क्या आपका विवाह एक आत्मिक संयोग है ? जानें वैदिक विवाह के पांच स्वरूप और चक्रों का रहस्य

punjabkesari.in Thursday, Jun 26, 2025 - 07:40 AM (IST)

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इस श्रृंखला के पिछले भाग में हमने मणिपूरक चक्र पर स्त्री-पुरुष की शक्तियों के संयोग और उसके उद्देश्य के उल्लेख पर लेख समाप्त किया था। इस चक्र के बाद सूर्य चक्र पर स्थापित सम्बन्ध, जिस पर आज के अधिकतम विवाह मौजूद हैं राग,आसक्ति और बंधन के स्तर पर आधारित हैं। जब कोई सोचता है कि वह एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते और गलती से जिसे प्रेम समझ लिया जाता है, आमतौर पर ऐसे सम्बन्ध वैवाहिक रूप से विफ़ल होते हैं और अक्सर इनका परिणाम तलाक के रूप में देखने को मिलता है। विवाह की मूल अवधारणा ‘एकजुटता और एकता’ का इन सम्बन्धों में पूर्ण अभाव होता है। इस स्तर के विवाह में पति-पत्नी अपने स्वार्थ व इच्छाओं में इतने अंधे हो जाते हैं कि वह स्वयं को एक नहीं, बल्कि अलग-अलग व्यक्तित्व मानते हैं। 

व्यक्तित्व,अपनी पहचान, फासला आदि शब्दों और आधुनिक विचारों ने लगभग हर सम्बन्ध को जकड़ लिया है। विवाह की धारणा तो मानों एक मजाक बन गयी है। इन विचारों के बावजूद भी किसी के लिए अपने साथी को मुक्त करना कितना कठिन है क्योंकि इस स्तर के संबंधों में एक अधिकार की भावना प्रबल है जिसके वश आप अपने जीवन साथी को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। वह क्या करता है, किससे मिलता है, कहां जाता है, आप विशेष रूप से अपनी तरह से उसे चलाना चाहते हैं। ईर्ष्या, क्रोध अविश्वास आदि सभी निम्न स्तर की भावनाएं हैं जो एकजुटता और सौहार्द से कोसों
 दूर हैं। इस तरह की भावनाओं पर आधारित विवाह के संबंध, घर और आसपास का सारा वातावरण असंतुलित हो जाते हैं। इस प्रकार के संयोग या सम्बन्ध ‘सूर्य चक्र’ की विशेषताएं हैं। प्रेम के आधार पर बना सम्बन्ध इससे कहीं अधिक ऊंचा होता है जिसमे जीवन साथी एक दूसरे के साथ होते हुए भी मुक्त होते हैं। ऐसा सम्बन्ध ‘अनाहत चक्र’ पर स्थापित होता है जो कि निस्वार्थ प्रेम का स्थान है।

 प्रेम कभी भी आपको पकड़ता नहीं है और न ही भावनाओं और शर्तों से बांधता है। यह तो स्वार्थ रहित होता है जिसमें बंधकर भी मुक्ति का एहसास है क्योंकि आप अपने जीवन साथी की ख़ुशी में खुश हैं। हालांकि आज के समय में प्रेम के आधार पर स्थापित सम्बन्ध कम ही देखने को मिलते हैं और इससे भी दुर्लभ वह संयोग हैं जो विशुद्धि चक्र के स्तर पर स्थापित हैं अर्थात रचनात्मकता या सृजनशीलता पर आधारित हैं। विशुद्धि चक्र रचनात्मकता के स्तर का उच्च पहलू है जहां पर लोग स्वार्थ से ऊपर उठकर परोपकार के लिए जुड़ते हैं, अपने से परे सोच सकते हैं। जैसे कि लोगों में जागरूकता पैदा करना और जिन्हें मदद की आवश्यकता है, उनके लिए संस्थानों, धर्मार्थ संगठनों आदि की स्थापना करना। स्वयं की जरूरतों से ऊपर उठकर दूसरों के लिए सोचना आदि।  
मानव शरीर में जो चक्र इन सभी चक्रों से ऊपर होता है, वह शिव का स्थान है, जो कि आज्ञा चक्र कहलाता है। इस केंद्र पर गठित संयोग इतना सूक्ष्म होता है जो कि कलियुग के इस चरण में खोजना लगभग असंभव है। यहां का संयोग केवल उन लोगों के लिए संभव है जिन्होनें स्थूल, भौतिक और भावनात्मक स्तर पर प्रेम और रचनात्मक इच्छाओं को पार कर लिया है, वही अस्तित्व के इस सर्वोच्च और सूक्ष्मतम स्तर पर जुड़ सकते हैं और यही पूर्ण रूप से शक्ति और शिव का मिलन है। एक मनुष्य का आत्मिक विकास तभी संभव है जब वह प्रत्येक चक्र के गुणों का अनुभव करते हुए हर स्तर से ऊपर उठता जाता है। 

