Surdas Jayanti 2020: सूरदास जी के पास आते थे श्री कृष्ण, पढ़ें कथा

punjabkesari.in Tuesday, Apr 28, 2020 - 09:22 AM (IST)

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Surdas Jayanti 2020: भारतीय धार्मिक साहित्य के अमर ग्रंथ (सूरसागर) के रचयिता श्री सूरदास जी का जन्म दिल्ली के सन्निकट सीही ग्राम में विक्रम सम्वत् 1535 की वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था। आज 28 अप्रैल, मंगलवार का दिन सूरदास जयंती के रुप में मनाया जाएगा। इनकी प्रतिभा अत्यंत प्रखर थी। बचपन से ही ये काव्य और संगीत में अत्यंत निपुण थे। चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार ये सारस्वत ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम रामदास था।

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पुष्टि-सम्प्रदायाचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य विक्रम सम्वत् 1560 में अपनी ब्रज यात्रा के अवसर पर मथुरा में निवास कर रहे थे। वहीं सूरदास जी ने उनसे दीक्षा प्राप्त की। आचार्य के इष्ट देव श्रीनाथ जी के प्रति इनकी अपूर्व श्रद्धा भक्ति थी। आचार्य की कृपा से ये श्रीनाथ जी के प्रधान कीर्तनकार नियुक्त हुए। प्रतिदिन श्रीनाथ जी के दर्शन करके उन्हें नए-नए पद सुनाने में सूरदास जी को बड़ा सुख मिलता था। श्री राधा कृष्ण के अनन्य अनुरागी श्री सूरदास जी बड़े ही प्रेमी और त्यागी भक्त थे। इनकी मानस-पूजा सिद्ध थी। श्री कृष्ण-लीलाओं का सुंदर और सरस वर्णन करने में ये अद्वितीय थे। अपने गुरु देव की आज्ञा से इन्होंने श्रीमद् भागवत की कथा का पदों में प्रणयन किया। इनके द्वारा रचित सूरसागर में श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध की कथा का अत्यंत सरस तथा मार्मिक चित्रण है। उसमें सवा लाख पद बताए जाते हैं यद्यपि इस समय उतने पद नहीं मिलते हैं।

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एक बार श्री सूरदास जी एक कुएं में गिर गए और छ: दिनों तक उसमें पड़े रहे। सातवें दिन भगवान श्री कृष्ण ने प्रकट होकर इन्हें दृष्टि प्रदान की। इन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के रूप-माधुर्य का छककर पान किया।

इन्होंने भगवान श्री कृष्ण से यह वर मांगा कि ‘‘मैंने जिन नेत्रों से आपका दर्शन किया उनसे संसार के किसी अन्य व्यक्ति और वस्तु का दर्शन न करूं।’’

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इसलिए ये कुएं से निकलने के बाद पहले की तरह अंधे हो गए। कहते हैं इनके साथ बराबर एक लेखक रहा करता था और वह इनके मुंह से निकलने वाले भजन साथ-साथ लिखता जाता था। कई अवसरों पर लेखक के अभाव में भगवान श्री कृष्ण स्वयं इनके लेखक का काम करते थे।

एक बार संगीत-सम्राट तानसेन बादशाह अकबर के सामने सूरदास का एक अत्यंत सरस और भक्तिपूर्ण पद गा रहे थे। बादशाह पद की सरसता पर मुग्ध हो गए और उन्होंने सूरदास से स्वयं मिलने की इच्छा प्रकट की। वह तानसेन के साथ सूरदास जी से मिलने गए। उनके अनुनय-विनय से प्रसन्न होकर सूरदास जी ने एक पद गाया जिसका अभिप्राय था कि ‘‘हे मन! तुम  माधव से प्रीति करो। संसार की नश्वरता में क्या रखा है।’’ बादशाह उनकी अनुपम भक्ति से अत्यंत प्रभावित हुए।

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श्री सूरदास जी की उपासना सख्य भाव की थी। यहां तक कि यह उद्धव के अवतार कहे जाते हैं। विक्रम सम्वत् 1620 के लगभग गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सामने परसोली ग्राम में वह श्री राधा-कृष्ण की अखंड रास में सदा के लिए लीन हो गए। इनके पद बड़े ही अनूठे हैं।

उनमें डूबने से आत्मा को वास्तविक सुख-शांति और तृप्ति मिलती है। शृंगार और वात्सल्य का जैसा वर्णन श्री सूरदास जी की रचनाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। 

 


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Niyati Bhandari

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