श्रीमद्भगवद्गीता: ‘भगवत् सेवा’ में सुख

punjabkesari.in Sunday, Dec 05, 2021 - 12:36 PM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता 

‘भगवत् सेवा’ में सुख
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक- 
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।

अनुवाद तथा तात्पर्य:
जो पुरुष समुद्र में निरंतर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरंतर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शांति प्राप्त कर सकता है, दूसरा नहीं, जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्टा करता हो। यद्यपि विशाल सागर में सदैव जल रहता है, विशेष रूप में, वर्षा ऋतु में अधिकाधिक जल से भरता जाता है तो भी सागर उतना ही स्थिर रहता है। न तो वह विक्षुब्ध होता है और न तट की सीमा का उल्लंघन करता है। यही स्थिति कृष्णभावना भावित व्यक्ति की है।

जब तक मनुष्य शरीर है, तब तक इंद्रिय तृप्ति के लिए शरीर की मांगें बनी रहेंगी किंतु भक्त अपनी पूर्णता के कारण ऐसी इच्छाओं से विचलित नहीं होता। कृष्णभावना भावित व्यक्ति को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि भगवान उसकी सारी आवश्यकताएं पूरी करते रहते हैं। अत: वह सागर के तुल्य होता है-अपने में सदैव पूर्ण। उसका यही प्रमाण है- इच्छाओं के होते हुए भी वह कभी इंद्रिय तृप्ति के लिए उन्मुख नहीं होता।

कर्मी, मुमुक्षु तथा योगी- ये सभी सिद्धि के कामी हैं, अत: सभी अपूर्ण इच्छाओं से दुखी रहते हैं किंतु कृष्णभावना भावित पुरुष भगवत् सेवा में सुखी रहता है। वस्तुत: वह तो तथाकथित भवबंधन से मोक्ष की भी कामना नहीं करता। श्री कृष्ण के भक्तों की कोई भौतिक इच्छा नहीं रहती, इसलिए वे पूर्ण शांत रहते हैं। 


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Content Writer

Jyoti

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