स्वामी प्रभुपाद: भक्ति में व्यक्ति को किसी प्रकार के स्वार्थ की इच्छा नहीं रहती

punjabkesari.in Sunday, Feb 11, 2024 - 08:10 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।।6.2।।

अनुवाद : हे पांडुपुत्र ! जिसे संन्यास कहते हैं, उसे ही तुम लोग परब्रह्म से युक्त होना जानो क्योंकि इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छा को त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता।

PunjabKesari Swami Prabhupada

तात्पर्य : वास्तविक संन्यास योग या भक्ति का अर्थ है कि जीवात्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति को जाने और तद्नुसार कर्म करे। जीवात्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। वह परमेश्वर की तटस्था शक्ति है। जब वह माया के वशीभूत होता है तो वह बद्ध हो जाता है किन्तु जब वह कृष्णभावनाभावित रहता है अर्थात आध्यात्मिक शक्ति में सजग रहता है तो वह अपनी सहज स्थिति में होता है।

इस प्रकार जब मनुष्य पूर्णज्ञान में होता है तो वह समस्त इन्द्रियतृप्ति को त्याग देता है अर्थात समस्त इन्द्रियतृप्ति के कार्यकलापों का परित्याग कर देता है। इनका अभ्यास योगी करते हैं जो इंद्रियों को भौतिक आसक्ति से रोकते हैं, किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को तो ऐसी किसी भी वस्तु में अपनी इंद्रिय लगाने का अवसर ही नहीं मिलता, जो कृष्ण के निमित्त न हो।

PunjabKesari Swami Prabhupada

फलत: कृष्णभावनाभावित व्यक्ति संन्यासी तथा योगी साथ-साथ  होता  है। ज्ञान  तथा  इंद्रियग्रह  योग  के  ये दोनों प्रयोजन कृष्णभावनामृत द्वारा स्वत: पूरे हो जाते हैं। यदि मनुष्य स्वार्थ का त्याग नहीं कर पाता तो ज्ञान तथा योग व्यर्थ रहते हैं। जीवात्मा का मुख्य ध्येय तो समस्त प्रकार के स्वार्थों को त्यागकर परमेश्वर की तुष्टि करने के लिए तैयार रहना है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में किसी प्रकार के स्वार्थ की इच्छा नहीं रहती। वह सदैव परमेश्वर की प्रसन्नता में लगा रहता है।

PunjabKesari Swami Prabhupada
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Content Editor

Prachi Sharma

Related News