Interview: ये किरदार इतना अलग था कि मुझे शुरुआत में थोड़ी घबराहट भी हुई थी- वाणी कपूर
punjabkesari.in Friday, Aug 08, 2025 - 01:28 PM (IST)

नई दिल्ली/टीम डिजिटल। कुछ कहानियां आपको सोचने पर मजबूर करती हैं, कुछ डराती हैं… पर फिर आती है मंडला मर्डर्स , जो आपको कहानी का हिस्सा बना देती है। नेटफ्लिक्स की इस सीरीज ने दिखाया कि जब डायरेक्शन, परफॉर्मेंस और स्क्रिप्ट , तीनों अपनी जगह पर हों, तो जादू कैसे रचता है। मंडला मर्डर्स जो 25 जुलाई को नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हो चुकी है , को लोगों द्वारा काफी पसंद किया जा रहा है क्यूंकि इसमें कहानी को एकदम अलग तरीके से पेश किया गया है। सीरीज़ में वाणी कपूर, सुरवीन चावला और वैभव राज गुप्ता लीड रोल निभा रहे हैं और इसको डायरेक्ट किया है गोपी पुथ्रन ने। इसी के चलते सीरीज की लीड एक्टर वाणी कपूर और डायरेक्टर गोपी पुथ्रन ने पंजाब केसरी, नवोदय टाइम्स, जगबाणी और हिंद समाचार के लिए संवाददाता संदेश औलख शर्मा से खास बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश
वाणी कपूर
जो 'मंडला मर्डर्स' का रिस्पांस मिल रहा है उसे देखकर कैसा महसूस हो रहा है ?
मैं बहुत खुश हूँ। जब भी कोई मुझे बोलता है कि मंडला मर्डर्स देखी , वो बहुत अच्छी कहानी है मुझे लगता है कि ये एक बेहद दिल को छू लेने वाला अनुभव है। मैं बहुत खुश हूँ और बस दिल से आभारी हूँ। इस वक़्त मेरे मन में केवल ग्रिटीट्यूड है और चेहरे पर एक मुस्कान कि जो कुछ नया करने की कोशिश की थी, वो लोगों से जुड़ पाया। और इसके लिए मैं गोपी सर की बहुत आभारी हूं, जिन्होंने मुझे ये मौका दिया।
क्राइम थ्रिलर सीरीज का हिस्सा बनने का एक्सपेरिएंस कैसा रहा ?
मुझे ये किरदार निभाकर वाकई बहुत अच्छा लगा। 'रिया थॉमस' जैसा कैरेक्टर मुझे पहले कभी निभाने का मौका नहीं मिला था। जिस चीज ने मुझे सबसे ज़्यादा आकर्षित किया, वो थी इस कहानी की जटिलता और गहराई। गोपी सर की एक बहुत ही अलग और खास कहानी कहने की शैली है वो रूटेड हैं, इमोशनल हैं, और उनकी कहानियों में एक अनपेक्षित मोड़ भी होता है, जो दर्शकों को बांध कर रखता है। इस कहानी में भी एक अलग ही गहराई है। हर किरदार एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है, लेकिन जब ये सभी मिलकर एक रहस्य को सुलझाने के लिए साथ आते हैं वो सफर बहुत आकर्षक है। मैं बहुत आसानी से खुद को उनके विज़न के हवाले कर सकी, क्योंकि मुझे उन पर पूरा भरोसा था। ये किरदार इतना अलग था कि मुझे शुरुआत में थोड़ी घबराहट भी हुई थी कि क्या मैं इसे ठीक से निभा पाऊंगी? क्या लोग इसे स्वीकार करेंगे? इस किरदार को बड़े ही अनोखे ढंग से डिजाइन किया गया था और शायद इसलिए ये सफर मेरे लिए और भी ज़्यादा खास बन गया।
इस किरदार की मानसिकता को समझने के लिए आपने कितना टाइम लिया और आपने उसे कैसे समझा ?
