताप है, जो मनुष्य जीभ पाकर भी उसका कीर्तन नहीं करते वे निश्चय ही मंदभागी हैं। कुछ लोग कहा करते हैं कि हमें जोर-जोर से भगवन्नाम लेने में संकोच होता है। कई लोगों को पांच आदमियों के सामने या रास्ते में हरिनाम की पुकार करने में लज्जा आती है। धन्य वही है जिसके भगवन्नाम के कीर्तन मात्र से, श्रवण और स्मरण मात्र से रोमांच हो जाता है। नेत्रों में आंसू भर आते हैं, कंठ रुक जाता है।
वास्तव में वही आदमी मनुष्य नाम के योग्य है। ऐसे लोग ही जगत को पावन करते हैं। श्रीमद् भागवत में भगवान कहते हैं-‘‘जिसकी वाणी गद्गद् हो जाती है, हृदय द्रवित हो जाता है जो बारंबार ऊंचे स्वर से नाम ले-लेकर मुझे पुकारता है, कभी रोता है कभी हंसता है और कभी लज्जा छोड़कर नाचता है, ऊंचे स्वर से मेरा गुणगान करता है ऐसा भक्तिमान पुरुष अपने को पवित्र करे इसमें तो बात ही क्या है, परन्तु वह अपने दर्शन और भाषण आदि से जगत को पवित्र कर देता है।’’
यही कारण था कि कीर्तन परायण भक्तराज नारदजी और श्रीगौरांगदेव आदि के दर्शन और भाषण आदि से ही अनेक जीवों का उद्धार हो गया। कीर्तन की महिमा क्या कही जाए? जो कभी कीर्तन करता है उसी भाग्यवान को इसके आनंद का पता है। जिसे यह आनंद प्राप्त करना हो वह स्वयं करके देख ले। वाणी इस आनंद के रूप का वर्णन नहीं कर सकती, क्योंकि यह गूंगे के गुड़ के समान केवल अनुभव की वस्तु है।