किसी एक सम्बन्ध में इन सभी स्तरों/चक्रों पर जुड़ना लगभग असंभव है इसीलिए अनुभव के लिए और प्रत्येक चक्र से ऊपर उठने के लिए यह सम्बन्ध जोड़े जाते थे। इसी कारण से पहले के समय में ऋषियों  की एक से अधिक पत्नियां होती थीं, भले ही वह सन्यासी थे। किन्तु विवाह केवल आत्मिक विकास और अनुभवों का ही साधन नहीं है बल्कि एक दुसरे का पूर्ण उत्तरदायित्व उठाने का बंधन है। आपको अपने साथी की शारीरिक, भौतिक, भावनात्मक और बाकि सभी आवश्यकताओं की पूर्ती, आजीवन प्रेम और आदर के साथ करनी है, इसी को विवाह कहते हैं। 

वैदिक दर्शन इतना बड़ा और विशाल है कि उसने प्रकृति के हर पहलू व सृष्टि के प्रत्येक स्तर को शामिल किया है। विभिन्न लोकों के प्राणियों की प्रकृति के अनुसार विवाह को पांच प्रकार में वर्गीकृत किया गया है। पहला, मानव विवाह या जो हम आज के विवाह देखते हैं जिसमें विधि और रस्मों की आवश्यकता होती है,जीवन भर साथ बने रहने के इरादे से किये जाते हैं। दूसरा, प्रेम विवाह जिसकी धारणा कोई आधुनिक काल की देन नहीं है बल्कि प्राचीन समय में भी होते थे जिसे ‘गन्धर्व विवाह’ कहा जाता था। अर्थात, यदि स्त्री-पुरुष बिना किसी रस्म या विधि के विवाह करना चाहते हैं तो वह संभव था और उन्हें ऐसा करने की अनुमति थी। वह केवल मालाओं का आदान-प्रदान कर वैवाहिक समझे जाते थे। इसका तात्पर्य था कि किसी समारोह द्वारा दुनिया भर में घोषणा करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि आप विवाह कर रहे हैं। अगर आपका सम्बन्ध ह्रदय से जुड़ा हुआ है और यदि आप अपने जीवनसाथी की पूरी जिम्मेदारी वहन करने के लिए तैयार हैं तो आप विवाहित हैं। 

 जबकि जो रिश्ते पति-पत्नी की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में भी विफल हैं, उन्हें विवाह नहीं कहा जा सकता फिर भले ही वो विधि-विधान या अनुष्ठानों के साथ किये गए हों। यहां तक कि एक आसुरिक विवाह भी जिम्मेदारी से रहित नहीं है। तीसरे प्रकार का यह विवाह जहां पर किसी की इच्छा
 के विरुद्ध यदि उससे जबरदस्ती विवाह किया जाये ( जैसे कि जबरन यौन उत्पीड़न के मामले में ) आसुरिक विवाह कहलाता है। हालांकि यहां भी उस व्यक्ति को दूसरे की सभी शारीरिक एवं भौतिक आवश्यकताओं का जीवनपर्यन्त निर्वाह करना होगा। राक्षस कुल के भी यही आदर्श या प्रतिमान थे जो कि निश्चित रूप से मानव जाति के लिए नहीं थे। यहां पर भी पूरा प्यार और सम्मान उस व्यक्ति विशेष को दिया जाता था।

अपनी कामुक इच्छाओं को पूरा करने के बाद उस सम्बन्ध को निभाना ही होता था। चौथे प्रकार का विवाह यक्ष विवाह कहलाता है। यक्ष, देवताओं के संरक्षक हैं। यह विवाह अनुष्ठानों  द्वारा आयोजित किया जाता है जो मानव विवाह की तुलना में लम्बे समय तक रहता है किन्तु देव विवाह की तुलना में कम। देवों को प्रकृति की उच्च शक्तियों द्वारा आशीर्वाद प्राप्त होता है। उनकी विवाह विधि या समारोह को पूर्ण होने में 12 महीनों का समय लगता है और यह वैवाहिक सम्बन्ध सात जन्मों तक रहते हैं। इन सात जन्मों में देव युगल कुछ विशेष उत्तरदायित्व निभाते हुए देव लोक की ओर प्रस्थान करते हैं। कुंडली मिलान का विज्ञान और कुछ नहीं स्त्री-पुरुष के चक्रों का मिलान था, जिसे वैदिक ऋषियों ने सिद्ध किया था और एक वरदान के रूप में मानव जाति के लिए दिया था।

अश्विनी गुरुजी ध्यान आश्रम 
 


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Content Editor

Prachi Sharma

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