मैंने इस किरदार के लिए रिसर्च भी की थी और गोपी सर से लगातार बातचीत भी करती रहती थी। जो ब्रीफ़ और उसका ढांचा था, वो यही कहता था कि वो एक कॉप है लेकिन एक ऐसी कॉप जो अपने साथ एक गहरा बैगेज लेकर चलती है। वहीं रिया थॉमस उस दुनिया में बिल्कुल अलग थी एक आउटसाइडर , जो कहीं और से आई थी ये केस सुलझाने के लिए। उसका स्वभाव चमकीला या बहुत ज़्यादा स्मार्ट नहीं था। उसमें एक नियंत्रित ख़ामोशी थी। इस किरदार में किसी भी तरह का ग्लैमर या क्यूटनेस की ज़रूरत नहीं थी उसमें बस ईमानदारी और दृढ़ निश्चय होना चाहिए था। एक ऐसा इंटेलिजेंस था उसके अंदर जो जटिल था वो तेज़-तर्रार थी, लेकिन शांत। उसके किरदार की जो लेयर्स थी, वो बहुत इंटरनल थीं। जैसे अगर आप कभी किसी पीटीएसडी से पीड़ित व्यक्ति को देखेंगे, तो वो बहुत एक्सप्रेसिव नहीं होता, अपनी पर्सनल चीज़ें आसानी से साझा नहीं करता ,रिया भी वैसी ही थी। तो मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि कैसे उस किरदार की सारी कम्प्लेक्सिटी को एकदम सही तरीके से दिखाया जाए। उस फ्रेमवर्क के अंदर रहकर उस किरदार को ईमानदारी से निभाना , यही सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण अनुभव रहा।
जब सीरीज़ बन रही थी तब आपका माइंड सेट क्या था ?
मैं तो बहुत खुश हूँ जिस तरह का रिस्पांस मिल रहा है। बहुत ही चुनौतीपूर्ण होता है कुछ नया लाना क्योंकि या तो वो बहुत सही जाता है या फिर बहुत गलत भी जा सकता है। तो ये चुनौतीपूर्ण भी है और एक्साइटिंग भी है कि ये जो कहानी , ये जो दुनिया है जो काफी अलग है वो बहुत पसंद की जा रही है।
गोपी पुथ्रन
मंडला मर्डर्स को लेकर आपको कैसा रिस्पांस मिल रहा है ?
जब हम इस प्रोजेक्ट को बना रहे थे, तो हमें इस बात की समझ थी कि हम एक ऐसी राह पर चल रहे हैं, जिसे ‘द रोड लेस ट्रैवल्ड’ कहा जाता है यानी एक ऐसी दिशा, जहां पहले ज़्यादा लोग नहीं गए। इसका मतलब था कि हमें इस जंगल में अपनी राह खुद बनानी होगी ,चाहे रास्ते के पत्थर तोड़ने हों या नई दिशा तय करनी हो। इसलिए जब 25 तारीख को ये रिलीज़ हुआ, तो मन में एक बेचैनी ज़रूर थी कि पता नहीं क्या होगा। क्योंकि ये कुछ सामान्य या आसान नहीं था, और बहुत आसानी से इसे नकारा भी जा सकता था। लेकिन पिछले एक हफ्ते में जो सबसे शानदार अनुभव रहा, वो था अलग-अलग जगहों से आए मैसेजेस। और इन सब में एक चीज़ कॉमन थी , सबने कहा कि कितना यूनिक कॉन्सेप्ट है, कैसे ये सीरीज़ एक बिलकुल अलग दुनिया में ले जाती है। जब मैंने ये सब पढ़ा और सुना, तो सच कहूं तो लगा कि पिछले साढ़े चार साल की मेहनत, जो हमने पूरी टीम के साथ मिलकर की, वो पूरी तरह रंग लाई। वो एहसास वाकई बेहद सुकून देने वाला था।
सीरीज़ को बनाते वक्त कौनसा ऐसा पार्ट था जो आपको सबसे चुनौतीपूर्ण लगा था और अब जब सीरीज़ रिलीज़ हो चुकी है तो आपको लगा कि मेहनत रंग ला गई ?
मेरे लिए सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा वो वक़्त था, जब हम इस प्रोजेक्ट पर लगातार चार साल से काम कर रहे थे। इतने लंबे समय में एक ऐसा मोड़ आता है जब हर तरफ से तूफान आता है बाहर से भी और अंदर से भी और तब आपके सामने कुछ बुनियादी, अस्तित्व से जुड़े सवाल खड़े हो जाते हैं कि क्या हम जो कर रहे हैं वो सही है? क्या इसकी वाकई जरूरत है? क्या ये सब व्यर्थ तो नहीं जा रहा? इन सवालों का सामना सिर्फ मैंने नहीं किया , वाणी ने भी किया, वैभव ने, सुरवीन ने, हमारे डीओपी ने, हमारे प्रोड्यूसर साहब ने भी। एक साल का प्री-प्रोडक्शन रहा। मैं एक उदाहरण दूँ तो जो यंत्र आपने स्क्रीन पर देखा, उसे इंजीनियर्स और आर्किटेक्ट्स ने साथ मिलकर डिज़ाइन किया गया। मुझे उसकी डिजाइनिंग में चार महीने लगे, और उसे बनवाने में भी चार महीने। और ये तो बस एक उदाहरण है ऐसे ही एक-एक करके हमने पूरी दुनिया रची है। वाणी लगभग स्क्रिप्ट लिखने के कुछ ही समय बाद हमारे साथ जुड़ गई थीं, इसलिए उनके लिए ये एक बेहद लंबी यात्रा रही है। बाक़ी सभी कलाकारों के लिए भी ये एक डेडिकेटेड सफ़र रहा और जब हम उस मिडवे में थे जब हमें लगता था कि क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं या ये सब व्यर्थ हो जाएगा , मेरे हिसाब से वही पल सबसे ज़्यादा कठिन थे।
जब आप इस सीरीज़ को लिख रहे थे तो आपके दिमाग में रियल लाइफ केस स्टडी आई थी ?
