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punjabkesari.in Saturday, Jul 06, 2024 - 09:25 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

संकल्प शक्ति को हम दृढ़ इच्छाशक्ति के नाम से भी पुकार सकते हैं। यह विश्व की वह महान शक्ति है जो मनुष्य जीवन में उन्नति का कारण बनती है। इसके बिना किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। विश्व में आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनके जीवन को पवित्र और महान बनाने वाली उनकी यही संकल्प शक्ति ही तो है। अपनी संकल्प शक्ति एवं दृढ़ विचारों के लिए आज भी ध्रुव एवं प्रह्लाद याद किए जाते हैं। संत विनोवा भावे अपनी संकल्पशक्ति के एक आदर्श उदाहरण थे। बचपन में ही उन्होंने अपने साथियों के बीच खेल ही खेल में संत बनने के जो संकल्प लिए थे, उन्हें उन्होंने आगे चलकर बाखूबी पूरा किया। उन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के सहारे सम्पूर्ण देश में भू-दान आंदोलन को सफलतापूर्वक चलाया। इसी प्रकार नेपोलियन बोनापार्ट (फ्रांसीसी सेना का साधारण सैनिक) अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति के दम पर ही फ्रांस का महान सम्राट बना।

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ऐसे ही केवल संकल्पशक्ति और दृढ़ आत्मविश्वास के बल पर ही सिकंदर महान ने आधा विश्व जीत लिया तथा वीर चंद्रगुप्त मौर्य ने अद्वितीय प्रसिद्धि प्राप्त की। उक्त समस्त महापुरुषों की सफलता का राज था उनका आत्मविश्वास, उनका पुरुषार्थ तथा सबकी दृढ़ इच्छाशक्ति।

संकल्प जिस दिशा में किया जाता है, वह उसी दिशा का वरदान बनकर रह जाता है। किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए हमें अपने आपको असहाय, अशक्त अथवा असमर्थ कभी नहीं समझना चाहिए।

हमें कभी भी हतोत्साहित नहीं होना चाहिए तथा अपने मन में कभी यह विचार नहीं लाना चाहिए कि साधनों के अभाव में हम आगे कैसे बढ़ सकते हैं ?

संकल्प में तो कार्यसिद्धि की महान शक्ति छिपी होती है इसलिए हमें स्वयं को संकल्पवान बनाना चाहिए तथा दूने उत्साह के साथ काम में लग जाना चाहिए। तभी तो सुभाषित श्लोकों में कहा गया है कि जो व्यक्ति उत्साह से युक्त है, दूरदर्शी है तथा आत्मविश्वासी है, उसके पीछे समस्त सिद्धियां स्वत: चली आती हैं।

मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसके अंदर निहित इच्छाशक्ति ही है, जो उसे कार्य करने की प्रेरणा देती है। जब तक मनुष्य के मन में इच्छा शक्ति जाग्रत नहीं होती, तब तक कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं होता। किंतु यही जाग्रत इच्छाशक्ति जब विचार और संकल्प का रूप धारण कर लेती है, तो फिर कार्य सुगमतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है।

आसमान में भांति-भांति के विचार चक्कर काटते रहते हैं, किंतु हम जिस प्रकार के विचारों को अपनाना चाहते हैं, उसी प्रकार के विचार हम आसमान से अपनी ओर खींच लेते हैं। यही कारण है कि यदि हमारे मन में कोई विचार पहले से घर किए हुए हैं तो हम उसी प्रकार के अन्य बुरे विचारों से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं और फिर वे बुरे विचार तब तक हमारा साथ नहीं छोड़ते जब तक हम स्वयं अपनी प्रबल संकल्प शक्ति के सहारे उन बुरे विचारों को अपने मन से निकाल बाहर नहीं फैंकते।

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वास्तव में विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। अन्य शब्दों में केवल विचार ही हमें आनंदित या फिर निराश करते हैं। वस्तुत: यह दुनिया ऐसी नहीं है, जैसी हम देखते हैं, अपितु यह दुनिया वैसी ही है जैसे हम उसके प्रति विचार रखते हैं। मनुष्य तो विचारों का पुतला मात्र है। अत: जैसा हम विचार करेंगे, वैसे ही बन जाएंगे। उदाहरण स्वरूप, यदि कोई किसी रोग का अधिक समय तक चिंतन करेगा तो कालांतर में वह उसी रोग को रोगी हो जाएगा, इसीलिए हमें चाहिए कि हम विपरीत परिस्थितियों में भी कभी निराश न हों, बल्कि हिम्मत से काम लें और अच्छे विचारों को मन में धारण करें।

इससे सुख और आशा की जो तरंगें मन में उठेंगी, वे रक्त पर उत्तम प्रभाव डालेंगी तथा शरीर सदैव स्वस्थ और निरोगी रहेगा। यह सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति सुख-समृद्धि चाहता है तथा सुखमय जीवन की कामना करता है, किंतु यह सब उसके उत्तम विचारों से ही संभव है। वेदों में भी कहा गया है कि हमारा मन सदैव शुभ संकल्पों वाला बने-

‘तन्मे मन: शुभसंकल्पमस्तमस्तु।’

अत: हमारा कर्तव्य है कि हम जीवमात्र की भलाई के लिए प्रबल संकल्पशक्ति के साथ निम्र प्रार्थना करें-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दु:खभाग्भवेत्॥
अर्थात सम्पूर्ण जीवों को सुख प्राप्त हो, सभी प्राणी निरोग रहें, सबका कल्याण हो तथा किसी को भी कोई दुख न पहुंचे।

इससे जहां विश्व बंधुत्व की भावना का विकास होगा, वहीं हमें अपरिमित मानसिक शक्ति की भी प्राप्ति होगी। स्वामी विवेकानंद का कथन है कि मनुष्य को रात्रि में सोने से पूर्व और प्रात: काल उठने के बाद चारों दिशाओं में मुंह करके प्रबल शक्ति के साथ सम्पूर्ण विश्व की भलाई और शांति की कामना करनी चाहिए। हमारी संकल्पशक्ति के साथ ही हमारे आसपास का वातावरण भी उसके अनुरूप निर्मित होने लगता है। यही नहीं हमें वैसे ही मित्र भी मिल जाते हैं तथा वैसे ही साधन एकत्र हो जाते हैं।

हम निरंतर यह सोचते रहें कि ‘मैं सत्पुरुष बनूंगा’ तो हमारे गुण, कर्म और स्वभाव वैसे ही बनने लगेंगे और एक दिन ऐसा आएगा कि हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेंगे। किंतु ऐसे चिंतन के साथ आत्मविश्वास और क्रियाशीलता भी अत्यंत आवश्यक है। इसके बिना अभीष्ट सिद्धि नहीं हो सकती। 

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Content Writer

Niyati Bhandari

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