नहीं जी, बिल्कुल नहीं और मैं ये 'बिल्कुल' शब्द बार-बार इसलिए दोहरा रहा हूँ, क्योंकि जो मेरी पिछली फिल्म मरदानी थी, वो पूरी तरह से रियल-लाइफ केसों पर आधारित थी। उन केसों से फैक्ट्स लेकर उनके इर्द-गिर्द फिक्शन बुना गया था। लेकिन इस बार मैं वही पैटर्न दोहराना नहीं चाहता था। ‘मंडला’ में मैंने अपने सबकॉन्शियस माइंड को पूरी तरह से खुला छोड़ दिया। बचपन में जो कहानियां हमने सुनी थी, जो टीवी पर देखी थी, जो विस्मय रस से भरी होती थीं जैसे एक रस होता है 'विस्मय रस', जो आपको चौंकाता है, चमत्कृत करता है वैसी कहानियां अब बहुत कम हो गई हैं। तो मेरे भीतर कहीं ये भावना थी कि क्यों न पहले खुद को, और फिर बाकी दर्शकों को, ऐसी एक कहानी सुनाई जाए।
कहानी के पेपर से स्क्रीन तक आने का सफर कैसा रहा ? क्या कुछ ऐसा है जो पहले स्क्रिप्ट में था और बाद में बदलना पड़ा ?
बिल्कुल, बिल्कुल। क्योंकि बतौर स्क्रिप्ट राइटर और डायरेक्टर, जब मैं दोनों भूमिकाएं निभा रहा होता हूँ, तो मेरे लिए एक चीज़ हमेशा स्पष्ट रहती है कि स्क्रिप्ट एक बेहतरीन गाइड का काम करती है और ज़रूरी नहीं कि उसे बिलकुल वैसा ही शूट किया जाए, असल बात है उसकी 'स्पिरिट' को समझना और उसे पकड़ना। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आपने कोई चीज़ लिख दी हो, लेकिन जब आप उसे विज़ुअली देखते हैं, महसूस करते हैं, तो वह खुद आपको बताने लगती है कि उसे किस दिशा में जाना है। जैसे वाणी ने अभी खूबसूरती से बताया कि रिया का किरदार कैसा था तो मेरा काम ये था कि वाणी के अंदर जो विशेषताएं थीं, उन्हें उस किरदार में कैसे सहज रूप से लाया जाए और अगर कभी स्क्रिप्ट उस फ्लो में रुकावट बन रही थी, तो हमने सीन को थोड़ा-बहुत बदला भी, क्योंकि सबसे ज़रूरी यह था कि वह किरदार और वह स्थिति 'जिंदा' लगे । इस कहानी की यही खूबसूरती है कि हर स्टेज पर हमने छोटे-छोटे बदलाव किए।
क्या आपको लगता है कि ओटीटी के ऑडियंस की उम्मीदें अलग होती है ? अगर हां तो जब सीरीज़ बन रही थी तब आपका माइंड सेट क्या था ?
100% मुझे लगता है कि आडियोंस की एक्सपेक्टेशन अलग हैं खास तौर पर जो कोविड का एक दौर गुजरा , उसमें तो मुझे लगता है कि बहुत स्टोरंगली ऑडियंस ने अपनी उम्मीदें बदल दी हैं। थिएटर में अभी वो एक तरीके का अनुभव लेने जाते हैं और ओटीटी पर अपने फ़ोन पर अलग और घर पर फॅमिली के साथ अलग अनुभव लेना चाहते हैं। सिचुएशन बिलकुल बदल चुकी हैं कहानियां उनको ओटीटी पर ज़्यादा एजी , ज़यादा अंतरभूद करने वाली और ज़्यादा कुछ हटके वाली चाहिए होती हैं।